युगानुसार प्राणियोंकी शरीर-स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौत स्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण | yuganusar praniyom ki sharir-sthiti evam varna-vyavastha ka varnan, shraut smart, dharm, tap, yagnya, kshama, sham, daya adi gunonka lakshan

मत्स्य पुराण एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय

युगानुसार प्राणियोंकी शरीर-स्थिति एवं वर्ण-व्यवस्थाका वर्णन, श्रौत स्मार्त, धर्म, तप, यज्ञ, क्षमा, शम, दया आदि गुणोंका लक्षण, चातुर्होत्रकी विधि तथा पाँच प्रकारके ऋषियोंका वर्णन

सूत उवाच

मन्वन्तराणि यानि स्युः कल्पे कल्पे चतुर्दश। 
व्यतीतानागतानि स्युर्यानि मन्वन्तरेष्विह । १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! प्रत्येक कल्पमें जो चौदह मन्वन्तर होते हैं, उनमें जो बीत चुके हैं तथा जो आनेवाले हैं, उन मन्वन्तरोंके प्रत्येक युगमें प्रजाओंकी जैसी उत्पत्ति और स्थिति होती है । १

विस्तरेणानुपूर्व्याच्च स्थितिं वक्ष्ये युगे युगे।
तस्मिन् युगे च सम्भूतिर्यासां यावच्च जीवितम् । २

युगमात्रं तु जीवन्ति न्यूनं तत् स्याद् द्वयेन च। 
चतुर्दशसु तावन्तो ज्ञेया मन्वन्तरेष्विह । ३

मनुष्याणां पशूनां च पक्षिणां स्थावरैः सह। 
तेषामायुरुपक्रान्तं युगधर्मेषु सर्वशः ॥ ४

तथैवायुः परिक्रान्तं युगधर्मेषु सर्वशः ।
अस्थितिं च कलौ दृष्ट्वा भूतानामायुषश्च वै। ५

परमायुः शतं त्वेतन्मानुषाणां कलौ स्मृतम्।
देवासुरमनुष्याश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ॥ ६

परिणाहोच्छ्रये तुल्या जायन्तेह कृते युगे। 
षण्णवत्यङ्गुलोत्सेधो ह्याष्टानां देवयोनिनाम् ॥ ७

नवाङ्गुलप्रमाणेन निष्पन्नेन तथाष्टकम्। 
एतत्स्वाभाविकं तेषां प्रमाणमधिकुर्वताम् ॥ ८

मनुष्या वर्तमानास्तु युगसंध्यांशकेष्विह । 
देवासुरप्रमाणं तु सप्तसप्ताङ्गलं क्रमात् ॥ ९

तथा जितना उनका आयु-प्रमाण होता है, इन सबका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वीक्रमसे वर्णन कर रहा हूँ। उनमें कुछ प्राणी तो युगपर्यन्त जीवित रहते हैं और कुछ उनसे कम समयतक ही जीते हैं। दोनों प्रकारकी बातें देखी जाती हैं। ऐसी ही विधि चौदहों मन्वन्तरोंमें जाननी चाहिये। सर्वत्र युगधर्मानुसार मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों और स्थावरोंकी आयु घटती जाती है। कलियुगमें युगधर्मानुसार सर्वत्र प्राणियोंकी आयुकी अस्थिरता देखकर मनुष्योंकी परमायु सौ वर्षकी बतलायी गयी है। कृतयुगमें देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस-ये सभी एक ही विस्तार और ऊँचाईके शरीरवाले उत्पन होते हैं। उनमें आठ प्रकारकी देवयोनियोंमें उत्पन्न होने वाले देवोंके शरीर छानबे अंगुल ऊँचे और नौ अंगुल विस्तृत निष्पन होते हैं, यह उनकी आयुका स्वाभाविक प्रमाण है। अन्य देवताओं तथा असुरोंके शरीरका विस्तार क्रमशः सात-सात अंगुलका होता है। कलियुगके संध्यांशमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके शरीर कलियुगोत्पन्न मानवोंके अंगुलप्रमाणसे चौरासी अंगुलके होते हैं॥ २-९॥

चतुराशीतिकैश्चैव कलिजैरङ्गुलैः स्मृतम्।
आपादतो मस्तकं तु नवतालो भवेत्तु यः ॥ १०

संहत्याजानुबाहुश्च दैवतैरभिपूज्यते ।
गवां च हस्तिनां चैव महिषस्थावरात्मनाम् ॥ ११

क्रमेणैतेन विज्ञेये ह्रासवृद्धी युगे युगे।
षट्सप्तत्यङ्गुलोत्सेधः पशुराककुदो भवेत् ॥ १२

अङ्गुलानामष्टशतमुत्सेधो हस्तिनां स्मृतः ।
अङ्गुलानां सहस्त्रं तु द्विचत्वारिंशदङ्गुलम् ॥ १३

शतार्धमङ्गुलानां तु द्युत्सेधः शाखिनां परः ।
मानुषस्य शरीरस्य संनिवेशस्तु यादृशः ॥ १४

तल्लक्षणं तु देवानां दृश्यतेऽन्वयदर्शनात् ।
बुद्धयातिशयसंयुक्तो देवानां काय उच्यते ॥ १५

तथा नातिशयश्चैव मानुषः काय उच्यते।
इत्येव हि परिक्रान्ता भावा ये दिव्यमानुषाः ॥ १६

पशूनां पक्षिणां चैव स्थावराणां च सर्वशः ।
गावोऽजाश्वाश्च विज्ञेया हस्तिनः पक्षिणो मृगाः ॥ १७

उपयुक्ताः क्रियास्वेते यज्ञियास्त्विह सर्वशः । 
यथाक्रमोपभोगाश्च देवानां पशुमूर्तयः ॥ १८

तेषां रूपानुरूपैश्च प्रमाणैः स्थिरजङ्गमाः ।
मनोज्ञैस्तत्र तैर्भोगैः सुखिनो ह्युपपेदिरे ॥ १९ 

