वज्राङ्ग की उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्रका बन्धन, ब्रह्मा और कश्यप द्वारा समझाये जाने पर इन्द्र को बन्धन मुक्त करना | vajraang kee utpatti, usake dvaara indraka bandhan, brahma aur kashyap dvaara samajhaaye jaane par indr ko bandhan mukt karana

मत्स्य पुराण एक सौ छियालीसवाँ अध्याय

वज्राङ्ग की उत्पत्ति, उसके द्वारा इन्द्र का बन्धन, ब्रह्मा और कश्यप द्वारा समझाये जाने पर इन्द्र को बन्धनमुक्त करना, वज्राङ्गका विवाह, तप तथा ब्रह्मा द्वारा वरदान 

ऋषय ऊचुः

कथं मत्स्येन कथितस्तारकस्य वधो महान्। 
कस्मिन् काले विनिर्वृत्ता कथेयं सूतनन्दन ॥ १

त्वन्मुखक्षीरसिन्धूत्था कथेयममृतात्मिका। 
कर्णाभ्यां पिबतां तृप्तिरस्माकं न प्रजायते । 
इदं मुने समाख्याहि महाबुद्धे मनोगतम् ॥ २

ऋषियोंने पूछा-सूतनन्दन ! मत्स्यभगवान्ने तारकासुरके वधरूप महान् कार्यका वर्णन किस प्रकार किया था? यह कथा किस समय कही गयी थी? मुने! आपके मुखरूपी क्षीरसागरसे उद्भूत हुई इस अमृतरूपिणी कथाका दोनों कानोंद्वारा पान करते हुए भी हमलोगोंको तृप्ति नहीं हो रही है। अतः महाबुद्धिमान् सूतजी! आप हमलोगोंके इस मनोऽभिलषित विषयका वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥

सूत उवाच

पृष्टस्तु मनुना देवो मत्स्यरूपी जनार्दनः । 
कथं शरवणे जातो देवः षड्वदनो विभो ॥ ३

एतत्तु वचनं श्रुत्वा पार्थिवस्यामितौजसः । 
उवाच भगवान् प्रीतो ब्रह्मसूनुर्महामतिम् ॥ ४

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! (प्राचीन कालकी बात है) राजर्षि मनुने मत्स्यरूपधारी भगवान् विष्णुसे प्रश्न किया 'विभो। पढानन स्वामिकार्तिकका जन्म सरपतके वनमें कैसे हुआ था?' उन अमिततेजस्वी राजर्षि मनुका प्रश्न सुनकर महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र भगवान् मत्स्य प्रसत्रतापूर्वक बोले ॥ ३-४ ॥

मत्स्य उवाच

वज्राङ्गो नाम दैत्योऽभूत् तस्य पुत्रस्तु तारकः । 
सुरानुद्वासयामास पुरेभ्यः स महाबलः ।॥ ५ 

ततस्ते ब्रह्मणोऽभ्याशं जग्मुर्भयनिपीडिताः। 
भीतांश्च त्रिदशान् दृष्ट्वा ब्रह्मा तेषामुवाच ह ॥६ 

संत्यजध्वं भयं देवाः शंकरस्यात्मजः शिशुः। 
तुहिनाचलदौहित्रस्तं हनिष्यति दानवम् ॥ ७

ततः काले तु कस्मिश्चिद् दृष्ट्वा वै शैलजां शिवः । 
स्वरेतो वह्निवदने व्यसृजत् कारणान्तरे ॥ ८

तत् प्राप्तं वह्निवदने रेतो देवानतर्पयत्। 
विदार्य जठराण्येषामजीर्ण निर्गतं मुने ॥ ९

पतितं तत् सरिद्वरां ततस्तु शरकानने। 
तस्मात्तु स समुद्भूतो गुहो दिनकरप्रभः ॥ १०

स सप्तदिवसो बालो निजघ्ने तारकासुरम् । 
एवं श्रुत्वा ततो वाक्यं तमूचुर्ऋषिसत्तमाः ॥ ११ 

