मत्स्य पुराण एक सौ बानबेवाँ अध्याय
शुक्ल तीर्थ का माहात्य
मार्कण्डेय उवाच
भार्गवेशं ततो गच्छेद् भग्नो यत्र जनार्दनः ।
असुरैस्तु महायुद्धे महाबलपराक्रमैः ॥ १
मार्कण्डेय जी ने पूछा-राजेन्द्र । तदनन्तर भार्गवेशतीर्थ की यात्रा करनी चाहिये। वहाँ एक बार भगवान् जनार्दन महा युद्ध में महाबली असुरों के साथ युद्ध करते-करते थक गये। १
हुंकारितास्तु देवेन दानवाः प्रलयं गताः।
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २
शुक्लतीर्थस्य चोत्पत्तिं शृणु त्वं पाण्डुनन्दन।
हिमवच्छिखरे रम्ये नानाधातुविचित्रिते ॥ ३
तरुणादित्यसंकाशे तप्तकाञ्चनसप्रभे।
वज्रस्फटिकसोपाने चित्रपट्टशिलातले ॥ ४
जाम्बूनदमये दिव्ये नानापुष्योपशोभिते।
तत्रासीनं महादेवं सर्वज्ञं प्रभुमव्ययम् ॥ ५
लोकानुग्रहकर्तारं गणवृन्दैः समावृतम् ।
स्कन्दनन्दिमहाकालैवीरभद्रगणादिभिः।
उमया सहितं देवं मार्कण्डिः पर्यपृच्छत ॥ ६
देवदेव महादेव ब्रह्मविष्टिवन्द्रसंस्तुत।
संसारभयभीतोऽहं सुखोपायं ब्रवीहि मे ॥ ७
भगवन् भूतभव्येश सर्वपापप्रणाशनम्।
तीर्थानां परमं तीर्थं तद् वदस्व महेश्वर ॥ ८
फिर उन प्रभुके हुंकारसे ही दानवगण नष्ट हो गये थे। वहाँ स्नान करनेसे मानव सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। पाण्डुनन्दन। अब आप शुक्लतीर्थकी उत्पत्ति सुनिये। किसी समय विविध धातुओंसे रंग-बिरंगे हिमवान् पर्वतके मनोरम शिखरपर, जो मध्याह्नकालिक सूर्यके समान देदीप्यमान, तपाये हुए सोनेकी प्रभासे युक्त, हीरक और स्फटिककी सीढ़ियोंसे सुशोभित था, एक दिव्य सुवर्णमय तथा अनेक पुष्पोंसे विभूषित शिलातलपर सर्वज्ञ, सामर्थ्यशाली, अविनाशी लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले महादेव स्कन्द, नन्दी, महाकाल वीरभद्र आदि गणों तथा अन्यान्य गणसमूहोंसे घिरे हुए उमाके साथ बैठे हुए थे। उसी समय मार्कण्डेयजीने उनसे पूछा-'ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रसे वन्दित, देवाधिदेव महादेव! मैं संसार-भयसे भीत हूँ, मुझे सुखका साधन बतलाइये। ऐश्वर्यशाली महेश्वर! आप भूत और भविष्यके स्वामी हैं, अतः जो सभी पापोंका विनाशक एवं तीथोंमें श्रेष्ठ हो, वह तीर्थ मुझे बतलाइये ॥२-८ ॥
ईश्वर उवाच
शृणु विप्र महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
स्नानाय गच्छ सुभगं ऋषिसङ्गैः समावृतः ॥ ९
मन्वत्रिकश्यपाश्चैव याज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः ।
यमापस्तम्बसंवर्ताः कात्यायनबृहस्पती ॥ १०
नारदो गौतमश्चैव सेवन्ते धर्मकाङ्गिणः ।
गङ्गा कनखले पुण्या प्रयागं पुष्करं गयाम् ॥ ११
कुरुक्षेत्रं महापुण्यं राहुग्रस्ते दिवाकरे।
दिवा वा यदि वा रात्री शुक्लतीर्थं महाफलम् ॥ १२
दर्शनात् स्पर्शनाच्चैव स्नानाद्दानात् तपो जपात्।
होमाच्चैवोपवासाच्च शुक्लतीर्थं महाफलम् ॥ १३
शुक्लतीर्थ महापुण्यं नर्मदायां व्यवस्थितम्।
चाणक्यो नाम राजर्षिः सिद्धिं तत्र समागतः ॥ १४
एतत् क्षेत्रं सुविपुलं योजनं वृत्तसंस्थितम्।
शुक्लतीर्थ महापुण्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।। १५
पादपाग्रेण दृष्टेन ब्रह्महत्यां व्यपोहति।
जगतीदर्शनाच्चैव भ्रूणहत्यां व्यपोहति ॥ १६
अहं तत्र ऋषिश्रेष्ठ तिष्ठामि ह्युमया सह।
वैशाखे चैत्रमासे तु कृष्णपक्षे चतुर्दशी ॥ १७
