मत्स्य पुराण दो सौ छियालीसवाँ अध्याय
बलि-शुक्र-संवाद, वामनका बलि के यज्ञ में पदार्पण, बलि द्वारा उन्हें तीन डग पृथ्वी का दान, वामन द्वारा बलि का बन्धन और वर प्रदान
शौनक उवाच
सपर्वतवनामुर्वी दृष्ट्वा संक्षोभितां बलिः ।
पप्रच्छोशनसं शुद्धं प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ॥ १
शौनकजीने कहा- पर्वतों और काननोंसहित पृथ्वीको क्षुब्ध हुई देख बलिने शुद्धाचारी शुक्राचार्यको हाथ जोड़कर प्रणाम किया।१
आचार्य क्षोभमायाता साब्धिभूमुद्वना मही।
कस्माच्चनासुरान् भागान् प्रतिगृह्णन्ति वह्नयः ॥ २
इति पृष्टोऽथ बलिना काव्यो वेदविदां वरः ।
उवाच दैत्याधिपतिं चिरं ध्यात्वा महामतिः ॥ ३
अवतीर्णो जगद्योनिः कश्यपस्य गृहे हरिः ।
वामनेनेह रूपेण जगदात्मा सनातनः ॥ ४
स एष यज्ञमायाति तव दानवपुङ्गव ।
तत्पादन्यासविक्षोभादियं प्रचलिता मही।
कम्पन्ते गिरयश्चामी क्षुभितो मकरालयः ॥ ५
नैनं भूतपतिं भूमिः समर्था वोढुमीश्वरम् ।
सदेवासुरगन्धर्वयक्षराक्षसकिंनराः ॥ ६
अनेनैव धृता भूमिरापोऽग्निः पवनो नभः ।
धारयत्यखिलान् देवो मन्वादींश्च महासुर ॥ ७
इयमेव जगद्धेतोर्माया कृष्णस्य गह्वरी।
धार्यधारकभावेन यया सम्पीडितं जगत् ॥ ८
तत्संनिधानादसुरा भागार्हा नासुरोत्तम।
भुञ्जते नासुरान् भागानमी तेनैव चाग्नयः ॥ ९
और उनसे पूछा- 'आचार्य ! किस कारण समुद्र, पर्वत और वनोंसहित पृथ्वी संक्षुब्ध हो उठी है और यज्ञोंमें अग्नियाँ आसुरी भागोंको नहीं ग्रहण कर रही हैं?' बलिद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ महाबुद्धिमान् शुक्राचार्य कुछ देरतक ध्यान करके दैत्यराज बलिसे बोले-' दानवश्रेष्ठ ! जगत्के उत्पत्तिस्थान विश्वात्मा अविनाशी श्रीहरि वामनरूपसे कश्यपके गृहमें अवतीर्ण हुए हैं। वही इस समय तुम्हारे यज्ञमें पधार रहे हैं। उन्हींके पैर रखनेसे संक्षुब्ध होकर यह पृथ्वी डगमगा रही है, ये पर्वत काँप रहे हैं और समुद्र क्षुब्ध हो उठा है। देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नरोंसे भरी हुई पृथ्वी समस्त जीवोंके स्वामी इन ईश्वरको वहन करनेमें समर्थ नहीं है। महासुर ! इन्हीं परमात्माने पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और आकाशको धारण कर रखा है तथा ये ही देवेश्वर सम्पूर्ण मनु आदिको धारण करते हैं। जगत्के लिये भगवान् विष्णुकी यही दुर्गम माया है, जिसके द्वारा धार्य-धारकभावसे सारा जगत् पीड़ित हो रहा है। असुरोत्तम! उन्हीं भगवान्के समीपस्थ होनेसे असुरगण यज्ञमें अपने भागोंके अधिकारी नहीं रह गये। यही कारण है कि ये अग्नियाँ असुरोंके भागोंको ग्रहण नहीं कर रही हैं' ॥ २-९॥
बलिरुवाच
धन्योऽहं कृतपुण्यश्च यन्मे यज्ञपतिः स्वयम् ।
