सावित्री और सत्यवान का चरित्र | saavitree aur satyavaan ka charitr |

मत्स्य पुराण दो सौ आठवाँ अध्याय

सावित्री और सत्यवान का चरित्र

सूत उवाच

ततः स राजा देवेशं पप्रच्छामितविक्रमः ।
पतिव्रतानां माहात्यं तत्सम्बद्धां कथामपि ॥ १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। तदनन्तर अपरिमित पराक्रमी राजा मनुने भगवान् मत्स्यसे पतिव्रता त्रियोंके माहात्म्य तथा तत्सम्बन्धी कथाके विषयमें प्रश्न किया ॥ १॥

मनुरुवाच

पतिव्रतानां का श्रेष्ठा कया मृत्युः पराजितः । 
नामसंकीर्तनं कस्याः कीर्तनीयं सदा नरैः। 
सर्वपापक्षयकरमिदानीं कथयस्व मे ॥ २

मनुजीने पूछा- (प्रभो!) पतिव्रता खियोंमें कौन श्रेष्ठ है? किस स्त्रीने मृत्युको पराजित किया है? तथा मनुष्योंको सदा किस (सती नारी) का नामोच्चारण करना चाहिये? आप अब मुझसे सभी पापोंको नष्ट करनेवाली इस कथाका वर्णन कीजिये ॥ २॥ 

मत्स्य उवाच

वैलोम्यं धर्मराजोऽपि नाचरत्यथ योषिताम्।
पतिव्रतानां धर्मज्ञ पूज्यास्तस्यापि ताः सदा ॥ ३

अत्र ते वर्णयिष्यामि कथां पापप्रणाशिनीम्।
यथा विमोक्षितो भर्ता मृत्युपाशगतः स्त्रिया ॥ ४

मद्रेषु शाकलो राजा बभूवाश्वपतिः पुरा।
अपुत्रस्तप्यमानोऽसौ पुत्रार्थी सर्वकामदाम् ॥ ५

आराधयति सावित्रीं लक्षितोऽसौ द्विजोत्तमैः।
सिद्धार्थकैहूयमानां सावित्रीं प्रत्यहं द्विजैः ॥ ६

शतसंख्यैश्चतुर्थ्यां तु दशमासागते दिने।
काले तु दर्शयामास स्वां तनुं मनुजेश्वरम् ॥ ७

मत्स्यभगवान्ने कहा- धर्मज्ञ ! धर्मराज भी पतिव्रता स्त्रियोंके प्रतिकूल कोई व्यवहार नहीं कर सकते; क्योंकि वे उनके लिये भी सर्वदा सम्माननीय हैं। इस विषयमें मैं तुमसे पापोंको नष्ट करनेवाली वैसी कथाका वर्णन कर रहा हूँ कि किस प्रकार पतिव्रता स्त्रीने मृत्युके पाशमें पड़े हुए अपने पतिको बन्धनमुक्त कराया था। प्राचीन समयमें मद्रदेश (वर्तमान स्यालकोट जनपद)-में शाकलवंशी अश्वपति नामक एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। तब ब्राह्मणोंके निर्देशपर वे पुत्रकी कामनासे सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सावित्रीकी आराधना करने लगे। वे प्रतिदिन सैकड़ों ब्राह्मणोंके साथ सावित्रीदेवीकी प्रसन्नताके लिये सफेद सरसोंका हवन करते थे। दस महीना बीत जानेपर चतुर्थी तिथिको सावित्री (गायत्री) देवीने राजाको दर्शन दिया ॥ ३-७॥

सावित्र्युवाच

राजन् भक्तोऽसि मे नित्यं दास्यामि त्वां सुतां सदा। 
तां दत्तां मत्प्रसादेन पुत्रीं प्राप्स्यसि शोभनाम् ॥ ८

एतावदुक्त्वा सा राज्ञः प्रणतस्यैव पार्थिव। 
जगामादर्शनं देवी खे तथा नृप चञ्चला ॥ ९

मालती नाम तस्यासीद् राज्ञः पत्नी पतिव्रता। 
सुषुवे तनयां काले सावित्रीमिव रूपतः ॥ १०

सावित्र्याहुतया दत्ता तद्रूपसदृशी तथा। 
सावित्री च भवत्वेषा जगाद नृपतिर्द्विजान् ॥ ११

नामाकुर्वन् द्विजश्रेष्ठाः सावित्रीति नृपोत्तम। 
कालेन यौवनं प्राप्तं ददौ सत्यवते पिता ॥ १२

नारदस्तु ततः प्राह राजानं दीप्ततेजसम्। 
संवत्सरेण क्षीणायुर्भविष्यति नृपात्मजः । 
सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते चिन्तयित्वा नराधिपः ।। १३

तथापि प्रददौ कन्यां द्युमत्सेनात्मजे शुभे। 
सावित्र्यपि च भत्र्त्तारमासाद्य नृपमन्दिरे ॥ १४

नारदस्य तु वाक्येन दूयमानेन चेतसा । 
शुश्रूषां परमां चक्रे भर्तृश्वशुरयोर्वने ॥ १५ 