भगवान् शंकरने कहा- महाबुद्धिमान् विप्र । तुम तो सकलशास्त्रविशारद और सौभाग्यशाली हो, तुम मेरी बात सुनो और ऋषियोंके साथ स्नान करनेके लिये शुक्लतीर्थमें जाओ। मनु, अत्रि, कश्यप, याज्ञवल्क्य, उशना, अङ्गिरा, यम, आपस्तम्ब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, नारद और गौतम-ये ऋषिगण धर्मकी अभिलाषासे युक्त हो उसी तीर्थका सेवन करते हैं। गङ्गा कनखलमें पुण्यको देनेवाली है, सूर्यग्रहणके समय प्रयाग, पुष्कर, गया और कुरुक्षेत्र विशिष्ट पुण्यदायक हो जाते हैं, किंतु शुक्लतीर्थ दिन या रात-सभी समय महान् पुण्यफल देनेवाला है। यह शुक्लतीर्थ दर्शन, स्पर्श, स्नान, दान, तप, जप, हवन और उपवास करनेसे महान् फलदायक होता है। यह महान् पुण्यदायक शुक्लतीर्थ नर्मदामें अवस्थित है। चाणक्य नामक राजर्षिने यहीं सिद्धि प्राप्त की थी। यह विशाल क्षेत्र एक योजन परिमाणका गोलाकार है। यह शुक्लतीर्थ महापुण्यको प्रदान करनेवाला और सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। यह यहाँ स्थित वृक्षके अग्रभागको देखनेसे ब्रह्महत्या और यहाँकी भूमिका दर्शन करनेसे भ्रूणहत्याके पापको नष्ट कर देता है। ऋषिश्रेष्ठ। में वहाँ उमाके साथ निवास करता हूँ। चैत्र तथा वैशाख-मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको में कैलाससे भी आकर यहाँ उपस्थित रहता हूँ॥९-१७॥
कैलासाच्चापि निष्क्रम्य तत्र संनिहितो ह्यहम्।
दैत्यदानवगन्धर्वाः सिद्धविद्याधरास्तथा ॥ १८
गणाश्चाप्सरसो नागाः सर्वे देवाः समागताः ।
गगनस्थास्तु तिष्ठन्ति विमानैः सार्वकामिकैः ॥ १९
शुक्लतीर्थ तु राजेन्द्र ह्यागता धर्मकाङ्किणः।
रजकेन यथा वस्वं शुक्लं भवति वारिणा ॥ २०
आजन्मजनितं पापं शुक्लं तीर्थं व्यपोहति।
स्नानं दानं महापुण्यं मार्कण्ड ऋषिसत्तम ॥ २९
शुक्लतीर्थात् परं तीर्थ न भूतं न भविष्यति।
पूर्वे वयसि कर्माणि कृत्वा पापानि मानवः।। २२
अहोरात्रोपवासेन शुक्लतीर्थे व्यपोहति।
तपसा ब्रह्मचर्येण यज्ञैर्दानेन वा पुनः ॥ २३
देवार्चनेन या पुष्टिर्न सा क्रतुशतैरपि।
कार्तिकस्य तु मासस्य कृष्णपक्षे चतुर्दशी ॥ २४
घृतेन स्नापयेद् देवमुपोष्य परमेश्वरम्।
एकविंशत्कुलोपेतो न च्यवेदैश्वरात् पदात् ॥ २५
शुक्लतीर्थ महापुण्यमृषिसिद्धनिषेवितम्।
तन्त्र स्नात्वा नरो राजन्न पुनर्जन्मभाय् भवेत् ॥ २६
स्नात्वा वै शुक्लतीर्थे तु हार्चयेद् वृषभध्वजम्।
कपालपूरणं कृत्वा तुष्यत्यत्र महेश्वरः ॥ २७
राजेन्द्र। दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, गण, अप्सराएँ और नाग ये सभी देवगण आकर सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले विमानोंपर आरूढ़ हो गगनमें स्थित रहते हैं। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले ये सभी शुक्लतीर्थमें आते हैं; क्योंकि जैसे धोबी मलिन वलको जलसे धोकर उब्बल कर देता है, उसी तखक शुक्लतीर्थ जन्मसे लेकर तबतकके किये गये पापोंको नष्ट कर देता है। ऋषिश्रेष्ठ मार्कण्डेय। यहाँका स्नान और दान महान् पुण्यफलको देनेवाले होते हैं। शुक्लतीर्थसे श्रेष्ठ तीर्थ न हुआ है और न होगा। मानव बचपनमें किये गये पाप-कमोंको शुक्लतीर्थमें एक दिन-रात उपवास करके नष्ट कर देता है। यहाँ तपस्या, ब्रहाचर्य, यज्ञ, दान और देवार्चनसे जो पुष्टि प्राप्त होती है, वह (अन्यत्र किये गये) सैकड़ों यज्ञोंसे भी नहीं मिलती। यहाँ कार्तिकमासके कृष्णपक्षको चतुर्दशी तिथिको उपवास कर परमेश्वर महादेवको घृतसे स्नान कराना चाहिये। ऐसा करनेसे वह अपने इक्कीस पौड़ियोंतक के पूर्वजोंके साथ महादेवके स्थानते च्युत नहीं होता। राजन्। ऋषियों और सिद्धोंद्वारा सेवित यह शुक्लतीर्थ महान् पुण्यदायक है। वहाँ स्नान करनेसे मानव पुन र्जन्म का भागी नहीं होता। शुक्लतीर्थमें स्नान कर वृषभ ध्वज की पूजा करे और कपाल को भर दे, ऐसा करनेसे महेश्वर प्रसन होते हैं॥१८-२७॥