यज्ञमभ्यागतो ब्रह्मन्मत्तः कोऽन्योऽधिकः पुमान् ॥ १०
यं योगिनः सदा युक्ताः परमात्मानमव्ययम्।
द्रष्टुमिच्छन्ति देवेशं स मेऽध्वरमुपैष्यति ॥ ११
होता भागप्रदोऽयं च यमुद्गाता च गायति।
तमध्वरेश्वरं विष्णुं मत्तः कोऽन्य उपैष्यति ॥ १२
सर्वेश्वरेश्वरे कृष्णे मदध्वरमुपागते।
यन्मया काव्य कर्तव्यं तन्ममादेष्टुमर्हसि ॥ १३
बलिने कहा- ब्रह्मन् ! मैं धन्य और पुण्यात्मा हूँ जो मेरे यज्ञमें साक्षात् भगवान् यज्ञपति उपस्थित हो रहे हैं। अब मुझसे बढ़कर दूसरा कौन पुरुष है? योगाभ्यासमें लगे हुए योगी जिन अविनाशी देवाधिदेव परमात्माको देखनेकी लालसा करते हैं, वे ही भगवान् मेरे यज्ञमें आ रहे हैं। होता जिन्हें यज्ञभाग प्रदान करते हैं और उद्गाता जिनका गान करते हैं, उन यज्ञपति विष्णुके निकट मेरे अतिरिक्त दूसरा कौन जा सकता है। शुक्राचार्यजी! सर्वेश्वरेश्वर भगवान् विष्णुके मेरे यज्ञमें पधारनेपर मेरा जो कर्तव्य हो, उसका मुझे आदेश दीजिये ॥ १०-१३॥
शुक्र उवाच
यज्ञभागभुजो देवा वेदप्रामाण्यतोऽसुर।
त्वया तु दानवा दैत्या मखभागभुजः कृताः ॥ १४
अयं च देवः सत्त्वस्थः करोति स्थितिपालनम्।
विसृष्टेरनु चान्नेन स्वयमत्ति प्रजाः प्रभुः ॥ १५
त्वत्कृते भविता नूनं देवो विष्णुः स्थिती स्थितः ।
विदित्वैतन्महाभाग कुरु यत्नमनागतम् ॥ १६
त्वया हि दैत्याधिपते स्वल्पकेऽपि हि वस्तुनि।
प्रतिज्ञा न हि वोढव्या वाच्यं साम वृथाफलम् ॥ १७
नालं दातुमहं देव दैत्य वाच्यं त्वया वचः ।
कृष्णस्य देवभूत्यर्थं प्रवृत्तस्य महासुर । १८
शुक्रने कहा- असुर ! वेदोंके प्रमाणानुसार देवगण ही यज्ञभागके अधिकारी हैं, किंतु तुमने तो दैत्यों और दानवोंको यज्ञभागका अधिकारी बना दिया है। ये सामर्थ्यशाली भगवान् सत्त्वगुणमें स्थित होकर सृष्टिकी उत्पत्ति और पालन करते हैं तथा प्रलयकालमें प्रजाओंको अपना ग्रास बना लेते हैं। महाभाग। वे भगवान् विष्णु तुम्हारे लिये ही भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं, अतः इसे जानकर भविष्यके लिये उपाय करो। दैत्याधिपते। तुम उन्हें थोड़ी-सी भी वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा न करना, झूठ-मूठ ही नम्रतापूर्वक कुछ वचन कहना। महासुर । देवताओंकी उन्नतिके लिये प्रवृत्त हुए श्रीविष्णुसे तुम्हें ऐसा वचन कहना चाहिये कि 'देव! मैं आपको कुछ भी देनेमें समर्थ नहीं हूँ' ॥ १४-१८॥
बलिरुवाच
ब्रह्मन् कथमहं ब्रूयामन्येनापि हि याचितः ।
नास्तीति किमु देवेन संसाराघौघहारिणा ।। १९
व्रतोपवासैर्विविधैः प्रतिसंग्राह्यते हरिः ।
स चेद् वक्ष्यति देहीति गोविन्दः किमतोऽधिकम् ॥ २०
यदर्थमुपहाराढ्यास्तपः शौचगुणान्वितैः।