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! (बहुत पहले) वज्राङ्ग नामका एक दैत्य उत्पन्न हुआ है, उसके पुत्रका नाम तारक था। उस महाबली तारकने देवताओंको उनके नगरोंसे निकालकर खदेड़ दिया। तब भयभीत हुए वे सभी देवगण ब्रह्माके निकट गये। उन देवताओंको डरा देखकर ब्रह्माने उनसे कहा- 'देववृन्द! भय छोड़ दो। (शीघ्र ही) भगवान् शंकरके एक औरस पुत्र हिमाचलका दौहित्र (नाती) उत्पन्न होगा, जो उस दानवका वध करेगा।' तदनन्तर किसी समय पार्वतीको देखकर शिवजीका वीर्य स्खलित हो गया, तब उन्होंने उसे किसी भावी कारणवश अग्निके मुखमें गिरा दिया। अग्निके मुखमें पड़े हुए उस वीर्यने देवताओंको तृप्त कर दिया, किंतु पच न सकनेके कारण वह उनके उदरको फाड़कर बाहर निकल पड़ा और नदियोंमें श्रेष्ठ गङ्गामें जा गिरा। फिर वहाँ वह बहते हुए सरपतके वनमें जा लगा। उसीसे सूर्यके समान तेजस्वी गुह उत्पन्न हुए। उसी सात दिवसीय बालकने तारकासुरका वध किया। ऐसी अद्भुत बात सुनकर उन श्रेष्ठ ऋषियोंने पुनः सूतजीसे प्रश्न किया ॥५-११॥

ऋषय ऊचुः

अत्याश्चर्यवती रम्या कथेयं पापनाशिनी। 
विस्तरेण हि नो ब्रूहि याथातथ्येन शृण्वताम् ॥ १२

वज्राङ्गो नाम दैत्येन्द्रः कस्य वंशोद्भवः पुरा। 
यस्याभूत् तारकः पुत्रः सुरप्रमथनो बली ॥ १३

निर्मितः को वधे चाभूत् तस्य दैत्येश्वरस्य तु। 
गुहजन्म तु कात्र्यैन अस्माकं ब्रूहि मानद ॥ १४

ऋषियोंने पूछा-सबको मान देनेवाले सूतजी ! यह कथा तो अत्यन्त आश्चर्यसे परिपूर्ण, रमणीय और पापनाशिनी है। हमलोग इसे सुनना चाहते हैं, अतः आप हमलोगोंको इसे यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक बतलाइये। पूर्वकालमें देवताओंका मान मर्दन करनेवाला महाबली तारक जिसका पुत्र था, वह दैत्यराज वज्राङ्ग किसके वंशमें उत्पन्न हुआ था? उस दैत्यराजके वधके लिये कौन-सा कारण निर्मित हुआ था? यह सब तथा गुहके जन्मकी कथा हमलोगोंको पूर्णरूपसे बतलाइये ॥ १२-१४॥

सूत उवाच

मानसो ब्रह्मणः पुत्रो दक्षो नाम प्रजापतिः । 
षष्टिंट सोऽजनयत् कन्या वीरिण्यामेव नः श्रुतम् ॥ १५ 

ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश। 
सप्तविंशति सोमाय चतस्त्रोऽरिष्टठनेमये ॥ १६

द्वे वै बाहुकपुत्राय द्वे वै चाङ्गिरसे तथा।
द्वे कृशाश्वाय विदुषे प्रजापतिसुतः प्रभुः ॥ १७

अदितिर्दितिर्दनुर्विश्वा हारिष्टा सुरसा तथा। 
सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा ॥ १८

कडूर्मुनिश्च लोकस्य मातरो गोषु मातरः। 
तासां सकाशाल्लोकानां जङ्गमस्थावरात्मनाम् ॥ १९

जन्म नानाप्रकाराणां ताभ्योऽन्ये देहिनः स्मृताः । 
देवेन्द्रोपेन्द्रपूषाद्याः सर्वे तेऽदितिजा मताः ॥ २०

दितेः सकाशाल्लोकास्तु हिरण्यकशिपादयः । 
दानवाश्च दनोः पुत्रा गावश्च सुरभीसुताः ॥ २१

पक्षिणो विनतापुत्रा गरुडप्रमुखाः स्मृताः । 
नागाः कडूसुता ज्ञेयाः शेषाश्चान्येऽपि जन्तवः ॥ २२

त्रैलोक्यनाथं शक्रं तु सर्वामरगणप्रभुम् । 
हिरण्यकशिपुश्चक्रे जित्वा राज्यं महाबलः ॥ २३