जिसका शरीर पैरसे लेकर मस्तकपर्यन्त नौ बित्ता-(एक सौ आठ अंगुल) का होता है तथा भुजाएँ जानुतक लम्बी होती हैं, उसका देवतालोग भी आदर करते हैं। प्रत्येक युगमें गौओं, हाथियों, भैंसों और स्थावर प्राणियोंके शरीरोंका ह्रास एवं वृद्धि इसी क्रमसे जाननी चाहिये। पशु अपने कुकुद् (मौर) तक छिहत्तर अंगुल ऊँचा होता है। हाथियोंके शरीरकी ऊँचाई एक सौ आठ अंगुलकी बतलायी जाती है। वृक्षोंकी अधिक-से-अधिक ऊँचाई एक हजार बानबे अंगुलकी होती है। मनुष्यके शरीरका जैसा आकार-प्रकार होता है, वही लक्षण वंशपरम्परावश देवताओंमें भी देखा जाता है। देवताओंका शरीर केवल बुद्धिको अतिशयतासे युक्त बतलाया जाता है। मानव शरीरमें बुद्धिकी उतनी अधिकता नहीं रहती। इस प्रकार देवताओं और मानवोंके शरीरोंमें उत्पन्न हुए जो भाव हैं, वे पशुओं, पक्षियों और स्थावर प्राणियोंके शरीरोंमें भी पाये जाते हैं। गौ, बकरा, घोड़ा, हाथी, पक्षी और मृग-इनका सर्वत्र यज्ञीय कर्मोंमें उपयोग होता है तथा ये पशुमूर्तियाँ क्रमशः देवताओंके उपभोगमें प्रयुक्त होती हैं। उन उपभोक्ता देवताओंके रूप और प्रमाणके अनुरूप ही उन चर-अचर प्राणियोंकी मूर्तियाँ होती हैं। वे उन मनोज्ञ भोगोंका उपभोग करके सुखका अनुभव करते हैं॥ १०-१९॥

अथ सन्तः प्रवक्ष्यामि साधूनथ ततश्च वै।
ब्राह्मणाः श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तयः ।
सम्पूज्या ब्रह्मणा होतास्तेन सन्तः प्रचक्षते ॥ २०

सामान्येषु च धर्मेषु तथा वैशेषिकेषु च। 
ब्रह्मक्षत्रविशो युक्ताः श्रौतस्मार्तेन कर्मणा ॥ २१

वर्णाश्रमेषु युक्तस्य सुखोदर्कस्य स्वर्गतौ।
श्रौतस्मार्तों हि यो धर्मो ज्ञानधर्मः स उच्यते ॥ २२

दिव्यानां साधनात् साधुर्ब्रह्मचारी गुरोर्हितः ।
कारणात् साधनाच्चैव गृहस्थः साधुरुच्यते ॥ २३

तपसश्च तथारण्ये साधुर्वैखानसः स्मृतः । 
यतमानो यतिः साधुः स्मृतो योगस्य साधनात् ॥ २४ 

धर्मो धर्मगतिः प्रोक्तः शब्दो होष क्रियात्मकः ।
कुशलाकुशलौ चैव धर्माधर्मों ब्रवीत् प्रभुः ॥ २५ 

अथ देवाश्च पितरः ऋषयश्चैव मानुषाः। 
अयं धर्मों हृायं नेति बुवते मौनमूर्तिना ॥ २६

धर्मेति धारणे धातुर्महत्त्वे चैव उच्यते।
अधारणेऽमहत्त्वे वाधर्मः स तु निरुच्यते ॥ २७

तत्रेष्टप्रापको धर्म आचार्यैरुपदिश्यते ।
अधर्मश्चानिष्टफलं आचार्यैर्नोपदिश्यते ॥ २८

वृद्धाश्चालोलुपाश्चैव आत्मवन्तो ह्यदाम्भिकाः । 
सम्यग्विनीता मृदवस्तानाचार्यान् प्रचक्षते ॥ २९

धर्मज्ञैर्विहितो धर्मः श्रौतस्मार्तो द्विजातिभिः । 
दाराग्निहोत्रसम्बन्धमिज्या श्रौतस्य लक्षणम् ॥ ३० 

अब मैं संतों तथा साधुओंका वर्णन कर रहा हूँ। ब्राह्मण ग्रन्थ और श्रुतियोंके शब्द- ये भी देवताओंकी निर्देशिका मूर्तियाँ हैं। अन्तःकरणमें इनके तथा ब्रह्मका संयोग बना रहता है, इसलिये ये संत कहलाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सामान्य एवं विशेष धर्मो में सर्वत्र श्रौत एवं स्मार्त विधिके अनुसार कर्मका आचरण करते हैं। वर्णाश्रम-धर्मोंके पालनमें तत्पर तथा स्वर्ग-प्राप्तिमें सुख माननेवाले लोगोंद्वारा आचरित जो श्रुति एवं स्मृतिसम्बन्धी धर्म है, उसे ज्ञानधर्म कहा जाता है। दिव्य सिद्धियोंकी साधनामें संलग्र तथा गुरुका हितैषी होनेके कारण ब्रह्मचारीको साधु कहते हैं। (अन्य आश्रमोंकी जीविकाका) निमित्त तथा स्वयं साधनामें निरत होनेके कारण गृहस्थ भी साधु कहलाता है। वनमें तपस्या करनेवाला साधु वैखानस नामसे अभिहित होता है। 

योगकी साधनामें प्रयत्नशील संन्यासीको भी साधु कहते हैं। 'धर्म' शब्द क्रियात्मक है और यह धर्माचरणमें ही प्रयुक्त होनेवाला कहा गया है। सामर्थ्यशाली भगवान्ने धर्मको कल्याणकारक और अधर्मको अनिष्टकारक बतलाया है तथा देवता, पितर, ऋषि और मानव 'यह धर्म है और यह धर्म नहीं है' ऐसा कहकर मौन धारण कर लेते हैं। 'धृ' धातु धारण करने तथा महत्त्वके अर्थमें प्रयुक्त होती है। अधारण एवं अधर्म शब्दका अर्थ इसके विपरीत है। आचार्यलोग इष्टकी प्राप्ति करानेवाले धर्मका ही उपदेश करते हैं। अधर्म अनिष्ट-फलदायक होता है, इसलिये आचार्यगण उसका उपदेश नहीं करते। जो वृद्ध, निर्लोभ, आत्मज्ञानी, निष्कपट, अत्यन्त विनम्र तथा मृदुल स्वभाववाले होते हैं, उन्हें आचार्य कहा जाता है। धर्मके ज्ञाता द्विजातियोंद्वारा श्रौत एवं स्मार्त-धर्मका विधान किया गया है। इनमें दारसम्बन्ध (विवाह), अग्रिहोत्र और यज्ञ में श्रौत-धर्मके लक्षण हैं तथा यम और नियमोंसे युक्त वर्णाश्रमका आचरण स्मार्त-धर्म कहलाता है ॥ २०-३०॥