यज्ञाः क्रियन्ते देवेशः स मां देहीति वक्ष्यति ।। २१
तत्साधु सुकृतं कर्म तपः सुचरितं मम।
यन्मया दत्तमीशेशः स्वयमादास्यते हरिः ॥ २२
नास्ति नास्तीत्यहं वक्ष्ये तमप्यागतमीश्वरम् ।
यदा वञ्चामि तं प्राप्तं वृथा तज्ञ्जन्मनः फलम् ॥ २३
यज्ञेऽस्मिन् यदि यज्ञेशो याचते मां जनार्दनः ।
निजमूर्धानमप्यत्र तद् दास्याम्यविचारितम् ॥ २४
नास्तीति यन्मया नोक्तमन्येषामपि याचताम् ।
वक्ष्यामि कथमायाते तदनभ्यस्तमच्युते ॥ २५
श्लाध्य एव हि वीराणां दानादापत्समागमः ।
नाबाधकारि यद् दानं तदमङ्गलवत् स्मृतम् ॥ २६
मद्राज्ये नासुखी कश्चिन्न दरिद्रो न चातुरः ।
नाभूषितो न चोद्विग्नो न स्त्रगादिविवर्जितः ।। २७
हृष्टस्तुष्टः सुगन्धिश्च तृप्तः सर्वसुखान्वितः ।
जनः सर्वो महाभाग किमुताहं सदा सुखी ॥ २८
बलिने कहा- ब्रह्मन् ! साधारण याचकोंके याचना करनेपर मैंने उन्हें कभी नकारात्मक उत्तर नहीं दिया, फिर संसारके पापसमूहोंको दूर करनेवाले परमात्माद्वारा याचना किये जानेपर मैं कैसे कहूँगा कि मेरे पास नहीं है। भला, जो श्रीहरि विविध व्रतों और उपवासोंद्वारा प्राप्त किये जाते हैं, वे गोविन्द यदि ऐसा कहेंगे कि 'दो' तो इससे बढ़कर और क्या बात होगी ? जिनकी प्राप्तिके लिये तप और शौच आदि गुणोंसे युक्त याज्ञिक लोग उपहार-सामग्रियोंसे परिपूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, वे ही देवेश मुझसे 'दो' ऐसी याचना करेंगे। यदि देवाधिदेव श्रीहरि मेरे द्वारा दिये गये दानको स्वयं ग्रहण करेंगे, तब तो मेरे कर्म पुण्यमय हो गये और मेरी तपस्या सफल हो गयी। यदि मैं उन परमेश्वरके आनेपर भी 'नहीं है, नहीं है' ऐसा कहूँ और उन्हें ठगूँ, तब तो मेरे जन्म लेनेका फल ही व्यर्थ है। इसलिये इस यज्ञमें यदि यज्ञेश्वर जनार्दन मुझसे मेरा मस्तक भी माँगेंगे तो मैं उसे बिना हिचकिचाहटके दे डालूँगा। जब मैंने अन्य साधारण याचकोंको 'नहीं है' ऐसा कभी नहीं कहा, तब भला भगवान् अच्युतके आनेपर वह अनभ्यस्त शब्द कैसे कहूँगा ? दान देनेसे आनेवाली विपत्तियाँ वीर पुरुषोंके लिये प्रशंसनीय हैं। जो दान देनेके बाद बाधा नहीं पहुँचाता, वह अमङ्गलके समान कहा गया है। महाभाग ! मेरे राज्यमें कोई भी प्राणी दुःखी, दरिद्र, आतुर, भूषारहित, उद्विग्न और माला आदिसे रहित नहीं है, प्रत्युत सभी लोग हृष्ट, संतुष्ट, सुगन्धित द्रव्योंसे विभूषित, तृप्त और सभी सुखोंसे सम्पन्न हैं। फिर मैं सदा सुखी हूँ, इसके लिये तो कहना ही क्या है ?॥ १९-२८॥
एतद्विशिष्टपात्रोऽयं दानबीजफलं मम।
विदितं भृगुशार्दूल मयैतत् त्वत्प्रसादतः ॥ २९
एतद् विजानतो दानबीजं पतति चेद् गुरो।
जनार्दनमहापात्रे किं च प्राप्तं ततो मया ॥ ३०
मत्तो दानमवाप्येशो यदि पुष्णाति देवताः ।