ततः केनापि कालेन हिरण्यकशिपादयः । 
निहता विष्णुना संख्ये शेषाश्चेन्द्रेण दानवाः ।। २४ 

ततो निहतपुत्राभूत् दितिर्वरमयाचत । 
भर्तारं कश्यपं देवं पुत्रमन्यं महाबलम् ॥ २५ 

समरे शक्रहन्तारं स तस्या अददात् प्रभुः ॥ २६

नियमे वर्त हे देवि सहस्रं शुचिमानसा। 
वर्षाणां लप्स्यसे पुत्रमित्युक्ता सा तथाकरोत् ॥ २७

वर्तन्त्या नियमे तस्याः सहस्त्राक्षः समाहितः । 
उपासामाचरत् तस्याः सा चैनमन्वमन्यत ॥ २८

दशवत्सरशेषस्य सहस्त्रस्य तदा दितिः । 
उवाच शक्रं सुप्रीता वरदा तपसि स्थिता ॥ २९ 

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! ब्रह्माके मानस पुत्र प्रजापति दक्षने वीरिणीके गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न को थीं, ऐसा हमने सुना है। उन ब्रह्मपुत्र सामर्थ्यशाली दक्षने उन कन्याओंमेंसे दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको, चार अरिष्टनेमिको, दो बाहुक पुत्रको, दो अङ्गिराको तथा दो विद्वान् कृशाश्वको समर्पित कर दी थीं। अदिति, दिति, दनु, विश्वा, अरिष्टा, सुरसा, सुरभि विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कडू और मुनि-ये तेरह लोकमाताएँ कश्यपकी पत्नियाँ थीं। इन्होंसे पशुओंकी भी उत्पत्ति हुई है। इन्होंसे स्थावर जङ्गमरूप नाना प्रकार के प्राणियोंका जन्म हुआ है। देवेन्द्र, उपेन्द्र और सूर्य आदि सभी देवता अदितिसे उत्पन्न माने जाते हैं। दितिके गर्भ से हिरण्यकशिपु आदि दैत्यगण उत्पन्न हुए। दनुके दानव और गौ आदि पशु सुरभीके संतान हुए। गरुड आदि पक्षी विनताके पुत्र कहे जाते हैं। नागों तथा अन्य रेंगनेवाले जन्तुओंको कडूकी संतति समझना चाहिये। 

कुछ समय बाद हिरण्यकशिपु समस्त देवगणोंके स्वामी त्रिलोकीनाथ इन्द्रको जीतकर राज्य करने लगा। तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर हिरण्यकशिपु आदि दैत्यगण भगवान् विष्णुके हाथों मारे गये तथा शेष दानवोंका इन्द्रने युद्धस्थलमें सफाया कर दिया। इस प्रकार जब दितिके सभी पुत्र मार डाले गये, तब उसने अपने पतिदेव महर्षि कश्यपसे युद्धमें इन्द्रका वध करनेवाले अन्य महाबली पुश्की याचना की। तब सामर्थ्यशाली कश्यपजीने उसे वर प्रदान करते हुए कहा- 'देवि! तुम एक हजार वर्षतक पवित्र मनसे नियमका पालन करो तो तुम्हें वैसा पुत्र प्राप्त होगा।' पतिद्वारा ऐसा कही जानेपर वह नियममें तत्पर हो गयी। जिस समय वह नियममें संलग्र थी, उस समय सहस्रनेत्रधारी इन्द्र उसके निकट आकर सावधानीपूर्वक उसकी सेवा करने लगे। यह देखकर उसने इन्द्रपर विश्वास कर लिया। जब एक सहस्र वर्षकी अवधिमें दस वर्ष शेष रह गये, तब तपस्यामें निरत वरदायिनी दिति परम प्रसन्न होकर इन्द्रसे बोली ॥१५-२९॥

दितिरुवाच

पुत्रोत्तीर्णव्रतां प्रायो विद्धि मां पाकशासन। 
भविष्यति च ते भ्राता तेन सार्थमिमां श्रियम् ॥ ३०

भुव वत्स यथाकामं त्रैलोक्यं हतकण्टकम्। 
इत्युक्त्वा निद्रयाऽऽविष्टा चरणाक्रान्तमूर्धजा ॥ ३१