स्मार्तों वर्णाश्रमाचारो यमैश्च नियमैर्युतः ।
पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह औतं सप्तर्षयोऽब्रुवन् ॥ ३१

ऋचो यजूंषि सामानि ब्रह्मणोऽङ्गानि वै श्रुतिः ।
मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृत्वा तन्मनुरब्रवीत् ॥ ३२

तस्मात्स्मार्तः स्मृतो धर्मो वर्णाश्रमविभागशः ।
एवं वै द्विविधो धर्मः शिष्टाचारः स उच्यते ॥ ३३

शिषेर्धातोश्च निष्ठान्ताच्छिष्टशब्दं प्रचक्षते ।
मन्वन्तरेषु ये शिष्टा इह तिष्ठन्ति धार्मिकाः ॥ ३४

मनुः सप्तर्षयश्चैव लोकसन्तानकारिणः । 
तिष्ठन्तीह च धर्मार्थ ताञ्छिष्टान् सम्प्रचक्षते ।। ३५

तैः शिष्टैश्चलितो धर्मः स्थाप्यते वै युगे युगे। 
त्रयी वार्ता दण्डनीतिः प्रजावर्णाश्रमेप्सया ॥ ३६

शिष्टैराचर्यते यस्मात्पुनश्चैव मनुक्षये। 
पूर्वैः पूर्वैर्मतत्वाच्च शिष्टाचारः स शाश्वतः ॥ ३७

दानं सत्यं तपोऽलोभो विद्येज्या पूजनं दमः । 
अष्टौ तानि चरित्राणि शिष्टाचारस्य लक्षणम् ॥ ३८

शिष्टा यस्माच्चरन्त्येनं मनुः सप्तर्षयश्च ह। 
मन्वन्तरेषु सर्वेषु शिष्टाचारस्ततः स्मृतः ॥ ३९

विज्ञेयः श्रवणाच्छ्रौतः स्मरणात् स्मार्त उच्यते । 
इज्यावेदात्मकः श्रौतः स्मार्तो वर्णाश्रमात्मकः ।। ४०

सप्तर्षियोंने पूर्ववर्ती ऋषियोंसे श्रीत-धर्मका ज्ञान प्राप्त करके पुनः उसका उपदेश किया था। ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद-ये ब्रह्माके अङ्ग हैं। व्यतीत हुए मन्वन्तरके धर्मोंका स्मरण करके मनुने उनका उपदेश किया है। इसलिये वर्णाश्रमके विभागानुसार प्रयुक्त हुआ धर्म स्मार्त कहलाता है। इस प्रकार श्रौत एवं स्मार्तरूप द्विविध धर्मको शिष्टाचार कहते हैं। 'शिष्' धातुसे निष्ठासंज्ञक 'क्त' प्रत्ययका संयोग होनेसे 'शिष्ट' शब्द निष्पन्न होता है। प्रत्येक मन्वन्तरमें इस भूतलपर जो धार्मिकलोग वर्तमान रहते हैं, उन्हें शिष्ट कहा जाता है। इस प्रकार लोककी वृद्धि करनेवाले सप्तर्षि और मनु इस भूतलपर धर्मका प्रचार करनेके लिये स्थित रहते हैं, 

अतः वे शिष्ट शब्दसे अभिहित होते हैं। वे शिष्टगण प्रत्येक युगमें मार्ग-भ्रष्ट हुए धर्मकी पुनः स्थापना करते हैं। इसीलिये शिष्टगण दूसरे मन्वन्तरमें प्रजाओंके वर्णाश्रम-धर्मकी सिद्धिके लिये पुनः वेदत्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद), वार्ता (कृषिव्यापार) और दण्डनीतिका आचरण करते हैं। इस प्रकार पूर्वक युगोंमें उपस्थित पूर्वजोंद्वारा अभिमत होनेके कारण यह शिष्टाचार सनातन होता है। दान, सत्य, तपस्या, निर्लोभता, विद्या, यज्ञानुष्ठान, पूजन और इन्द्रियनिग्रह-ये आठ आचरण शिष्टाचारके लक्षण हैं। चूँकि मनु और सप्तर्षि आदि शिष्टगण सभी मन्वन्तरोंमें इस लक्षणके अनुसार आचरण करते हैं, इसलिये इसे शिष्टाचार कहा जाता है। इस प्रकार पूर्वानुक्रमसे श्रवण किये जानेके कारण श्रुतिसम्बन्धी धर्मको श्रौत जानना चाहिये और स्मरण होनेके कारण स्मृति-प्रतिपादित धर्मको स्मार्त कहा जाता है। श्रौतधर्म यज्ञ और वेदस्वरूप है तथा स्मार्तधर्म वर्णाश्रमधर्म-नियामक है॥ ३१-४०॥

प्रत्यङ्गानि प्रवक्ष्यामि धर्मस्येह तु लक्षणम् ॥ ४१ 

दृष्टानुभूतमर्थं च यः पृष्टो न विगूहते। 
यथाभूतप्रवादस्तु इत्येतत् सत्यलक्षणम् ॥ ४२

ब्रह्मचर्यं तपो मौनं निराहारत्वमेव च। 
इत्येतत् तपसो रूपं सुघोरं तु दुरासदम् ॥ ४३

