मत्स्य पुराण दो सौ उन्तीसवाँ अध्याय
उत्पातोंके भेद तथा कतिपय ऋतुस्वभावजन्य शुभदायक अद्भुतों का वर्णन
मनुरुवाच
अद्भुतानां फलं देव शमनं च तथा वद।
त्वं हि वेत्सि विशालाक्ष ज्ञेयं सर्वमशेषतः ॥ १
मनुने पूछा- विशाल नेत्रोंवाले देव! अब मुझे इन अद्भुतोंका फल तथा उनकी शान्तिका उपाय बतलाइये; क्योंकि आप सभी ज्ञेय विषयोंके पूर्ण ज्ञाता हैं॥ १॥
मत्स्य उवाच
अत्र ते वर्णयिष्यामि यदुवाच महातपाः ।
अत्रये वृद्धगर्गस्तु सर्वधर्मभृतां वरः ॥ २
सरस्वत्याः सुखासीनं गर्ग स्त्रोतसि पार्थिव।
पप्रच्छासौ महातेजा अत्रिर्मुनिजनप्रियम् ॥ ३
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! इस विषयमें सभी धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महातपस्वी वृद्ध गर्गने अत्रिसे जो कुछ कहा था, वह सब मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। एक समय मुनिजनोंके प्रिय महर्षि गर्गाचार्य सरस्वती नदीके तटपर सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उसी समय महातेजस्वी अत्रिने उनसे प्रश्न किया ॥ २-३॥
अत्रिरुवाच
नश्यतां पूर्वरूपाणि जनानां कथयस्व मे।
नगराणां तथा राज्ञां त्वं हि सर्वं वदस्व माम् ॥ ४
अत्रि ऋषिने पूछा- महर्षे। आप मुझे विनाशोन्मुख मनुष्यों, राजाओं तथा नगरोंके सभी पूर्वलक्षण बतलाइये ॥ ४ ॥
गर्ग उवाच
पुरुषापचारान्नियतमपरज्यन्ति देवताः ।
ततोऽपरागाद् देवानामुपसर्गः प्रवर्तते ।। ५
दिव्यान्तरिक्षभौमं च त्रिविधं सम्प्रकीर्तितम् ।
ग्रहर्क्षवैकृतं दिव्यमान्तरिक्षं निबोध मे ॥ ६
उल्कापातो दिशां दाहः परिवेषस्तथैव च।
गन्धर्वनगरं चैव वृष्टिश्च विकृता तु या ॥ ७
एवमादीनि लोकेऽस्मिन्नान्तरिक्षं विनिर्दिशेत् ।
चरस्थिरभवो भौमो भूकम्पश्चापि भूमिजः ।। ८
जलाशयानां वैकृत्यं भौमं तदपि कीर्तितम् ।
भौमे त्वल्पफलं ज्ञेयं चिरेण च विपच्यते ॥ ९
अभ्रर्ज मध्यफलदं मध्यकालफलप्रदम्।
अद्भुते तु समुत्पन्ने यदि वृष्टिः शिवा भवेत् ॥ १०
सप्ताहाभ्यन्तरे ज्ञेयमद्भुतं निष्फलं भवेत्।
अद्भुतस्य विपाकश्च विना शान्त्या न दृश्यते ॥ ११
त्रिभिर्वर्वैस्तथा ज्ञेयं सुमहद्भयकारकम्।
राज्ञः शरीरे लोके च पुरद्वारे पुरोहिते ॥ १२
पाकमायाति पुत्रेषु तथा वै कोशवाहने।
ऋतुस्वभावाद् राजेन्द्र भवन्त्यद्भुतसंज्ञिताः ॥ १३