स्वयं सुष्वाप नियता भाविनोऽर्थस्य गौरवात्। 
तत्तु रन्धं समासाद्य जठरं पाकशासनः ॥ ३२

चकार सप्तधा गर्भ कुलिशेन तु देवराट्। 
एकैकं तु पुनः खण्डं चकार मघवा ततः ॥ ३३

सप्तधा सप्तधा कोपात्प्राबुध्यत ततो दितिः । 
विबुध्योवाच मा शक्र घातयेथाः प्रजां मम ॥ ३४

तच्छ्रुत्वा निर्गतः शक्रः स्थित्वा प्राञ्जलिरग्रतः ।
उवाच वाक्यं संत्रस्तो मातुर्वै वदनेरितम् ॥ ३५ 

दितिने कहा-पुत्र ! अब तुम ऐसा समझो कि मैंने प्रायः अपने व्रतको पूर्ण कर लिया है। पाकशासन! (व्रतको समाप्ति पर) तुम्हारे एक भाई उत्पन्न होगा। वत्स। उसके साथ तुम इस राजलक्ष्मी तथा निष्कण्टक त्रिलोकीके राज्यका इच्छानुसार उपभोग करना। ऐसा कहकर स्वयं दिति निद्राके वशीभूत हो सो गयी। उस समय भावी कार्यके गौरवके कारण वह अपने नियमसे च्युत हो गयी थी; क्योंकि (सोते समय) उसके खुले हुए बाल चरणोंसे दबे हुए थे। ऐसी त्रुटिपर अवसर पाकर देवराज इन्द्र दितिके उदरमें प्रविष्ट हो गये और अपने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर दिये। तत्पश्चात् इन्द्रने क्क्रुद्ध होकर पुनः प्रत्येक टुकड़ेको काटकर सात-सात भागोंमें विभक्त कर दिया। इतनेमें ही दितिकी निद्रा भंग हो गयी। तब वह सचेत होकर बोली- 'अरे इन्द्र ! मेरी संततिका विनाश मत कर।' यह सुनकर इन्द्र दितिके उदरसे बाहर निकल आये और अपनी उस विमाताके आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर डरते-डरते मन्द स्वरमें यह वचन बोले- ॥ ३०-३५॥

शक्र उवाच

दिवास्वप्नपरा मातः पादाक्रान्तशिरोरुहा।
सप्तसप्तभिरेवातस्तव गर्भः कृतो मया ॥ ३६

एकोनपञ्चाशत्कृता भागा वज्रेण ते सुताः। 
दास्यामि तेषां स्थानानि दिवि दैवतपूजिते ॥ ३७

इत्युक्ता सा तदा देवी सैवमस्त्वित्यभाषत। 
पुनश्च देवी भत्र्त्तारमुवाचासितलोचना ।। ३८

पुत्रं प्रजापते देहि शक्रजेतारमूर्जितम्। 
यो नास्त्रशस्त्रैर्वध्यत्वं गच्छेत् त्रिदिववासिनाम् ॥ ३९

इत्युक्तः स तथोवाच तां पत्नीमतिदुःखिताम्।
दशवर्षसहस्त्राणि तपः कृत्वा तु लप्स्यसे ॥ ४०

वज्रसारमयैरङ्गैरच्छेद्दौरायसैर्दृहैः।
वज्राङ्गो नाम पुत्रस्ते भविता पुत्रवत्सले ॥ ४१

सा तु लब्धवरा देवी जगाम तपसे वनम् । 
दशवर्षसहस्त्राणि सा तपो घोरमाचरत् ॥ ४२

तपसोऽन्ते भगवती जनयामास दुर्जयम्। 
पुत्रमप्रतिकर्माणमजेयं वज्रदुश्छिदम् ॥ ४३

स जातमात्र एवाभूत् सर्वशस्त्रास्त्रपारगः । 
उवाच मातरं भक्त्या मातः किं करवाण्यहम् ॥ ४४

तमुवाच ततो हृष्टा दितिर्दैत्याधिपं च सा।
बहवो मे हताः पुत्राः सहस्राक्षेण पुत्रक ।। ४५

तेषां त्वं प्रतिकर्तुं वै गच्छ शक्रवधाय च। 
बाढमित्येव तामुक्त्वा जगाम त्रिदिवं बली ।। ४६