अर्धनारीश्वरं देवं पटे भक्त्या लिखापयेत्।
शङ्खतूर्यनिनादैश्च ब्रह्मघोषश्च सद्विजैः ॥ २८
जागरं कारयेत् तत्र नृत्यगीतादिमङ्गलैः ।
प्रभाते शुक्लतीर्थे तु स्नानं वै देवतार्चनम् ॥ २९
आचार्यान् भोजयेत् पञ्चाच्छिवव्रतपराज्शुचीन् ।
दक्षिणां च यथाशक्ति वित्तशाठ्यं विवर्जयेत् ॥ ३०
प्रदक्षिणं ततः कृत्वा शनैर्देवान्तिकं व्रजेत् ।
एवं वै कुरुते यस्तु तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ३१
दिव्ययानं समारूढो गीयमानोऽप्सरोगणैः ।
शिवतुल्यबलोपेतस्तिष्ठत्याभूतसम्प्लवम् ॥ ३२
शुक्लतीर्थे तु या नारी ददाति कनकं शुभम्।
घृतेन स्नापयेद् देवं कुमारं चापि पूजयेत् ॥ ३३
एवं या कुरुते भक्त्या तस्याः पुण्यफलं शृणु।
मोदते शर्वलोकस्था यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ३४
पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां संक्रान्तौ विषुवे तथा।
स्नात्वा तु सोपवासः सन् विजितात्मा समाहितः ॥ ३५
दानं दद्याद् यथाशक्त्या प्रीयेतां हरिशंकरौ।
एवं तीर्थप्रभावेण सर्वं भवति चाक्षयम् ॥ ३६
अनार्थ दुर्गतं विप्रं नाथवन्तमथापि वा।
उद्वाहयति यस्तीर्थे तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ३७
यावत्तद्रोमसंख्या च तत्प्रसूतिकुलेषु च।
तावद्वर्षसहस्त्राणि शिवलोके महीयते ॥ ३८
वस्त्र के ऊपर भक्तिके साथ अर्धनारीश्वर महादेवका चित्र लिखवाये और शङ्ख-तुरहीके शब्दों एवं उत्तम ब्राह्मणोंके द्वारा वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणके साथ-साथ नृत्य, गीत आदि मङ्गल-कार्य करते हुए वहाँ रातमें जागरण कराये। प्रातःकाल शुक्लतीर्थमें स्नान करके देवताकी पूजा करे। तत्पश्चात् शिवव्रत-परायण पवित्र आचार्योंको भोजन कराये और कृपणता छोड़कर उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दे। इसके बाद उनकी प्रदक्षिणा कर धीरेसे देवताके समीप जाय। जो ऐसा करता है, उसे प्राप्त होनेवाला पुण्यफल सुनिये। वह शिवके समान बलशाली हो अप्सराओंद्वारा गाया जाता हुआ दिव्य विमानपर बैठकर प्रलयपर्यन्त स्थित रहता है। जो स्त्री शुक्लतीर्थमें शुभकारक सुवर्णका दान करती है और महादेवको घृतसे स्नान कराकर कुमार (स्कन्द) की भी पूजा करती है, भक्तिपूर्वक ऐसा करनेवाली खीको जो पुण्यफल प्राप्त होता है, उसे सुनिये। वह रुद्रलोकमें स्थित रहकर चौदह इन्द्रोंके कार्यकालतक आनन्दका उपभोग करती है। जो पूर्णिमा एवं चतुर्दशी तिथि, संक्रान्तिके दिन और विषुवयोगमें वहाँ स्नान करके मनको वशमें कर समाहित चित्तसे उपवासके साथ 'विष्णु और शंकर-दोनों प्रसन्न हों' इस भावनासे यथाशक्ति दान देता है, उसका वह सब तीर्थके प्रभावसे अक्षय हो जाता है। जो मानव उस तीर्थमें अनाथ, दुर्गतिग्रस्त अथवा सनाथ विप्रका भी विवाह कराता है उसे प्राप्त होनेवाला पुण्यफल सुनिये। वह उस ब्राह्मणके तथा उसकी वंशपरम्परामें उत्पन्न हुए लोगोंके शरीरमें जितने रोएँकी संख्या है, उतने हजार वर्षांतक शिवलोकमें पूजित होता है॥ २८-३८॥
इति श्रीमालये महापुराणे नर्मदामाहात्म्ये द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९२॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके नर्मदामाहात्म्यमें एक सी चानचेाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १९२॥
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