उपभोगाद् दशगुणं दानं श्लाघ्यतमं मम ॥ ३१
मत्प्रसादपरो नूनं यज्ञेनाराधितो हरिः।
तेनाभ्येति न संदेहो दर्शनादुपकारकृत् ॥ ३२
अथ कोपेन चाभ्येति देवभागोपरोधिनम् ।
मां निहन्तुमनाश्चैव वधः श्लाघ्यतरोऽच्युतात् ॥ ३३
तन्मयं सर्वमेवेदं नाप्राप्यं यस्य विद्यते ।
स मां याचितुमभ्येति नानुग्रहमृते हरिः ॥ ३४
यः सृजत्यात्मभूः सर्वं चेतसैव च संहरेत्।
स मां हन्तुं हृषीकेशः कथं यत्नं करिष्यति ॥ ३५
एतद् विदित्वा न गुरो दानविघ्नकरेण च।
त्वया भाव्यं जगन्नाथे गोविन्दे समुपस्थिते ॥ ३६
भृगुवंशसिंह ! मेरे दानरूपी बीजका ही यह फल है, जो मुझे इस प्रकार दान देनेयोग्य विशिष्ट पात्र प्राप्त होगा। यह मुझे आपकी कृपासे ही ज्ञात हुआ है। अतः गुरो। यह सब जानते हुए यदि मेरा यह दानबीज जनार्दनरूपी महापात्रमें पड़ जाय तो फिर मुझे क्या नहीं मिला अर्थात् मुझे सब कुछ प्राप्त हो गया। यदि परमेश्वर मुझसे दान लेकर देवताओं का पालन-पोषण करते हैं तो उनके उपभोगसे मेरा दान दसगुना प्रशंसनीय हो जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि यज्ञद्वारा आराधित श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हो गये हैं, इसी कारण दर्शन देकर उपकार करनेके लिये यहाँ आ रहे हैं। यदि क्क्रुद्ध होकर देवभागको रोकनेवाले मुझको मार डालनेके विचारसे आ रहे हैं तो भगवान्के हाथोंसे मेरा वध भी प्रशंसनीय है। यह सब कुछ उन्हींका स्वरूप है। जिनके लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है, वे ही श्रीहरि यदि मुझसे माँगनेके लिये आ रहे हैं तो यह उनके अनुग्रहके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो स्वयम्भू परमात्मा सबकी सृष्टि करते हैं और मनकी कल्पनासे ही उसका विनाश कर देते हैं, वे हृषीकेश भला मुझे मारनेके लिये क्यों यत्न करेंगे? गुरो! ऐसा जानकर मेरे यज्ञमें जगन्नाथ गोविन्दके उपस्थित होनेपर आपको मेरे दानमें विघ्न नहीं करना चाहिये ॥ २९-३६ ॥
शौनक उवाच
इत्येवं वदतस्तस्य सम्प्राप्तः स जगत्पतिः ।
सर्वदेवमयोऽचिन्त्यो मायावामनरूपधृक् ॥ ३७
यज्ञवाटान्तः प्रविष्टमसुराः प्रभुम् ।
तं दृष्ट्वा सभासदः क्षोभं तेजसा तस्य निष्प्रभाः ॥ ३८
जग्मुः जेपुश्च मुनयस्तत्र ये समेता महाध्वरे।
बलिश्चैवाखिलं जन्म मेने सफलमात्मनः ॥ ३९
ततः संक्षोभमापन्नो न कश्चित्किंचिदुक्तवान् ।
प्रत्येकं देवदेवेशं पूजयामास चेतसा ।। ४०
अथासुरपतिं प्रद्धं दृष्ट्वा मुनिवरांश्च तान्।
देवदेवपतिः साक्षी विष्णुर्वामनरूपधृक् ॥ ४१
तुष्टाव यज्ञवह्नि च यजमानमथत्विजः ।
यज्ञकर्माधिकारस्थान् सदस्यान् द्रव्यसम्पदः ॥ ४२
ततः प्रसन्नमखिलं वामनं प्रति तत्क्षणात्।
