उपस्कर-विकृति के लक्षण और उनकी शान्ति | upaskar-vikrti ke lakshan aur unakee shaanti

मत्स्य पुराण दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय

उपस्कर-विकृति के लक्षण और उनकी शान्ति

गर्ग उवाच

यान्ति यानान्ययुक्तानि युक्तान्यपि न यान्ति च।
चोद्यमानानि तत्र स्यान्महद्भयमुपस्थितम् ।। १

वाद्यमाना न वाद्यन्ते वाद्यन्ते चाप्यनाहताः । 
अचलाश्च चलन्त्येव न चलन्ति चलानि च ॥ २

आकाशे तूर्यनादाश्च गीतगन्धर्वनिः स्वनाः ।
काष्ठदर्वीकुठारादि विकारं कुरुते यदि ॥ ३

गावो लाङ्गूलसङ्गैश्च स्त्रियः स्त्री च विघातयेत्। 
उपस्कारादिविकृतौ घोरं शस्त्रभयं भवेत् ॥ ४

वायोस्तु पूजां द्विज सक्तुभिश्च कृत्वा नियुक्तांश्च जपेच्च मन्त्रान् ।
दद्यात् प्रभूतं परमान्नमत्र सदक्षिणं तेन शमोऽस्य भूयात् ॥ ५

गर्गजीने कहा- ब्रह्मन् ! जिस देशमें रथादि घोड़कि बिना जोते ही चलने लगते हैं और घोड़ोंके जोतनेपर एवं उन्हें हाँकनेपर भी नहीं चलते, वहाँ महान् भय उपस्थित होनेवाला है। बिना बजाये ही बाजे बजने लगते हैं और बजानेपर नहीं बजते, अचल वस्तुएँ चलने लगती हैं और चल अचल हो जाती हैं, आकाशमें तुरुहीकी ध्वनि और गन्धर्वोकी गीतोंका शब्द सुनायी पड़ने लगता है, काष्ठ, करछुल एवं फावड़े आदिमें विकार उत्पन्न हो जाते हैं, गौएँ पूँछसे एक-दूसरेको मारने लगती हैं, स्त्रियाँ एक-दूसरेकी हत्या करने लगती हैं और घरेलू वस्तुओंमें भी विकार उत्पन्न हो जाते हैं, उस देशमें शस्त्रास्त्रोंसे घोर भय उत्पन्न होता है। ऐसे उत्पातोंके घटित होनेपर सत्तूसे वायुदेवकी पूजा करके उनके मन्त्रोंका जप करना चाहिये और प्रचुरपरिमाणमें दक्षिणासहित परमोत्तम अन्नका दान देना चाहिये। इसीसे उस उत्पातका शमन होता है॥१-५॥

इति श्रीमात्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तावुपस्करवैकृत्यं नाम षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३६ ॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अद्भुतशान्ति-प्रकरणमें उपस्करशान्ति नामक दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३६ ॥

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