बद्ध्वा ततः सहस्त्राक्षं पाशेनामोघवर्चसा। 
मातुरन्तिकमागच्छद्व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा ॥ ४७

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा कश्यपश्च महातपाः। 
आगती तत्र यत्रास्तां मातापुत्रावभीतकौ ॥ ४८

इन्द्रने कहा-माँ! आप दिनमें सो रही थीं और आपके बाल पैरोंके नीचे दबे हुए थे, इस नियम-च्युतिके कारण मैंने आपके गर्भको सात भागोंमें, पुनः प्रत्येकको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है। इस प्रकार मैंने आपके पुत्रोंको उनचास भागोंमें बाँट दिया है। अब मैं उन्हें देवताओंद्वारा पूजित स्वर्गलोकमें स्थान प्रदान करूँगा। तब ऐसा उत्तर पानेपर देवी दितिने कहा-'अच्छा, ऐसा हो हो।' तदनन्तर कजरारे नेत्रोंवाली दिति देवीने पुनः अपने पति महर्षि कश्यपसे याचना की 'प्रजापते! मुझे एक ऐसा ऊर्जस्वी पुत्र प्रदान कीजिये, जो इन्द्रको पराजित करनेमें समर्थ हो तथा स्वर्गवासी देवगण अपने शस्त्रास्त्रोंसे जिसका वध न कर सकें।' इस प्रकार कहे जानेपर महर्षि कश्यप अपनी उस अत्यन्त दुखिया पत्नीसे बोले- 'पुत्रवत्सले! दस हजार वर्षतक तपस्या करनेके उपरान्त तुम्हें पुत्रको प्राप्ति होगी। तुम्हारे गर्भसे वज्राङ्ग नामका पुत्र उत्पन्न होगा। 

उसके अङ्ग वज्रके सार-तत्त्वके समान सुदृढ़ और लौहनिर्मित शस्त्रास्त्रोंद्वारा अच्छेद्य होंगे।' इस प्रकार वरदान पाकर दिति देवी तपस्या करनेके लिये बनमें चली गयीं। वहाँ उन्होंने दस हजार वर्षीतक घोर तप किया। तपस्या समाप्त होनेपर ऐश्वर्यवती दितिने एक ऐसे पुत्रको उत्पन्न किया, जो दुर्जय, अद्भुतकर्मा और अजेय था तथा जिसके अङ्ग वज्रद्वारा अच्छेद्य थे। वह जन्म लेते ही समस्त शस्त्रास्त्रोंका पारगामी विद्वान् हो गया। उसने भक्तिपूर्वक अपनी माता दितिसे कहा-'माँ। मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?' तब हर्षित हुई दितिने उस दैत्यराजसे कहा- 'बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत-से पुत्रोंको मार डाला है, अतः उनका बदला लेनेके लिये तुम जाओ और इन्द्रका वध करो।' तब 'बहुत अच्छा' ऐसा मातासे कहकर महाबली वज्राङ्ग स्वर्ग लोक में जा पहुँचा। वहाँ उसने अपने अमोघवर्चस्वी पाशसे सहस्रनेत्रधारी इन्द्रको बाँधकर माताके निकट लाकर उसी प्रकार खड़ा कर दिया, जैसे व्याघ्र छोटे-से मृगको पकड़ लेता है। इसी बीच ब्रह्मा और महातपस्वी महर्षि कश्यप-ये दोनों वहाँ आ पहुँचे, जहाँ वे दोनों माता-पुत्र निर्भय हुए स्थित थे ॥ ३६-४८॥ 

दृष्ट्वा तु तमुवाचेदं ब्रह्मा कश्यप एव च। 
मुञ्चैनं पुत्र देवेन्द्रं किमनेन प्रयोजनम् ॥ ४९

अपमानो वधः प्रोक्तः पुत्र सम्भावितस्य च।
अस्मद्वाक्येन यो मुक्तो विद्धि तं मृतमेव च ॥ ५०

परस्य गौरवान्मुक्तः शत्रूणां भारमावहेत् ।
जीवन्नेव मृतो वत्स दिवसे दिवसे स तु ॥५१