यज्ञवाटस्थितं वीरः साधु साध्वित्युदीरयन् ॥ ४३
स चार्धमादाय बलिः प्रोद्भूतपुलकस्तदा।
पूजयामास गोविन्दं प्राह चेदं महासुरः ॥ ४४
शौनकजी बोले- बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि सर्वदेवमय, अचिन्त्य एवं मायासे वामनरूपधारी जगदीश्वर वहाँ आ पहुँचे। यज्ञशालाके भीतर प्रविष्ट हुए उन प्रभुको देखकर सभी सभासद असुरगण क्षुब्ध हो उठे; क्योंकि वामनके तेजसे वे तेजोहीन हो गये थे। उस महान् यज्ञमें आये हुए मुनिगण जप करने लगे। बलिने अपना समस्त जीवन सफल मान लिया। इसके बाद सभी संक्षुब्ध थे, अतः किसीने भी किसीसे कुछ भी नहीं कहा। सभीने हृदयसे देवदेवेशकी पूजा की। तत्पश्चात् देवाधिदेव वामनरूपधारी साक्षात् विष्णुने विनीत बलि और उन मुनिवरोंको देखकर यज्ञाग्नि, यज्ञकर्माधिकारी सदस्यों और यजमान, पुरोहित, कर्ममें प्रस्तुत द्रव्य-सम्पत्तियोंकी प्रशंसा की। तदनन्तर यज्ञशालामें स्थित वामनभगवान्को अत्यन्त प्रसन्न देखकर उसी समय सदस्यगण 'साधु-साधु' की ध्वनि करने लगे। उसी समय रोमाञ्चित शरीरवाले महासुर बलिने अर्घ्य लेकर गोविन्दकी पूजा की और इस प्रकार कहा ॥ ३७-४४॥
बलिरुवाच
सुवर्णरत्नसंघातं गजाश्वममितं तथा।
स्त्रियो वस्त्राण्यलङ्कारांस्तथा ग्रामांश्च पुष्कलान् ॥ ४५
सर्वस्वं सकलामुर्वी भवतो वा यदीप्सितम् ।
तद् ददामि वृणुष्व त्वं येनार्थी वामनः प्रियः ॥ ४६
बलिने कहा- सुवर्ण एवं रत्नोंके समूह, असंख्य हाथी-घोड़े, स्त्रियाँ, वस्त्र, आभूषण, प्रचुर गाँव, सर्वस्व सम्पत्ति तथा सम्पूर्ण पृथ्वी-इनमेंसे जो आपको अभीष्ट हो अथवा जिसके लिये आप वामनरूपसे आये हैं, उसे आप माँगिये। मैं आपको वह प्रदान करूँगा ॥ ४५-४६ ॥
शौनक उवाच
इत्युक्तो दैत्यपतिना प्रीतिगर्भान्वितं वचः ।
प्राह सस्मितगम्भीरं भगवान् वामनाकृतिः ॥ ४७
शौनकजी बोले- दैत्यपति बलिके ऐसा कहने पर गम्भीर रूप से मुसकराते हुए वामनरूपधारी भगवान् प्रेमभरी वाणीमें बोले ॥ ४७ ॥
वामन उवाच
ममाग्निशरणार्थाय देहि राजन् पदत्रयम्।
सुवर्णग्रामरत्नानि तदर्थिभ्यः प्रदीयताम् ॥ ४८
वामनभगवान्ने कहा- राजन् ! अग्निस्थापनके लिये मुझे तीन पग पृथ्वी दीजिये। सुवर्ण, ग्राम, रत्न आदि उनके याचकों को प्रदान कीजिये ॥ ४८ ॥
बलिरुवाच
त्रिभिः प्रयोजनं किं ते पादैः पदवतां वर।
शतं शतसहस्त्राणां पदानां मार्गतां भवान् ॥ ४९
बलिने कहा- पदधारियोंमें श्रेष्ठ! तीन पग पृथ्वीसे आपका क्या काम चलेगा? आप सौ अथवा लाख पदोंके लिये याचना कीजिये ॥ ४९ ॥
वामन उवाच
धर्मबुद्धया दैत्यपते कृतकृत्योऽस्मि तावता ।
अन्येषामर्थिनां वित्तमीहितं दास्यते भवान् ॥ ५०
वामनभगवान्ने कहा- दैत्यपते। मैं धर्मबुद्धिसे उतनेसे ही कृतार्थ हूँ। आप अन्य याचकोंको उनका अभीष्ट धन प्रदान कीजिये ॥ ५० ॥
