मत्स्य पुराण दो सौ छप्पनवाँ अध्याय
वास्तु प्रकरण में गृह-निर्माण विधि
सूत उवाच
उदगादिप्लवं वास्तु समानशिखरं तथा।
परीक्ष्य पूर्ववत् कुर्यात् स्तम्भोच्छ्रायं विचक्षणः ॥१
न देवधूर्तसचिवचत्वराणां समीपतः ।
कारयेद् भवनं प्राज्ञो दुःखशोकमयं ततः ॥ २
सूतजी कहते हैं- ऋषियो । बुद्धिमान् पुरुष उत्तरकी ओर झुकी हुई या समान भागवाली भूमिकी परीक्षा कर पूर्व कही गयी रीतिसे स्तम्भकी ऊँचाई आदिका निर्माण कराये। बुद्धिमान् पुरुषको देवालय, धूर्त, सचिव या चौराहेके समीप अपना घर नहीं बनवाना चाहिये; क्योंकि इससे दुःख, शोक और भय बना रहता है। २
तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गोऽग्रतः शुभः ।
पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्तः प्रशस्यते ॥ ३
अपसव्यो विनाशाय दक्षिणे शीर्षकस्तथा।
सर्वकामफलो नृणां सम्पूर्णो नाम वामतः ॥ ४
एवं प्रदेशमालोक्य यत्नेन गृहमारभेत्।
अथ सांवत्सरप्रोक्ते मुहूर्त शुभलक्षणे ॥ ५
रत्नोपरि शिलां कृत्वा सर्वबीजसमन्विताम् ।
चतुर्भिर्ब्राह्मणैः स्तम्भं कारयित्वा सुपूजितम् ॥ ६
शुक्लाम्बरधरः शिल्पिसहितो वेदपारगः ।
स्नापितं विन्यसेत् तद्वत् सर्वोषधिसमन्वितम् ॥ ७
नानाक्षतसमोपेतं वस्त्रालङ्कारसंयुतम्।
ब्रह्मघोषेण वाद्येन गीतमङ्गलनिः स्वनैः ॥ ८
पायसं भोजयेद् विप्रान् होमं तु मधुसर्पिषा।
वास्तोष्पते प्रतिजानीहि मन्त्रेणानेन सर्वदा ॥ ९
सूत्रपाते तथा कार्यमेवं स्तम्भोदये पुनः ।
द्वारवंशोच्छ्रये तद्वत् प्रवेशसमये तथा ॥ १०
वास्तूपशमने तद्वद् वास्तुयज्ञस्तु पञ्चथा।
ईशाने सूत्रपातः स्यादाग्नेये स्तम्भरोपणम् ॥ ११
प्रदक्षिणं च कुर्वीत वास्तोः पदविलेखनम् ।
तर्जनी मध्यमा चैव तथाङ्गुष्ठस्तु दक्षिणे ॥ १२
प्रवालरत्नकनकफलं पिष्ट्वा कृतोदकम्।
सर्ववास्तुविभागेषु शस्तं पदविलेखने ॥ १३
घर के चारों ओर तथा द्वारके सम्मुख और पीछे कुछ भूमिको छोड़ देना शुभकारक है। पिछला भाग दक्षिणावर्त रहना ठीक है; क्योंकि वामावर्त विनाशकारक होता है। दक्षिण भागमें ऊँचा रहनेवाला घर 'सम्पूर्ण' वास्तुके नामसे अभिहित किया जाता है। वह मनुष्योंकी सभी कामनाओंको पूर्ण करता है। इस प्रकारके प्रदेशको देखकर प्रयत्नपूर्वक गृह आरम्भ करना चाहिये। सर्वप्रथम वेदज्ञ पुरोहित श्वेत वस्त्र धारण कर कारीगरके साथ ज्योतिषीके कथनानुसार शुभ मुहूर्तमें सभी बीजोंसे युक्त आधार-शिलाको रत्नके ऊपर स्थापित करे। पुनः चार ब्राह्मणोंद्वारा उस स्तम्भकी भलीभाँति पूजा कराकर उसे धो-पोंछकर अक्षत, वस्त्र, अलंकार और सर्वोषधिसे पूजितकर पूर्ववत् मन्त्रोच्चारण, बाजा और माङ्गलिक गीत आदिके शब्दके साथ स्थापित कर दे। ब्राह्मणोंको खीरका भोजन कराये और 'वास्तोष्पते प्रतिजानीहि" (ऋऋक्संहिता ७।