पशूनां द्रव्यहविषामृक्सामयजुषां तथा। 
ऋत्विजां दक्षिणायाश्च संयोगो यज्ञ उच्यते ॥ ४४

आत्मवत्सर्वभूतेषु यो हिताय शुभाय च। 
वर्तते सततं हृष्टः क्रिया श्रेष्ठा दया स्मृता ॥ ४५ 

आक्कुष्टोऽभिहतो यस्तु नाक्रोशेत्प्रहरेदपि। 
अदुष्टो वाड्मनः कायैस्तितिक्षा सा क्षमा स्मृता ।। ४६

स्वामिना रक्ष्यमाणानामुत्सृष्टानां च सम्भ्रमे। 
परस्वानामनादानमलोभ इति संज्ञितः ॥ ४७

मैथुनस्यासमाचारो जल्पनाच्चिन्तनात्तथा।
निवृत्तिर्ब्रह्मचर्यं च तदेतच्छमलक्षणम् ॥ ४८

अब मैं धर्मके प्रत्येक अङ्गका लक्षण बतला रहा हूँ। देखे तथा अनुभव किये हुए विषयके पूछे जानेपर उसे न छिपाना, अपितु घटित हुएके अनुसार यथार्थ कह देना-यह सत्यका लक्षण है।ब्रह्मचर्य, तपस्या, मौनावलम्बन और निराहार रहना-ये तपस्याके लक्षण हैं, जो अत्यन्त भीषण एवं दुष्कर हैं। जिसमें पशु, द्रव्य, हवि, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, ऋत्विज्ञ तथा दक्षिणाका संयोग होता है, उसे यज्ञ कहते हैं। जो अपनी ही भाँति समस्त प्राणियोंके प्रति उनके हित तथा मङ्गलके लिये निरन्तर हर्षपूर्वक व्यवहार करता है, उसकी वह श्रेष्ठ क्रिया दया कहलाती है। जो निन्दित होनेपर बदलेमें निन्दककी निन्दा नहीं करता तथा आघात किये जानेपर भी बदलेमें उसपर प्रहार नहीं करता, अपितु मन, वचन और शरीरसे प्रतीकारकी भावनासे रहित हो उसे सहन कर लेता है, उसकी उस क्रियाको क्षमा कहते हैं। स्वामीद्वारा रक्षाके लिये दिये गये तथा घबराहटमें छूटे हुए परकीय धनको न ग्रहण करना निर्लोभ नामसे कहा जाता है। मैथुनके विषयमें सुनने, कहने तथा चिन्तन करनेसे निवृत्त रहना ब्रह्मचर्य है और यही शमका लक्षण है॥ ४१-४८ ॥

आत्मार्थे वा परार्थे वा इन्द्रियाणीह यस्य वै।
विषये न प्रवर्तन्ते दमस्यैतत्तु लक्षणम् ॥ ४९

पञ्चात्मके यो विषये कारणे चाष्टलक्षणे।
न कुध्येत प्रतिहतः स जितात्मा भविष्यति ॥ ५०

यद्यदिष्टतमं द्रव्यं न्यायेनैवागतं च यत्।
तत्तद् गुणवते देयमित्येतद् दानलक्षणम् ॥ ५१

श्रुतिस्मृतिभ्यां विहितो धर्मो वर्णाश्रमात्मकः ।
शिष्टाचारप्रवृद्धश्च धर्मोऽयं साधुसम्मतः ॥ ५२

अप्रद्वेष्यो ह्यनिष्टेषु इष्ट वै नाभिनन्दति ।
प्रीतितापविषादानां विनिवृत्तिर्विरक्तता ॥ ५३

संन्यासः कर्मणां न्यासः कृतानामकृतैः सह। 
कुशलाकुशलाभ्यां तु प्रहाणं न्यास उच्यते ॥ ५४

अव्यक्तादिविशेषान्तद् विकारोऽस्मिन्निवर्तते। 
चेतनाचेतनं ज्ञात्वा ज्ञाने ज्ञानी स उच्यते ॥ ५५

प्रत्यङ्गानि तु धर्मस्य चेत्येतल्लक्षणं स्मृतम्। 
ऋषिभिर्धर्मतत्त्वज्ञैः पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥ ५६ 

जिसकी इन्द्रियाँ अपने अथवा परायेके हितके लिये विषयोंमें नहीं प्रवृत्त होतीं, यह दमका लक्षण है। जो पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषयों तथा आठ प्रकारके कारणोंमें बाधित होनेपर भी क्रोध नहीं करता, यह जितात्मा कहलाता है। जो-जो पदार्थ अपनेको अभीष्ट हों तथा न्यायद्वारा उपार्जित किये गये हों, उन्हें गुणी व्यक्तिको दे देना यह दानका लक्षण है। जो धर्म श्रुतियों एवं स्मृतियोंद्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रमके आचारसे युक्त तथा शिष्टाचारद्वारा परिवर्धित होता है, वही साधु-सम्मत धर्म कहलाता है। अनिष्टके प्राप्त होनेपर उससे द्वेष न करना, इष्टकी प्राप्तिपर उसका अभिनन्दन न करना तथा प्रेम, संताप और विषादसे विशेषतया निवृत्त हो जाना-यह विरक्ति (वैराग्य) का लक्षण है।
किये हुए कमौका न किये गये कर्मोंके साथ त्याग कर देना अर्थात् कृत-अकृत दोनों प्रकारके कर्मोंका त्याग संन्यास कहलाता है तथा कुशल (शुभ) और अकुशल (अशुभ) -दोनोंके परित्यागको न्यास कहते हैं। जिस ज्ञानके प्राप्त होनेपर अव्यक्तसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी प्रकारके विकार निवृत्त हो जाते हैं तथा चेतन और अचेतनका ज्ञान हो जाता है, उस ज्ञानसे युक्त प्राणीको ज्ञानी कहते हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें धर्मतत्त्वके ज्ञाता पूर्वकालीन ऋषियोंने धर्मके प्रत्येक अङ्गका यही लक्षण बतलाया है ॥ ४९-५६ ॥

अत्र वो वर्णयिष्यामि विधिं मन्वन्तरस्य तु।
तथैव चातुर्होत्रस्य चातुर्वर्ण्यस्य चैव हि ॥५७