शौनक उवाच
एतच्छ्रुत्वा तु गदितं वामनस्य महात्मनः ।
ददौ तस्मै महाबाहुर्वामनाय पदत्रयम् ॥ ५१
पाणौ तु पतिते तोये वामनोऽभूदवामनः ।
सर्वदेवमयं रूपं दर्शयामास तत्क्षणात् ॥ ५२
चन्द्रसूर्यौ च नयने द्यौर्मूर्धा चरणौ क्षितिः ।
पादाङ्गुल्यः पिशाचास्तु हस्ताङ्गुल्यश्च गुहाकाः ॥ ५३
विश्वेदेवाश्च जानुस्था जड्डे साध्याः सुरोत्तमाः ।
यक्षा नखेषु सम्भूता रेखाश्चाप्सरसस्तथा ।। ५४
दृष्टौ ऋक्षाण्यशेषाणि केशाः सूर्याशवः प्रभोः ।
तारका रोमकूपाणि रोमाणि च महर्षयः ॥ ५५
बाहवो विदिशस्तस्य दिशः श्रोत्रे महात्मनः ।
अश्विनौ श्रवणे तस्य नासा वायुर्महात्मनः ॥ ५६
प्रसादश्चन्द्रमा देवो मनो धर्मः समाश्रितः ।
सत्यं तस्याभवद् वाणी जिह्वा देवी सरस्वती ।। ५७
ग्रीवादितिर्देवमाता विद्यास्तद्वलयस्तथा।
स्वर्गद्वारमभून्मैत्रं त्वष्टा पूषा च वै ध्रुवौ ॥ ५८
मुखं वैश्वानरश्चास्य वृषणौ तु प्रजापतिः ।
हृदयं च परं ब्रह्म पुंस्त्वं वै कश्यपो मुनिः ॥ ५९
पृष्ठेऽस्य वसवो देवा मरुतः सर्वसंधिषु।
सर्वसूक्तानि दशना ज्योतींषि विमलप्रभाः ॥ ६०
शौनकजी बोले- महात्मा वामनकी ऐसी बातें सुनकर महाबाहु बलिने उन वामनको तीन पग भूमि देनेका संकल्प कर लिया। हाथमें संकल्पका जल गिरते ही वामन अवामन हो गये और उन्होंने उसी क्षण अपना सर्वदेवमय रूप प्रकट कर दिया। चन्द्र-सूर्य उनके नेत्र, आकाश मस्तक, पृथ्वी दोनों चरण, पिशाचगण पैरोंकी अंगुलियाँ, गुह्यक हाथोंकी अंगुलियाँ, विश्वेदेव घुटने, सुरश्रेष्ठ साध्यगण जंघे थे। नखोंमें यक्ष, रेखाओंमें अप्सराएँ, नेत्रज्योतिमें नक्षत्रगण थे। सूर्यकिरणें केश, ताराएँ रोमकूप, महर्षिगण रोमावलि थे। उन महात्माकी भुजाओंमें दिशाओंक कोण और श्रोत्रोंमें दिशाएँ थीं। श्रवणेन्द्रियमें अश्विनीकुमार और नासिकामें वायुका निवास था। प्रसन्नतामें चन्द्रदेव और मनमें धर्म स्थित थे। सत्य उनकी वाणी और सरस्वती देवी जिह्वा हुईं। देवमाता अदिति ग्रीवा, विद्याएँ वलय, स्वर्गद्वार मैत्री, त्वष्टा और पूषा दोनों भौंह थे। वैश्वानर उनके मुख, प्रजापति अण्डकोष, परब्रह्म हृदय और कश्यप मुनि पुंस्त्व थे। उनके पीठ-भागमें वसुगण और संधिभागोंमें मरुद्गण थे। सभी सूक्त दाँत और निर्मल कान्ति ज्योतिर्गण थे ॥ ५१-६० ॥
वक्षःस्थले महादेवो धैर्ये चास्य महार्णवाः ।
उदरे चास्य गन्धर्वाः सम्भूताश्च महाबलाः ॥ ६१
लक्ष्मीर्मेधा धृतिः कान्तिः सर्वविद्याश्च वै कटिः ।
सर्वज्योतींषि जानीहि तस्य तत्परमं महः ।। ६२
तस्य देवाधिदेवस्य तेजः प्रोद्भूतमुत्तमम् ।
स्तनौ कुक्षी च वेदाश्च उदरं च महामखाः ॥ ६३
इष्टयः पशुबन्धाश्च द्विजानां चेष्टितानि च।
तस्य देवमयं रूपं दृष्ट्वा विष्णोर्महाबलाः ।। ६४