५४।१) इस मन्त्रके द्वारा मधु और घीसे हवन करे। वास्तुयज्ञ पाँच प्रकारके हैं- सूत्रपात, स्तम्भारोपण, द्वारवंशोच्छ्रय (चौखट-स्थापन), गृहप्रवेश और वास्तु शान्ति। इन सभीमें पूर्ववत् कार्य करनेका विधान है। ईशानकोणमें सूत्रपात और अग्निकोणमें स्तम्भारोपण होता है। वास्तुके पदचिह्नोंको बनाकर उसकी प्रदक्षिणा करनी चाहिये। सभी वास्तु-विभागोंमें दाहिने हाथकी तर्जनी, मध्यमा और अङ्गुठेसे मूँगा, रत्न और सुवर्णक चूर्णसे मिश्रित जलद्वारा पद-चिह्न बनाना श्रेष्ठ माना गया है॥ ३-१३॥
न भस्माङ्गारकाष्ठेन नखशस्त्रेण चर्मभिः ।
न शृङ्गास्थिकपालैश्च क्वचिद् वास्तु विलेखयेत् ।। १४
एभिर्विलिखितं कुर्याद् दुःखशोकभयादिकम्।
यदा गृहप्रवेशः स्याच्छिल्पी तत्रापि लक्षयेत् ॥ १५
स्तम्भसूत्रादिकं तद्वच्छुभाशुभफलप्रदम् ।
आदित्याभिमुखं रौति शकुनिः परुषं यदि ॥ १६
तुल्यकालं स्पृशेदङ्गं गृहभर्तुर्यदात्मनः ।
वास्त्वङ्गे तद् विजानीयान्नरशल्यं भयप्रदम् ॥ १७
अङ्कनानन्तरं यत्र हस्त्यश्वश्वापदं भवेत्।
तदङ्गसम्भवं विन्द्यात् तत्र शल्यं विचक्षणः ॥ १८
प्रसार्यमाणे सूत्रे तु श्वा गोमायुर्विलङ्घते।
तत्तु शल्यं विजानीयात् खरशब्देऽतिभैरवे ॥ १९
यदीशाने तु दिग्भागे मधुरं रौति वायसः ।
धनं तत्र विजानीयाद् भागे वा स्वाम्यधिष्ठिते ॥ २०
सूत्रच्छेदे भवेन्मृत्युव्र्व्याधिः कीले त्वधोमुखे।
अङ्गारेषु तथोन्मादं कपालेषु च सम्भ्रमम् ॥ २१
कम्बुशल्येषु जानीयात्पौँश्चल्यं स्वीषु वास्तुवित्।
गृहभर्तुर्गृहस्यापि विनाशः शिल्पिसम्भ्रमे ॥ २२
स्तम्भे स्कन्धच्युते कुम्भे शिरोरोगं विनिर्दिशेत्।
कुम्भापहारे सर्वस्य कुलस्यापि क्षयो भवेत् ॥ २३
मृत्युः स्थानच्युते कुम्भे भग्ने बन्धं विदुर्बुधाः ।
करसंख्याविनाशे तु नाशं गृहपतेर्विदुः ॥ २४
बीजौषधिविहीने तु भूतेभ्यो भयमादिशेत्।
ततः प्रदक्षिणेनान्यान्न्यसेत् स्तम्भान् विचक्षणः ।। २५