प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते।
ऋचो यजूंषि सामानि यथावत्प्रतिदैवतम् ॥ ५८ 

विधिहोत्रं तथा स्तोत्रं पूर्ववत् सम्प्रवर्तते।
द्रव्यस्तोत्रं गुणस्तोत्रं कर्मस्तोत्रं तथैव च ॥५९

तथैवाभिजनस्तोत्रं स्तोत्रमेवं चतुर्विधम् ।
मन्वन्तरेषु सर्वेषु यथाभेदा भवन्ति हि ॥ ६० 

प्रवर्तयन्ति तेषां वै ब्रह्मस्तोत्रं पुनः पुनः।
एवं मन्त्रगुणानां तु समुत्पत्तिश्चतुर्विधम् ॥ ६१

अथर्वऋग्यजुःसाम्नां वेदेष्विह पृथक् पृथक्।
ऋषीणां तप्यतां तेषां तपः परमदुश्चरम् ॥ ६२ 

मन्त्राः प्रादुर्भवन्त्यादौ पूर्वमन्वन्तरस्य ह।
असंतोषाद् भयाद् दुःखान्मोहाच्छोकाच्च पञ्चथा ॥ ६३

ऋषीणां तारका येन लक्षणेन यदृच्छया।
ऋषीणां यादृशत्वं हि तद् वक्ष्यामीह लक्षणम् ॥ ६४

अतीतानागतानां च पञ्चधा ह्यार्षकं स्मृतम्।
तथा ऋषीणां वक्ष्यामि आर्षस्येह समुद्भवम् ॥ ६५

गुणसाम्येन वर्तन्ते सर्वसम्प्रलये तदा।
अविभागेन देवानामनिर्देश्यतमोमये ।। ६६

अबुद्धिपूर्वकं तद् वै चेतनार्थं प्रवर्तते।
तेनार्ष बुद्धिपूर्व तु चेतनेनाप्यधिष्ठितम् ॥ ६७

अब मैं आपलोगोंसे मन्वन्तरमें होनेवाले चारों वर्षोंके चातुहोंत्रकी विधिका वर्णन कर रहा हूँ। प्रत्येक मन्वन्तरमें विभिन्न प्रकारकी श्रुतिका विधान होता है, किंतु ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ये तीनों वेद देवताओंसे संयुक्त रहते हैं। अग्निहोत्रको विधि तथा स्तोत्र पूर्ववत् चलते रहते हैं। द्रव्यस्तोत्र, गुणस्तोत्र, कर्मस्तोत्र और अभिजनस्तोत्र- ये चार प्रकारके स्तोत्र होते हैं तथा सभी मन्वन्तरोंमें कुछ भेदसहित प्रकट होते हैं। उन्होंसे ब्रह्मस्तोत्रकी बारंबार प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार मन्त्रोंके गुणोंकी समुत्पत्ति चार प्रकारकी होती है, जो अथर्व, ऋक्, यजुः और साम-इन चारों वेदोंमें पृथक् पृथक् प्राप्त होती है। पूर्व मन्वन्तरके आदिमें परम दुष्कर तपस्यामें लगे हुए उन ऋषियोंके अन्तःकरणमें ये मन्त्र प्रादुर्भूत होते हैं। 

ये असंतोष, भय, कष्ट, मोह और शोकरूप पाँच प्रकारके कष्टोंसे ऋषियोंकी रक्षा करते हैं। अब ऋषियोंका जैसा लक्षण, जैसी इच्छा तथा जैसा व्यक्तित्व होता है, उसका लक्षण बतला रहा हूँ। भूतकालीन तथा भविष्यकालीन ऋषियोंमें आर्ष शब्दका प्रयोग पाँच प्रकारसे होता है। अब मैं आर्ष शब्दको उत्पत्ति बतला रहा हूँ। समस्त महाप्रलयोंके समय जब सारा जगत् घोर अन्धकारसे आच्छादित हो जाता है, उस समय देवताओंका कोई विभाग नहीं रह जाता। तीनों गुण अपनी साम्यावस्थामें स्थित हो जाते हैं, तब जो बिना ज्ञानका सहारा लिये चेतनताको प्रकट करनेके लिये प्रवृत्त होता है, उस चेतनाधिष्ठित ज्ञानयुक्त कर्मको आर्ष कहते हैं। वे मत्स्य और उदककी भाँति आधाराधेयरूपसे प्रवृत्त होते हैं। तब सारा त्रिगुणात्मक जगत् चेतनासे युक्त हो जाता है॥ ५७-६७ ॥

प्रवर्तते तथा ते तु यथा मत्स्योदकावुभौ। 
चेतनाधिकृतं सर्वं प्रावर्तत गुणात्मकम् ॥ 
कार्यकारणभावेन तथा तस्य प्रवर्तते ॥ ६८

विषयो विषयित्वं च तथा हार्थपदात्मकौ।
कालेन प्रापणीयेन भेदाश्च कारणात्मकाः ॥ ६९

सांसिद्धिकास्तदा वृत्ताः क्रमेण महदादयः ।
महतोऽसावहङ्कारस्तस्माद् भूतेन्द्रियाणि च ॥ ७०

भूतभेदाश्च भूतेभ्यो जज्ञिरे तु परस्परम्।
संसिद्धिकारणं कार्य सद्य एव विवर्तते ॥ ७१

यथोल्मुकात् तु विटपा एककालाद् भवन्ति हि।
तथा प्रवृत्ताः क्षेत्रज्ञाः कालेनैकेन कारणात् ॥ ७२

यथान्धकारे खद्योतः सहसा सम्प्रदृश्यते। 
तथा निवृत्तो ह्यव्यक्तः खद्योत इव सञ्ज्वलन् ॥ ७३

स महात्मा शरीरस्थस्तत्रैव परिवर्तते । 
महतस्तमसः पारे वैलक्षण्याद् विभाव्यते ॥ ७४

तत्रैव संस्थितो विद्वांस्तपसोऽन्त इति श्रुतम्। 
बुद्धिर्विवर्धतस्तस्य प्रादुर्भूता चतुर्विधा ।। ७५

ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्य धर्मश्चेति चतुष्टयम् । 
सांसिद्धिकान्यथैतानि अप्रतीतानि तस्य वै ॥ ७६

महात्मनः शरीरस्य चैतन्यात् सिद्भिरुच्यते। 
पुरि शेते यतः पूर्व क्षेत्रज्ञानं तथापि च ॥ ७७

पुरे शयानात् पुरुषः ज्ञानात् क्षेत्रज्ञ उच्यते। 
यस्माद् धर्मात् प्रसूते हि तस्माद् वै धार्मिकः स्मृतः ॥ ७८

सांसिद्धिके शरीरे च बुद्धयाव्यक्तस्तु चेतनः । 
एवं विवृत्तः क्षेत्रज्ञः क्षेत्रं हृानभिसंधितः ॥ ७९

निवृत्तिसमकाले तु पुराणं तदचेतनम्। 
क्षेत्रज्ञेन परिज्ञातं भोग्योऽयं विषयो मम ॥ ८०

उस जगत्‌की प्रवृत्ति कार्य-कारण-भावसे उसी प्रकार होती है, जैसे विषय और विषयित्व तथा अर्थ और पद परस्पर घुले मिले रहते हैं। प्राप्त हुए कालके अनुसार कारणात्मक भेद उत्पन्न हो जाते हैं। तब क्रमशः महत्तत्त्व आदि प्राकृतिक तत्त्व प्रकट होते हैं। उस महत्तत्त्वसे अहंकार और अहंकारसे भूतेन्द्रियोंको उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् उन भूतोंसे परस्पर अनेकों प्रकारके भूत उत्पन्न होते हैं। तब प्रकृतिका कारण तुरंत ही कार्य-रूपमें परिणत हो जाता है। जैसे एक ही उल्मुक-मशालसे एक ही साथ अनेकों वृक्ष प्रकाशित हो जाते हैं, उसी प्रकार एक ही कारणसे एक ही समय अनेकों क्षेत्रज्ञ जीव प्रकट हो जाते हैं। जैसे घने अन्धकारमें सहसा जुगनू चमक उठता है, वैसे ही जुगनूकी तरह चमकता हुआ अव्यक्त प्रकट हो जाता है। वह महात्मा अव्यक्त शरीरमें ही स्थित रहता है और महान् अन्धकारको पार करके बड़ी विलक्षणतासे जाना जाता है। 

वह विद्वान् अव्यक्त अपनी तपस्याके अन्त समयतक वहीं स्थित रहता है, ऐसा सुना जाता है। वृद्धिको प्राप्त होते हुए उस अव्यक्तके हृदयमें चार प्रकारकी बुद्धि प्रादुर्भूत होती है। उन चारोरोक नाम हैं- ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य और धर्म। उस अव्यक्तके ये प्राकृतिक कर्म अगम्य हैं। महात्मा अव्यक्तके शरीरके चैतन्यसे सिद्धिका प्रादुर्भाव बतलाया जाता है। चूंकि वह पहले-पहल शरीरमें शयन करता है तथा उसे क्षेत्रका ज्ञान प्राप्त रहता है, इसलिये वह शरीरमें शयन करनेसे पुरुष और क्षेत्रका ज्ञान होनेसे क्षेत्रज्ञ कहलाता है। चूंकि वह धर्मसे उत्पन्न होता है, इसलिये उसे धार्मिक भी कहते हैं। प्राकृतिक शरीरमें बुद्धिका संयोग होनेसे वह अव्यक्त चेतन कहलाता है तथा क्षेत्रसे कोई प्रयोजन न होनेपर भी उसे क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। निवृत्तिके समय क्षेत्रज्ञ उस अचेतन पुराणपुरुषको जानता है कि यह मेरा भोग्य विषय है॥ ६८-८० ॥

ऋषिहिंसागतौ धातुर्विद्या सत्यं तपः श्रुतम्।
एष संनिचयो यस्मात् ब्रह्मणस्तु ततस्त्वृषिः ॥ ८१

निवृत्तिसमकालाच्च बुद्धयाव्यक्त ऋषिस्त्वयम् ।
ऋषते परमं यस्मात् परमर्षिस्ततः स्मृतः ॥ ८२

गत्यर्थाद् ऋषतेर्धातोर्नामनिवृत्तिकारणम् ।
यस्मादेष स्वयम्भूतस्तस्माच्च ऋषिता मता ॥ ८३

सेश्वराः स्वयमुद्धता ब्रह्मणो मानसाः सुताः ।
निवर्तमानैस्तैर्बुद्धया महान् परिगतः परः ॥ ८४

यस्मादृषिर्महत्त्वेन ज्ञेयास्तस्मान्महर्षयः ।
ईश्वराणां सुतास्तेषां मानसाश्चौरसाश्च वै ॥ ८५

ऋषिस्तस्मात् परत्वेन भूतादिऋषयस्ततः ।
ऋषिपुत्रा ऋषीकास्तु मैथुनाद् गर्भसम्भवाः ॥ ८६ 

परत्वेन ऋषन्ते वै भूतादीन् ऋषिकास्ततः ।
ऋषीकाणां सुता ये तु विज्ञेया ऋषिपुत्रकाः ॥ ८७

श्रुत्वा ऋषं परत्वेन श्रुतास्तस्माच्छ्रुतर्षयः ।
अव्यक्तात्मा महात्मा वाहङ्कारात्मा तथैव च ॥ ८८