राज्याद् भ्रष्टः सभार्यस्तु नष्टचक्षुर्नराधिपः । 
न तुतोष समासाद्य राजपुत्रीं तथा स्नुषाम् ॥ १६

चतुर्थेऽहनि मर्तव्यं तथा सत्यवता द्विजाः ।
श्वशुरेणाभ्यनुज्ञाता तदा राजसुतापि सा ॥ १७

चक्रे त्रिरात्रं धर्मज्ञा व्रतं तस्मिस्तदा दिने। 
दारुपुष्यफलाहारी सत्यवांस्तु ययौ वनम् ॥ १८

श्वशुरेणाभ्यनुज्ञाता बाचनामङ्गभीरुणा। 
सावित्र्यपि जगामार्ता सह भर्त्रा महद्वनम् ॥ १९

चेतसा दूयमानेन गूहमाना महद्भयम्।
वने पप्रच्छ भर्तारं हुमांश्चासदृशांस्तथा ॥ २०

आश्वासयामास स राजपुत्रीं क्लान्तां वने पद्मविशालनेत्राम्।
संदर्शनेनाथ द्रुमद्विजानां तथा मृगाणां विपिने नृवीरः ॥ २१

सावित्रीने कहा- राजन् ! तुम मेरे नित्य भक्त हो, अतः मैं तुम्हें कन्या प्रदान करूँगी। मेरी कृपासे तुम्हें मेरी दी हुई सर्वाङ्गसुन्दरी कन्या प्राप्त होगी। राजन् । चरणोंमें पड़े हुए राजासे इतना कहकर वह देवी आकाशमें बिजलीकी भाँति अदृश्य हो गयी। नरेश! उस राजाकी मालती नामकी पतिव्रता पत्नी थी। समय जन्म दिया। तब राजाने ब्राह्मणोंसे कहा-तपके द्वारा आनेपर उसने सावित्रीके समान रूपवाली एक कन्याको आवाहन किये जानेपर सावित्रीने इसे मुझे दिया है तथा यह सावित्रीके समान रूपवाली है, अतः इसका नाम सावित्री होगा। नृपश्रेष्ठ। तब उन ब्राह्मणोंने उस कन्याका सावित्री नाम रख दिया। समयानुसार सावित्री युवती हुई, तब पिताने उसका सत्यवान्‌के लिये वाग्दान कर दिया। इसी बीच नारदने उस उद्दीप्त तेजस्वी राजासे कहा कि 'उस राजकुमारकी आयु एक ही वर्षमें समाप्त हो जायगी।' (नारदजीकी वाणी सुनकर) यद्यपि राजाके मनमें चिन्ता तो हुई. पर यह विचारकर कि 'कन्यादान एक ही बार किया जाता है' उन्होंने अपनी कन्या सावित्रीको द्युमत्सेनके सुन्दर पुत्र सत्यवान्‌को प्रदान कर दिया।

सावित्री भी पतिको पाकर अपने भवनमें नारदकी अशुभ वाणी सुनकर दुःखित मनसे काल व्यतीत करने लगी। वह वनमें सास-असुर तथा पतिदेवकी बड़ी शुश्रूषा करती थी; किंतु राजा द्युमत्सेन अपने राज्यसे च्युत हो गये थे तथा पत्नीसहित अन्धा होनेके कारण वैसी गुणवती राजपुत्रीको पुत्रवधू-रूपमें प्राप्तकर संतुष्ट नहीं थे। 'आजसे चौथे दिन सत्यवान् मर जायगा' ऐसा ब्राह्मणोंके मुखसे सुनकर धर्मपरायणा राजपुत्री सावित्रीने श्वशुरसे आज्ञा लेकर त्रिरात्र व्रतका अनुष्ठान किया। चौथा दिन आनेपर जब सत्यवान्ने लकड़ी, पुष्प एवं फलकी टोहमें जंगलकी ओर प्रस्थान किया, तब याचनाभङ्गसे डरती हुई सावित्री भी सास-वशुरकी आज्ञा लेकर दुःखत मनसे पतिके साथ उस भयंकर जंगलमें गयी। (नारदके वचनका ध्यान कर) चित्तमें अतिशय कष्ट रहनेपर भी उसने अपने इस महान् भयको अपने पतिसे व्यक्त नहीं किया, किंतु मन बहलावके लिये वनमें छोटे-बड़े वृक्षोंके बारेमें पतिसे झूठ-मूठ पूछ-ताछ करती रही। शूरवीर सत्यवान् उस भयंकर वनमें विशाल वृक्षों, पक्षियों एवं पशुओंके दलको दिखला-दिखलाकर थकी हुई एवं कमलके समान विशाल नेत्रोंवाली राजकुमारी सावित्रीको आश्वासन देता रहा ॥ ८-२१ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सावित्र्युपाख्याने सावित्रीवनप्रवेशो नामाष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०८ ॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सावित्री उपाख्यानमें सावित्रीवनप्रवेश नामक दो सौ आठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २०८ ॥

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