गर्गजी बोले- अत्रिजी! मनुष्योंके अत्याचारसे निश्चय ही देवता प्रतिकूल हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन देवताओंके अप्रसन्न होनेसे उत्पात प्रारम्भ होता है। वह उत्पात दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम तीन प्रकारका कहा गया है। ग्रहों और नक्षत्रों के विकारको दिव्य उत्पात जानना चाहिये। अब मुझसे आन्तरिक्ष उत्पातका वर्णन सुनिये। उल्कापात, दिशाओंका दाह, मण्डलोंका उदय, आकाशमें गन्धर्व-नगरका दिखायी देना, खण्डवृष्टि, अनावृष्टि या अतिवृष्टि-इस प्रकार के उत्पातों को इस लोकमें आन्तरिक्ष उत्पात कहना चाहिये। स्थावर-जंगमसे उत्पन्न हुआ उत्पात तथा भूमिजन्य भूकम्प भौम उत्पात हैं। जलाशयोंका विकार भी भौम उत्पात कहलाता है। भौम उत्पात होनेपर उसका थोड़ा फल जानना चाहिये, किंतु वह बहुत देरमें शान्त होता है। आन्तरिक्ष उत्पात मध्यम फल देनेवाला होता है और मध्यमकालमें परिणामदायी होता है। इस महोत्पातके उदय होनेपर यदि कल्याणकारिणी वृष्टि होती है तो यह समझ लेना चाहिये कि एक सप्ताहके भीतर यह उत्पात निष्फल हो जायगा, किंतु इस महान् उत्पातका अवसान शान्तिके बिना नहीं होता। इसे तीन वर्षोंतक महान् भयदायक मानना चाहिये। इसका परिणाम राजाके शरीर, राज्य, पुरद्वार, पुरोहित, पुत्र, कोश और वाहनोंपर प्रकट होता है। राजेन्द्र । जो अद्भुतसंज्ञक उत्पात ऋतुओंके स्वभावके अनुकूल होते हैं, उन्हें शुभदायक मानना चाहिये। मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये ॥ ५-१३ ॥
शुभावहास्ते विज्ञेयास्तांश्च मे गदतः शृणु।
वज्राशनिमहीकम्पसंध्यानिर्घातनिःस्वनाः ॥ १४
परिवेषरजोधूमरक्तार्कास्तमयोदयाः ।
द्रुमोद्भेदकरस्नेहो बहुशः सफलद्रुमः ॥ १५
गोपक्षिमधुवृद्धिश्च शुभानि मधुमाधवे ।
ऋक्षोल्कापातकलुषं कपिलार्केन्दुमण्डलम् ॥ १६
कृष्णश्वेतं तथा पीतं धूसरध्वान्तलोहितम्।
रक्तपुष्यारुणं सांध्यं नभः क्षुब्धार्णवोपमम् ॥ १७
सरितां चाम्बुसंशोषं दृष्ट्वा ग्रीष्मे शुभं वदेत्।
शक्रायुधपरीवेषं विद्युदुल्काधिरोहणम् ॥ १८
कम्पोद्वर्तनवैकृत्यं हृसनं दारणं क्षितेः ।
नद्युदपानसरसां विधूनतरणप्लवाः ॥ १९
शृङ्गिणां च वराहाणां वर्षासु शुभमिष्यते।
शीतानिलतुषारत्वं नर्दनं मृगपक्षिणाम् ॥ २०
रक्षोभूतपिशाचानां दर्शनं वागमानुषी।
दिशो धूमान्धकाराश्च सनभोवनपर्वताः ॥ २१
उच्चैः सूर्योदयास्तौ च हेमन्ते शोभनाः स्मृताः ।
दिव्यस्त्रीरूपगन्धर्वविमानाद्भुतदर्शनम् ॥२२
ग्रहनक्षत्रताराणां दर्शनं वागमानुषी।
गीतवादित्रनिर्घोषो वनपर्वतसानुषु ॥ २३
सस्यवृद्धी रसोत्पत्तिः शरत्काले शुभाः स्मृताः ।
हिमपातानिलोत्पातविरूपाद्भुतदर्शनम् ॥ २४
कृष्णाञ्जनाभमाकाशं तारोल्कापातपिञ्जरम् ।
चित्रगर्भोद्भवः स्त्रीषु गोऽजाश्वमृगपक्षिषु ।
पत्राङ्कुरलतानां च विकाराः शिशिरे शुभाः ॥ २५
ऋतुस्वभावेन विनाद्भुतस्य जातस्य दृष्टस्य तु शीघ्रमेव ।