ऋषि' धातुका हिंसा और गति अर्थमें प्रयोग होता है। इसीसे 'ऋषि' शब्द निष्पन्न हुआ है। चूंकि उसे ब्रह्मासे विद्या, सत्य, तप, शास्त्र-ज्ञान आदि समूहोंकी प्राप्ति होती है, इसलिये उसे ऋषि कहते हैं। यह अव्यक्त ऋषि निवृत्तिके समय जब बुद्धि-बलसे परमपदको प्राप्त कर लेता है, तब वह परमर्षि कहलाता है। गत्यर्थक 'ऋषी' धातुसे ऋषिनामकी निष्पत्ति होती है तथा वह स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिये उसकी ऋषिता मानी गयी है। ब्रह्माके मानस पुत्र ऐश्वर्यशाली वे ऋषि स्वयं उत्पन्न हुए हैं। निवृत्तिमार्गमें लगे हुए वे ऋषि बुद्धिबलसे परम महान् पुरुषको प्राप्त कर लेते हैं। चूँकि वे ऋषि महान् पुरुषत्वसे युक्त रहते हैं, इसलिये महर्षि कहे जाते हैं। उन ऐश्वर्यशाली महर्षियोंको जो मानस एवं औरस पुत्र हुए, वे ऋषिपरक होनेके कारण प्राणियोंमें सर्वप्रथम ऋषि कहलाये। मैथुनद्वारा गर्भसे उत्पन्न हुए ऋषि-पुत्रोंको ऋषीक कहा जाता है। चूंकि ये जीवोंको ब्रह्मपरक बनाते हैं इसलिये इन्हें ऋषिक कहा जाता है। ऋषिकके पुत्रोंको ऋषि-पुत्र जानना चाहिये। वे दूसरेसे ऋषिधर्मको सुनकर ज्ञानसम्पन्न होते हैं, इसलिये श्रुतर्षि कहलाते हैं। उनका वह ज्ञान अव्यक्तात्मा, महात्मा, अहंकारात्मा, भूतात्मा और इन्द्रियात्मा कहलाता है ॥ ८१-८८ ॥

भूतात्मा चेन्द्रियात्मा च तेषां तज्ज्ञानमुच्यते।
इत्येवमृषिजातिस्तु पञ्चधा नाम विश्रुता ॥ ८९

भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दश ॥ ९०

ब्रह्मणो मानसा होते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः ।
परत्वेनर्षयो यस्मान्मतास्तस्मान्महर्षयः ॥ ९१

ईश्वराणां सुतास्त्वेषामृषयस्तान् निबोधत ।
काव्यो बृहस्पतिश्चैव कश्यपश्च्यवनस्तथा ॥ ९२

उतथ्यो वामदेवश्च अगस्त्यः कौशिकस्तथा।
कर्दमो बालखिल्याश्च विश्रवाः शक्तिवर्धनः ॥ ९३

इत्येते ऋषयः प्रोक्तास्तपसा ऋषितां गताः ।
तेषां पुत्रानृषीकांस्तु गर्भीत्पन्नान् निबोधत ॥ ९४

वत्सरो नग्नहूश्चैव भरद्वाजश्च वीर्यवान्।
ऋषिर्दीर्घतमाश्चैव बृहद्वक्षाः शरद्वतः ॥ १५

वाजिश्रवाः सुचिन्तश्च शावश्च सपराशरः ।
शृङ्गी च शङ्खपाच्चैव राजा वैश्रवणस्तथा ॥ ९६

इत्येते ऋषिकाः सर्वे सत्येन ऋषितां गताः ।
ईश्वरा ऋषयश्चैव ऋषीका ये च विश्रुताः ॥ ९७

इस प्रकार ऋषिजाति पाँच प्रकारसे विख्यात है। भृगु, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वसिष्ठ और पुलस्त्य ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्माके मानस पुत्र हैं और स्वयं उत्पन्न हुए हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म-परत्वसे युक्त हैं, इसलिये महर्षि माने गये हैं। अब इन ऐश्वर्यशाली महर्षियोंके पुत्ररूप जो ऋषि हैं, उन्हें सुनिये। काव्य (शुक्राचार्य), बृहस्पति, कश्यप, च्यवन, उतथ्य, वामदेव, अगस्त्य, कौशिक, कर्दम, बालखिल्य, विश्वा और शक्तिवर्धन ये सभी ऋषि कहलाते हैं, जो अपने तपोबलसे ऋषिताको प्राप्त हुए हैं। अब इन ऋषियोंद्वारा गर्भसे उत्पन्न हुए ऋषीक नामक पुत्रोंको सुनिये। वत्सर, नग्नहू, पराक्रमी भरद्वाज, दीर्घतमा, बृहद्वक्षा, शरद्वान्, वाजिश्रवा, सुचिन्त, शाव, पराशर, शृङ्गी, शङ्खपाद् और राजा वैश्रवण-ये सभी ऋषीक हैं और सत्यके प्रभावसे ऋषिताको प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार जो ईश्वर (परमर्षि एवं महर्षि), ऋषि और ऋषीक नामसे विख्यात हैं, उनका वर्णन किया गया ॥ ८९-९७ ॥

एवं मन्त्रकृतः सर्वे कृत्स्रश्च निबोधत ।
भृगुः काश्यः प्रचेता च दधीचो ह्यात्मवानपि ॥ ९८

ऊर्वोऽथ जमदग्निश्च वेदः सारस्वतस्तथा।
आर्टिषेणश्च्यवनश्च वीतहव्यः सवेधसः ॥ ९९

वैण्यः पृथुर्दिवोदासो ब्रह्मवान् गृत्सशौनकी।
एकोनविंशतिर्होते भृगवो मन्त्रकृत्तमाः ॥ १००

अङ्गिराश्चैव त्रितश्च भरद्वाजोऽथ लक्ष्मणः ।
कृतवाचस्तथा गर्गः स्मृतिसङ्कृतिरेव च ॥ १०१

गुरुवीतश्च मान्धाता अम्बरीषस्तथैव च।
युवनाश्वः पुरुकुत्सः स्वश्रवस्तु सदस्यवान् ॥ १०२

अजमीढोऽस्वहार्यश्च द्युत्कलः कविरेव च।
पृषदश्वो विरूपश्च काव्यश्चैवाथ मुद्गलः ॥ १०३

उतथ्यश्च शरद्वांश्च तथा वाजिश्रवा अपि।
अपस्यौषः सुचित्तिश्च वामदेवस्तथैव च ॥ १०४

ऋषिजो बृहच्छुक्लश्च ऋषिर्दीर्घतमा अपि।
कक्षीवांश्च त्रयस्त्रिशत् स्मृता ह्यङ्गिरसां पराः ॥ १०५