राख, अंगार, काष्ठ, नख, शास्त्र, चर्म, सींग, हड्डी, कपाल-इन वस्तुओंद्वारा कहीं भी वास्तुके चिह्न नहीं बनाना चाहिये; क्योंकि इनके द्वारा बनाया गया चिह्न दुःख, शोक और भय आदि उत्पन्न करता है। जिस समय गृहप्रवेश हो, उस समय कारीगरका भी रहना उचित है। स्तम्भारोपण और सूत्रपातके समय पूर्ववत् शुभएवं अशुभ फल देनेवाले शुक होते हैं। यदि ऐसे अवसरोंपर कोई पक्षी सूर्यकी ओर मुख कर कठोर वाणी बोलता है या उस समय गृहपति अपने शरीरके किसी अङ्गपर हाथ रखता है तो समझ लेना चाहिये कि वास्तुके उसीपर भय प्रदान करनेवाली मनुष्यकी हड्डी पड़ी हुई है। सूत्र अङ्कित कर देनेके बाद यदि गृहपत्ति अपने किसी अङ्गका स्पर्श करता है तो वास्तुके उसी अङ्गमें हाथी, अश्वच तथा कुत्तेकी हड्डियों हैं, ऐसा बुद्धिमान् पुरुषको समझ लेना चाहिये। सूत्रको फैलाते समय उसे शृगाल या कुत्ता लाँध जाता है और गदहा अत्यन्त भयंकर चौत्कार करता है तो ठीक उस स्थानपर हड्डी जाननी चाहिये।
यदि सूत्रपातके समय ईशान कोणमें कौआ मीठे स्वरसे बोलता हो तो वास्तुके उस भागमें या जहाँ गृहपति खड़ा है, वहाँ धन है-ऐसा जानना चाहिये। सूत्रपातके समय यदि सूत्र टूट जाता है तो गृहपतिकी मृत्यु होती है। वास्तुवेत्ताको ऐसा समझना चाहिये कि कीलके नीचेकी ओर झुक जानेपर व्याधि, अंगार दिखायी पड़नेपर उन्माद, कपाल दीख पड़नेपर भय और शङ्ख या घोंघेकी हड्डी मिलनेपर कुलाङ्गनाओंमें व्यभिचारकी सम्भावना रहती है। भवन-निर्माणके समय कारीगरके पागल हो जानेपर गृहपति और घरका विनाश हो जाता है। स्थापित किये हुए स्तम्भया कुम्भके कंधेपर गिर जानेसे गृहपतिके सिरमें रोग होता है तथा कलशकी चोरी हो जानेपर समूचे कुलका विनाश हो जाता है। कुम्भके अपने स्थानसे च्युत हो जानेपर गृहस्वामीकी मृत्यु होती है तथा फूट जानेपर वह बन्धनमें पड़ता है-ऐसा पण्डितोंने कहा है। गृहारम्भके समय हाथोंकी परिमाण-संख्या नष्ट हो जानेपर गृहपतिका नाश समझना चाहिये। बीज और ओषधियोंसे विहीन होनेपर भूतोंसे भय होता है। अतः विचारवान् पुरुष प्रदक्षिण-क्रमसे अन्य स्तम्भोंकी स्थापना करे; क्योंकि प्रदक्षिणक्रमके बिना स्थापित किये गये स्तम्भ मनुष्योंके लिये भयदायक होते हैं ॥ १४-२५ ॥
यस्माद् भयंकरा नृणां योजिता ह्यप्रदक्षिणम् ।
रक्षां कुर्वीत यत्नेन स्तम्भोपद्रवनाशिनीम् ॥ २६
तथा फलवतीं शाखां स्तम्भोपरि निवेशयेत् ।
प्रागुदकप्रवणं कुर्याद् दिङ्मूढं तु न कारयेत् ॥ २७
स्तम्भं वा भवनं वापि द्वारं वासगृहं तथा।
दिङ्मूढे कुलनाशः स्यान्न च संवर्धयेद् गृहम् ॥ २८
यदि संवर्धयेद् गेहं सर्वदिक्षु विवर्धयेत् ।
पूर्वेण वर्धितं वास्तु कुर्याद् वैराणि सर्वदा ॥ २९
दक्षिणे वर्धितं वास्तु मृत्यवे स्यान्न संशयः ।
पश्चाद् विवृद्धं यद् वास्तु तदर्थक्षयकारकम् ॥ ३०
वर्धापितं तथा सौम्ये बहुसन्तापकारकम् ।