उपासर्पन्त दैत्येन्द्राः पतङ्गा इव पावकम्।
प्रमथ्य सर्वांनसुरान् पादहस्ततलैर्विभुः ।। ६५
कृत्वा रूपं महाकायं जहाराशु स मेदिनीम् ।
तस्य विक्रमतो भूमिं चन्द्रादित्यौ स्तनान्तरे ॥ ६६
नाभौ विक्रममाणस्य सक्थिदेशस्थितावुभौ ।
परं विक्रमतस्तस्य जानुमूले प्रभाकरौ ॥ ६७
विष्णोरास्तां महीपाल देवपालनकर्मणि ।
जित्वा लोकत्रयं कृत्स्नं हत्वा चासुरपुङ्गवान् ॥ ६८
पुरंदराय त्रैलोक्यं ददौ विष्णुरुरुक्रमः ।
सुतलं नाम पातालमधस्ताद् वसुधातलात् ॥ ६९
बलेर्दत्तं भगवता विष्णुना प्रभविष्णुना।
अथ दैत्येश्वरं प्राह विष्णुः सर्वेश्वरेश्वरः ॥ ७०
उनके वक्षःस्थलमें महादेव और धैर्यमें महासागर थे। उनके उदरमें महाबली गन्धर्व उत्पन्न हुए थे। लक्ष्मी, मेधा, धृति, कान्ति और सभी विद्याएँ उनके कटिप्रदेशमें थीं। सभी ज्योतियोंको उनका परम तेज जानना चाहिये। वहाँ उन देवाधिदेवका अनुपम तेज भासमान हो रहा था। उनके स्तनों और कुक्षियोंमें वेदोंका निवास था तथा उदरमें महायज्ञ, इष्टियाँ, पशुओंके बलिदान और ब्राह्मणोंकी चेष्टाएँ थीं। उन विष्णुके देवमय स्वरूपको देखकर महाबली दैत्यगण अग्निमें पतंगोंकी भाँति उनपर टूट पड़े। तब सर्वव्यापी परमात्माने उन सभी असुरोंको पैरों तथा हाथोंके चपेटसे मसल डाला और शीघ्र ही विशालकाय स्वरूप धारणकर सारी पृथ्वीको अपने वशमें कर लिया। भूलोकको नापते समय चन्द्रमा और सूर्य भगवान्के स्तनोंके मध्यभागमें थे, अन्तरिक्षलोक नापते समय वे दोनों नाभिप्रदेशमें और उससे ऊपर जाते समय सक्थि भागमें आ गये। उससे भी ऊपर जाते समय वे दोनों प्रकाश फैलानेवाले चन्द्रमा और सूर्य भगवान् विष्णुके घुटनोंके मूलभागमें स्थित हो गये। महीपाल ! इस प्रकार लम्बे डगवाले भगवान् विष्णुने देवहितके लिये समूची त्रिलोकीको जीतकर और असुरश्रेष्ठोंका संहार कर तीनों लोकोंका राज्य इन्द्रको सौंप दिया। साथ ही प्रभावशाली भगवान् विष्णुने भूमितलके नीचे सुतल नामक पाताललोकका राज्य बलिको दे दिया। उस समय सर्वेश्वरेश्वर भगवान् विष्णुने दैत्यराज बलिसे इस प्रकार कहा ॥ ६१-७०॥
श्रीभगवानुवाच
यत् त्वया सलिलं दत्तं गृहीतं पाणिना मया।
कल्पप्रमाणं तस्मात् ते भविष्यत्यायुरुत्तमम् ॥ ७१
वैवस्वते तथातीते बले मन्वन्तरे हाथ।
सावर्णिके तु सम्प्राप्ते भवानिन्द्रो भविष्यति ॥ ७२
साम्प्रतं देवराजाय त्रैलोक्यं सकलं मया।
दत्तं चतुर्युगाणां च साधिका होकसप्ततिः ॥ ७३
नियन्तव्या मया सर्वे ये तस्य परिपन्थिनः ।
तेनाहं परया भक्त्या पूर्वमाराधितो बले ॥ ७४
सुतलं नाम पातालं त्वमासाद्य मनोरमम्।
वसासुर ममादेशं यथावत् परिपालयन् ॥ ७५
तत्र दिव्यवनोपेते प्रासादशतसंकुले।
प्रोत्फुल्लपद्मसरसि स्रवच्छुद्धसरिद्वरे ।। ७६