एते मन्त्रकृतः सर्वे काश्यपांस्तु निबोधत ।
कश्यपः सहवत्सारो नैध्रुवो नित्य एव च ॥ १०६

असितो देवलश्चैव षडेते ब्रह्मवादिनः । 
अत्रिरर्धस्वनश्चैव शावास्योऽथ गविष्ठिरः ॥ १०७

कर्णकश्च ऋषिः सिद्धस्तथा पूर्वातिथिश्च यः ॥ १०८

इत्येते त्वत्रयः प्रोक्ता मन्त्रकृत् षण्महर्षयः । 
वसिष्ठश्चैव शक्तिश्च तृतीयश्च पराशरः ॥ १०९

ततस्तु इन्द्रप्रमितः पञ्चमस्तु भरद्वसुः ।
षष्ठस्तु मित्रवरुणः सप्तमः कुण्डिनस्तथा ॥ ११०

इसी प्रकार अब सभी मन्त्रकर्ता ऋषियोंका नाम पूर्णतया सुनिये। भृगु, काश्यप, प्रचेता, दधीचि, आत्मवान्, ऊर्व, जमदग्नि, वेद, सारस्वत, आर्टिषेण, च्यवन, वीतिहव्य, वेधा, वैण्य, पृथु, दिवोदास, ब्रह्मवान्, गृत्स और शौनक ये उन्नीस भृगुवंशी ऋषि मन्त्रकर्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। अङ्गिरा, त्रित, भरद्वाज, लक्ष्मण, कृतवाच, गर्ग, स्मृति, संकृति गुरुवीत, मान्धाता, अम्बरीष, युवनाश्व, पुरुकुत्स, स्वश्रव, सदस्यवान्, अजमीढ, अस्वहार्य, उत्कल कवि पृषदश्व, विरूप, काव्य, मुगल, उतथ्य, शरद्वान् वाजिश्रवा, अपस्यौष, सुचित्ति, वामदेव ऋषिज, बृहच्छुक्ल, दीर्घतमा और कक्षीवान्- ये तैंतीस श्रेष्ठ ऋषि अङ्गिरागोत्रीय कहे जाते हैं। ये सभी मन्त्रकर्ता हैं। अब कश्यपर्वशमें उत्पन्न होनेवाले ऋषियोंके नाम सुनिये। कश्यप, सहवत्सार, नैध्रुव, नित्य, असित और देवल-ये छः ब्रह्मवादी ऋषि हैं। अत्रि, अर्धस्वन, शावास्य, गविष्ठिर, सिद्धर्षि कर्णक और पूर्वातिथि-ये छः मन्त्रकर्ता महर्षि अत्रिवंशोत्पन्न कहे गये हैं। वसिष्ठ, शक्ति, तीसरे पराशर, इन्द्रप्रमित, पाँचवें भरद्वसु, छठे मित्रावरुण तथा सातवें कुण्डिन-इन सात ब्रह्मवादी ऋषियोंको वसिष्ठवंशोत्पत्र जानना चाहिये ॥९८-११० ॥

इत्येते सप्त विज्ञेया वासिष्ठा ब्रह्मवादिनः ।
विश्वामित्रश्च गाधेयो देवरातस्तथा बलः ॥ १११

तथा विद्वान् मधुच्छन्दा ऋषिश्चान्योऽघमर्षणः । 
अष्टको लोहितश्चैव भृतकीलस्तथाम्बुधिः ॥ ११२

देवश्रवा देवरातः पुराणश्च धनञ्जयः । 
शिशिरश्च महातेजाः शालङ्कायन एव च ॥ ११३

अगस्त्योऽथ दृढद्युम्नो इन्द्रबाहुस्तथैव च ॥ ११४

ब्रह्मिष्ठागस्तयो होते त्रयः परमकीर्तयः । 
मनुर्वैस्वतश्चैव ऐलो राजा पुरूरवाः ॥ ११५ 

क्षत्रियाणां वरौ होतौ विज्ञेयौ मन्त्रवादिनौ। 
भलन्दकश्च वासाश्वः संकीलश्चैव ते त्रयः ॥ ११६ 

एते मन्त्रकृतो ज्ञेया वैश्यानां प्रवरां सदा। 
इति द्विनवतिः प्रोक्ता मन्त्रा वैश्च बहिष्कृताः ॥ ११७

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या ऋषिपुत्रान् निबोधत । 
ऋषीकाणां सुता होते ऋषिपुत्राः श्रुतर्षयः ॥ ११८ 

गाधि-नन्दन विश्वामित्र, देवरात, बल, विद्वान् मधुच्छन्दा, अघमर्षण, अष्टक, लोहित, भृतकील, अम्बुधि, देवपरायण देवरात, प्राचीन ऋषि धनञ्जय, शिशिर तथा महान् तेजस्वी शालंकायन-इन तेरहोंको कौशिकवंशोत्पन ब्रह्मवादी ऋषि समझना चाहिये। अगस्त्य, दृढद्युम्न तथा इन्द्रबाहु- ये तीनों परम यशस्वी ब्रह्मवादी ऋषि अगस्त्य-कुलमें उत्पन्न हुए हैं। विवस्वान्-पुत्र मनु तथा इला- नन्दन राजा पुरूरवा- क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुए इन दोनों राजर्षियोंको मन्त्रवादी जानना चाहिये। भलन्दक, वासाश्व और संकील- वैश्योंमें श्रेष्ठ इन तीनोंको मन्त्रकर्ता समझना चाहिये। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- कुलमें उत्पन्न हुए बानबे ऋषियोंका वर्णन किया गया, जिन्होंने मन्त्रोंको प्रकट किया है। अब ऋषि-पुत्रोंके विषयमें सुनिये। ये ऋषिपुत्र जो श्रुतर्षि कहलाते हैं, ऋषियोंके पुत्र हैं॥ १११-११८॥ 

इति श्रीमात्ये महापुराणे मन्वन्तरकल्पवर्णनो नाम पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४५ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें मन्वन्तरकल्पवर्णन नामक एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४५ ॥

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