यथागमं शान्तिरनन्तरं तु कार्या यथोक्ता वसुधाधिपेन ॥ २६
वज्र एवं बिजलीका गिरना, पृथ्वीका कम्पन, संध्याके समय वज्रका शब्द, सूर्य तथा चन्द्रमामें मण्डलोंका होना, धूलि और धूएँका उद्भव, उदय एवं अस्तके समय सूर्यकी अतिलालिमा, वृक्षोंके टूट जानेपर उनसे रसका गिरना, फलवाले वृक्षोंकी अधिकता, गौ, पक्षी और मधुकी वृद्धि ये चैत्र और वैशाखमासमें शुभप्रद हैं। ग्रीष्म ऋतुमें कलुषित नक्षत्रों और ग्रहोंका पतन, सूर्य और चन्द्रके मण्डलोंका कपिल वर्ण होना, सायंकालीन नभके काले और सफेद मिश्रित, पीले, धूसरित, श्यामल, लाल, लाल पुष्पके समान अरुण और क्षुब्ध सागरकी तरह संक्षुब्ध होना तथा नदियोंका जल सूख जाना-इन उत्पातोंको देखकर इन्हें शुभ कहना चाहिये। इन्द्रधनुषका मण्डलाकार उदय, विद्युत् और उल्काका पतन, पृथ्वीका अकस्मात् कम्पन, उलट-पलट विकृति, ह्रास और फटना, नदियों एवं तालाबोंमें जलकी न्यूनता, नाव, जहाज और पुलका काँपना, सींगवाले जानवरों तथा शूकरोंकी वृद्धि-ये उत्पात वर्षा ऋतुमें मङ्गलकारी हैं।
शीतल वायु, तुषार,पशु एवं पक्षियोंका चीत्कार, राक्षस, भूत और पिशाचोंका दर्शन, दैवी वाणी, सूर्यके उदय-अस्तके समय आकाश, वन और पर्वतॉसहित दिशाओंका गाढ़रूपमें धुएँसे अन्धकारित हो जाना- ये उत्पात हेमन्त ऋतुमें उत्तम माने जाते हैं। दिव्य स्त्रीका रूप, गन्धर्व विमान, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंका दर्शन, दैवी वाणी, वनोंमें और पर्वतोंकी चोटियोंपर गाने-बजानेका शब्द सुनायी पड़ना, अन्नोंकी वृद्धि, रसकी विशेष उत्पत्ति- ये उत्पात शरत्कालमें माङ्गलिक कहे गये हैं। हिमपात, वातका बहना, विरूप एवं अद्भुत उत्पातोंका दर्शन, आकाशका काले कञ्जलके समान दिखायी पड़ना तथा ताराओं एवं उल्काओंके गिरनेसे पीले रंगका दीख पड़ना, स्त्री, गाय, बकरी, घोड़ी, मृगी और पक्षियोंसे विचित्र प्रकारके बच्चोंका पैदा होना, पत्तों, अड्कुरों और लताओंमें अनेकों प्रकारके विकारोंका हो जाना-ये उत्पात शिशिर ऋतुमें शुभदायी माने गये हैं। इन ऋतु-स्वभावके अतिरिक्त अन्य उत्पन्न हुए अद्भुत उत्पातके देखे जानेके बाद राजाको शीघ्र ही शास्त्रानुकूल कही गयी शान्तिका विधान करना चाहिये ॥ १४-२६ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तिकोत्पत्तिनमिकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२९ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अद्भुत उत्पातोंकी शान्ति नामक दो सौ उन्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२९ ॥
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