महतां वशमायाते वैरं नैवास्ति वैरिणि।
एतच्छ्रुत्वा तु वज्राङ्गः प्रणतो वाक्यमन्नवीत् ॥ ५२

न मे कृत्यमनेनास्ति मातुराज्ञा कृता मया।
त्वं सुरासुरनाथो वै मम च प्रपितामहः ॥ ५३

करिष्ये त्वद्वचो देव एष मुक्तः शतक्रतुः ।
तपसे मे रतिर्देव निर्विघ्नं चैव मे भवेत् ॥ ५४

त्वत्प्रसादेन भगवन्नित्युक्त्वा विरराम सः।
तस्मिस्तूष्णीं स्थिते दैत्ये प्रोवाचेदं पितामहः ।। ५५ 

वहाँ (इन्द्रको बंधा हुआ) देखकर ब्रह्मा और कश्यपने उस वज्राङ्गसे इस प्रकार कहा- 'पुत्र! इन देवराजको छोड़ दे। इनको बाँधने अथवा मारनेसे तेरा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? बेटा। सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसकी मृत्युसे बढ़कर बतलाया गया है। हमलोगोंके कहनेसे जो बन्धनमुक्त हो रहा है, उसे तू मरा हुआ ही जान। वत्स। दूसरेके गौरवसे मुक्त हुआ मनुष्य शत्रुओंका भारवाही अर्थात् आभारी हो जाता है। उसे दिन-प्रतिदिन जीते हुए मृतक तुल्य ही समझना चाहिये। शत्रुके वशमें आ जानेपर महान् पुरुषोंका शत्रुके प्रति वैरभाव नहीं रह जाता।' यह सुनकर वज्राङ्ग विनम्र होकर कहने लगा-'देव। इन्द्रको बाँधनेसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यह तो मैंने माताकी आज्ञाका पालन किया है। आप तो देवताओं और असुरोंके स्वामी तथा मेरे प्रपितामह हैं, अतः मैं अवश्य आपको आज्ञाका पालन करूँगा। यह लीजिये, इन्द्र बन्धन मुक्त हो गये। देव! मेरे मनमें तपस्या करनेके लिये बड़ी लालसा है। भगवन् ! वह आपकी कृपासे निर्विघ्न पूरा हो जाय।' ऐसा कहकर वह चुप हो गया। तब उस दैत्यको चुपचाप सामने स्थित देखकर ब्रह्मा इस प्रकार बोले- ॥ ४९-५५ ॥

ब्रह्मोवाच

तपस्त्वं क्रूरमापन्नो ह्यस्मच्छासनसंस्थितः । 
अनया चित्तशुद्धया ते पर्याप्तं जन्मनः फलम् ॥ ५६

इत्युक्त्वा पद्मजः कन्यां ससर्जायतलोचनाम्। 
तामस्मै प्रददौ देवः पत्ल्त्यर्थं पद्मसम्भवः ।। ५७

वराङ्गीति च नामास्याः कृत्वा यातः पितामहः । 
वज्राङ्गोऽपि तया सार्धं जगाम तपसे वनम् ॥ ५८

ऊर्ध्वबाहुः स दैत्येन्द्रोऽचरदब्दसहस्त्रकम् । 
कालं कमलपत्राक्षः शुद्धबुद्धिर्महातपाः ।। ५९

तावच्चावाङ्‌मुखः कालं तावत्पञ्चाग्निमध्यगः । 
निराहारो घोरतपास्तपोराशिरजायत । ६० 

ततः सोऽन्तर्जले चक्रे कालं वर्षसहस्त्रकम् । 
जलान्तरं प्रविष्टस्य तस्य पत्नी महाव्रता ॥ ६१ 

तस्यैव तीरे सरसस्तप्स्यन्ती मौनमास्थिता ।
निराहारा तपो घोरं प्रविवेश महाद्युतिः ॥ ६२ 