आग्नेये यत्र वृद्धिः स्यात् तदग्निभयदं भवेत् ॥ ३१
वर्धितं राक्षसे कोणे शिशुक्षयकरं भवेत्।
वर्धापितं तु वायव्ये वातव्याधिप्रकोपकृत् ॥ ३२
ईशान्यामन्नहानिः स्याद् वास्तौ संवर्धिते सदा।
ईशाने देवतागारं तथा शान्तिगृहं भवेत् ॥ ३३
महानसं तथाग्नेये तत्पार्श्वे चोत्तरे जलम् ।
गृहस्योपस्करं सर्वं नैऋत्ये स्थापयेद् बुधः ॥ ३४
बन्धस्थानं बहिः कुर्यात् स्नानमण्डपमेव च।
धनधान्यं च वायव्ये कर्मशालां ततो बहिः ।
एवं वास्तुविशेषः स्याद् गृहभर्तुः शुभावहः ॥ ३५
स्तम्भके उपद्रवोंका विनाश करने वाली रक्षा-विधि भी यत्नपूर्वक सम्पन्न करनी चाहिये। इसके लिये स्तम्भके ऊपर फलों से युक्त वृक्षकी शाखा डाल देनी चाहिये। स्तम्भ उत्तर या पूर्वकी ओर ढालू होना चाहिये, अस्पष्ट दिशामें नहीं कराना चाहिये। इस बातका ध्यान भवन, स्तम्भ, निवासगृह तथा द्वार निर्माणके समय भौ स्थापन रखना चाहिये; क्योंकि दिशाकी अस्पतासे कुलका नाश हो जाता है। घरके किसी अंशको पिण्डसे आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशामें बढ़ावे। पूर्व दिशामें बढ़ाया गया वास्तु सर्वदा वैर पैदा करता है, दक्षिण दिशाकी ओर बढ़ाया हुआ वास्तु मृत्युकारी होता है, इसमें संदेह नहीं है। जो वास्तु पश्चिमकी और बढ़ाया जाता है, वह धनक्षयकारी होता है तथा उत्तरकी ओर बढ़ाया हुआ दुःख एवं सन्तापकी वृद्धि करता है। जहाँ अग्निकोणमें वृद्धि होती है, वहाँ वह अग्निका भय देनेवाला नैऋत्यकोण बढ़ानेपर शिशुओंका विनाशक, वायव्य कोणमें बढ़ानेपर वात-व्याधि-उत्पादक, ईशान कोणमें बढ़ानेपर अन्नके लिये हानिकारक होता है। गृहके ईशान कोणमें देवताका स्थान और शान्तिगृह, अग्निकोणमें रसोई घर और उसके बगलमें उत्तर दिशामें जलस्थान होना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुष सभी घरेलू सामग्रियोंको नैऋत्य कोणमें करे। पशुओं आदिके बाँधनेका स्थान और स्नानागार गृहके बाहर बनाये। वायव्य कोणमें अन्नादिका स्थान बनाये। इसी प्रकार कार्यशाला भी निवास स्थानसे बाहर बनानी चाहिये। इस ढंगसे बना हुआ भवन गृहपतिके लिये मङ्गलकारी होता है॥ २६-३५॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वास्तुविद्यायां गृहनिर्णयो नाम षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराण में वास्तुविद्याके प्रसङ्गमें गृहनिर्णय कथन नामक दो सौ छप्पनाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५६॥
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