ब्रह्माने कहा- बेटा ! (तूने) जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, यही मानो तूने घोर तप कर लिया। इस चित्तशुद्धिसे तुझे अपने जन्मका फल प्राप्त हो गया। ऐसा कहकर पद्मयोनि भगवान् ब्रह्माने एक विशाल नेत्रोंवालौ कन्याकी सृष्टि की और उसे वज्राङ्गको पत्नीरूपमें प्रदान कर दिया। पुनः उस कन्याका वराङ्गी नाम रखकर ब्रह्मा वहाँसे चले गये। तत्पश्चात् वज्राङ्ग भी अपनी पत्नी वराङ्गीके साथ तपस्या करनेके लिये बनमें चला गया। वहाँ महातपस्वी दैत्यराज वज्राङ्ग, जिसके नेत्र कमलदलके समान थे तथा जिसकी बुद्धि शुद्ध हो गयी थी, एक हजार वर्षतक दोनों हाथ ऊपर उठाकर तपस्या करता रहा। पुनः उसने एक हजार वर्षतक नीचे मुख किये हुए तथा एक हजार वर्षतक पञ्चाग्निके बीचमें बैठकर घोर तपस्या की। उस समय उसने भोजनका परित्याग कर दिया था। इस प्रकार वह तपस्याकी राशि जैसा हो गया था। तत्पश्चात् उसने एक हजार वर्षतक जलके भीतर बैठकर तप किया। जिस समय वह जलके भीतर प्रविष्ट होकर तप कर रहा था, उसी समय उसकी अत्यन्त सुन्दरी एवं महाव्रतपरायणा पत्नी वराङ्गी भी उसी सरोवरके तटपर मौन धारणकर तपस्या करती हुई घोर तपमें संलग्र हो गयी। उस समय वह निराहार ही रहती थी। उसके तपस्या करते समय (उसे तपसे डिगानेके निमित्त) इन्द्र तरह-तरहकी विभीषिकाएँ उत्पन्न करने लगे ॥ ५६-६२ ॥

तस्यां तपसि वर्तन्त्यामिन्द्रश्चक्रे विभीषिकाम् ।
भूत्वा तु मर्कटस्तत्र तदाश्रमपदं महान् ॥ ६३

चक्रे विलोलं निःशेषं तुम्बीघटकरण्डकम् ।
ततस्तु मेषरूपेण कम्पं तस्याकरोन्महान् ॥ ६४

ततो भुजङ्गरूपेण बध्वा च चरणद्वयम् ।
अपाकर्षत् ततो दूरं भ्रमंस्तस्या महीमिमाम् ॥ ६५

तपोबलाढ्या सा तस्य न वध्यत्वं जगाम ह।
ततो गोमायुरूपेण तस्यादूषयदाश्रमम् ॥ ६६

ततस्तु मेघरूपेण तस्याः क्लेदयदाश्रमम् । 
भीषिकाभिरनेकाभिस्तां क्लिश्यन् पाकशासनः ॥ ६७

विरराम यदा नैवं वज्राङ्गमहिषी तदा।
शैलस्य दुष्टतां मत्वा शापं दातुं व्यवस्थिता ।। ६८

स शापाभिमुखां दृष्ट्वा शैलः पुरुषविग्रहः।
उवाच तां वरारोहां वराङ्गीं भीरुचेतनः ॥ ६९

नाहं वराङ्गने दुष्टः सेव्योऽहं सर्वदेहिनाम् ।
विभ्रमं तु करोत्येष रुषितः पाकशासनः ॥ ७०

एतस्मिन्नन्तरे जातः कालो वर्षसहस्त्रिकः । 
तस्मिन् गते तु भगवान् काले कमलसम्भवः । 
तुष्टः प्रोवाच वज्राङ्गं तमागम्य जलाश्रयम् ॥ ७१

वे बन्दरका विशाल रूप धारणकर उसके आश्रमपर पहुँचे और वहाँके सम्पूर्ण तुंबी, घट और पिटारी आदिको तितर-बितर कर दिया। फिर मेषरूपसे उसे भलीभाँति कैपाया। तत्पश्चात् सर्पका रूप बनाकर उसके दोनों चरणोंको अपने शरीरसे बाँधकर इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसे दूरतक घसीटते रहे, किंतु वराङ्गी तपोबलसे सम्पन्न थीं, अतः इन्द्रद्वारा मारी न जा सकी। तब इन्द्रने शृगालका रूप धारणकर उसके आश्रमको दूषित कर दिया। फिर उन्होंने बादल बनकर उसके आश्रमको भिगो दिया। इस प्रकार इन्द्र अनेकों प्रकारको विभीषिकाओंको दिखाकर उसे कष्ट पहुँचाते रहे। जब इन्द्र इस प्रकारके कुकर्मसे विरत नहीं हुए, तब वज्राङ्गकी पटरानी वराङ्गी इसे पर्वतकी दुष्टता मानकर उसे शाप देनेके लिये उद्यत हो गयी। इस प्रकार उसे शाप देनेके लिये उद्यत देखकर पर्वतका हृदय भयभीत हो गया। तब उसने पुरुषका शरीर धारणकर उस सुन्दरी वराङ्गीसे कहा- 'वराङ्गने। मैं दुष्ट नहीं हूँ। मैं तो सभी देहधारियोंके लिये सेवनीय हूँ। यह सब उपद्रव तो ये क्क्रुद्ध हुए इन्द्र कर रहे हैं।' इसी बीच (जलके भीतर बैठकर तपस्या करते हुए वज्राङ्गका) एक हजार वर्ष पूरा हो गया। उस समयके पूर्ण हो जानेपर पद्मसम्भव भगवान् ब्रह्मा प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और वज्राङ्गसे बोले ॥ ६३-७१ ॥

ब्रह्मोवाच

ददामि सर्वकामांस्ते उत्तिष्ठ दितिनन्दन । 
एवमुक्तस्तदोत्थाय दैत्येन्द्रस्तपसां निधिः। 
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं सर्वलोकपितामहम् ॥ ७२ 

ब्रह्माने कहा-दितिनन्दन। उठो। मैं तुम्हें तुम्हारी सारी मनोवाञ्छित वस्तुएँ दे रहा हूँ। ऐसा कहे जानेपर तपोनिधि दैत्यराज वज्राङ्ग उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्मासे इस प्रकार कहा ॥ ७२ ॥

बजाङ्ग उवाच

आसुरो मास्तु मे भावः सन्तु लोका ममाश्रयाः ।
तपस्येव रतिर्मेऽस्तु शरीरस्यास्तु वर्तनम् ।। ७३

एवमस्त्विति तं देवो जगाम स्वकमालयम् ।
वज्राङ्गोऽपि समाप्ते तु तपसि स्थिरसंयमः ॥ ७४ 

आहारमिच्छन्भार्या स्वां न ददर्शाश्रमे स्वके।
क्षुधाविष्टः स शैलस्य गहनं प्रविवेश ह।। ७५ 

आदातुं फलमूलानि स च तस्मिन् व्यलोकयत्। 
रुदतीं तां प्रियां दीनां तनुप्रच्छादिताननाम्। 
तां विलोक्य स दैत्येन्द्रः प्रोवाच परिसान्त्वयन् ।। ७६

वज्राङ्गने कहा- देव! मेरे शरीरमें आसुर भावका संचार मत हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो। तपस्यामें ही मेरी रति हो और मेरा यह शरीर वर्तमान रहे। 'एवमस्तु ऐसा ही हो' ऐसा कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने निवासस्थानको चले गये। वज्राङ्ग भी तपस्याके समाप्त हो जानेपर संयम-नियमसे निवृत्त हुआ। उस समय उसे भोजनकी इच्छा जाग्रत् हुई, परंतु उसे अपने आश्रममें अपनी पत्नी न दीख पड़ी। तब भूखसे पीड़ित हुआ वज्राङ्ग फल-मूल लानेके लिये उस पर्वतके वनमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने अपनी प्रिय पत्नीको देखा, जो थोड़ा मुख ढके हुए दीनभावसे रुदन कर रही थी। उसे देखकर दैत्यराज वज्राङ्ग उसे सान्त्वना देते हुए बोला ॥ ७३-७६ ॥

बजाङ्ग उवाच

केन तेऽपकृतं भीरु यमलोकं यियासुना। 
कं वा कामं प्रयच्छामि शीघ्रं मे ब्रूहि भामिनि ॥ ७७

वज्राङ्गने कहा-भीरु ! यमलोकको जानेके लिये उद्यत किस व्यक्तिने तुम्हारा अपकार किया है? अथवा मैं तुम्हारी कौन-सी कामना पूर्ण करूँ? भामिनि ! तुम मुझे शीघ्र बतलाओ ॥ ७७ ॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे षट्‌चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४६ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें एक सौ छियालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ १४६ ॥

टिप्पणियाँ