सुगन्धिधूपस्त्रग्वस्त्रवराभरणभूषितः ।
स्त्रक्चन्दनादिमुदितो गेयनृत्यमनोरमे ।। ७७
पानान्नभोगान् विविधानुपभुङ्खव महासुर ।
ममाज्ञया कालमिमं तिष्ठ स्त्रीशतसंवृतः ॥ ७८
यावत् सुरैश्च विप्रैश्च न विरोधं करिष्यसि ।
तावदेतान् महाभोगानवाप्स्यसि महासुर ॥ ७९
यदा च देवविप्राणां विरोधं त्वं करिष्यसि ।
बन्धिष्यन्ति तदा पाशा वारुणास्त्वामसंशयम् ॥ ८०
एतद् विदित्वा भवता मयाऽऽज्ञप्तमशेषतः ।
न विरोधः सुरैः कार्यों विप्रैर्वा दैत्यसत्तम ॥ ८१
श्रीभगवान् बोले- दैत्यराज बले! जो तुमने मुझे जलका दान दिया है और मैंने उसे हाथ में ग्रहण कर लिया है, उसके फलस्वरूप तुम एक कल्पतक दीर्घजीवन प्राप्त करोगे और इस वैवस्वत मन्वन्तरके व्यतीत हो जानेपर सावर्णिक मन्वन्तरके आनेपर तुम इन्द्र होओगे। इस समय मैंने एकहत्तर चतुर्युगीतकके लिये त्रिलोकीका सम्पूर्ण राज्य देवराज इन्द्रको दे दिया है। साथ ही इन्द्रके जितने शत्रु होंगे, उन सबका भी मुझे नियन्त्रण करना है; क्योंकि इन्द्रने पूर्वकाल में परम भक्तिपूर्वक मेरी आराधना की है। असुर ! तुम सुतल नामक मनोहर पाताललोकमें जाकर मेरे आदेशका ठीक-ठीक पालन करते हुए निवास करो। महासुर ! जो दिव्य वनोंसे युक्त एवं सैकड़ों महलोंसे समन्वित है, जिसके सरोवरोंमें कमल खिले हुए हैं, जहाँ शुद्ध एवं श्रेष्ठ नदियाँ बह रही हैं, जो नाच-गानसे मनको लुभानेवाला है, उस सुतललोकमें तुम सुगन्धित धूप, माला, वस्त्र और उत्तम आभूषणोंसे विभूषित तथा माला और चन्दनादिसे हर्षित होकर विविध प्रकारके अन्न-पान आदिका उपभोग करो और मेरी आज्ञासे सैकड़ों स्त्रियोंके साथ उतने समयतक निवास करो। महासुर ! जबतक तुम देवताओं और ब्राह्मणोंसे विरोध नहीं करोगे, तबतक तुम इन सभी महाभोगोंको प्राप्त करते रहोगे। जब तुम देवताओं तथा ब्राह्मणोंका विरोध करोगे, तब तुम्हें वरुणके पाश बाँध लेंगे- इसमें संदेह नहीं है। दैत्यश्रेष्ठ! ऐसा जानकर तुम मेरी आज्ञाओंका पूर्णरूपसे पालन करो! तुम्हें देवताओं अथवा ब्राह्मणोंके साथ विरोध नहीं करना चाहिये ॥ ७१-८१ ॥
शौनक उवाच
इत्येवमुक्तो देवेन विष्णुना प्रभविष्णुना।
बलिः प्राह महाराज प्रणिपत्य मुदा युतः ॥ ८२
शौनकजी बोले- महाराज! प्रभावशाली भगवान् विष्णुके द्वारा ऐसा कहे जानेपर बलि प्रमुदित हो प्रणाम करके बोला ॥ ८२ ॥
बलिरुवाच
तत्रासतो मे पाताले भगवन् भवदाज्ञया।
किं भविष्यत्युपादानमुपभोगोपपादकम् ।। ८३
बलिने पूछा- भगवन्! आपके आदेशसे उस पाताललोकमें निवास करते समय मेरे लिये सुखभोगोंको प्राप्त कराने वाले कौन-से उपादान कारण होंगे ? ॥ ८३ ॥
श्रीभगवानुवाच
दानान्यविधिदत्तानि श्राद्धान्यश्रोत्रियाणि च।
हुतान्यश्रद्धया यानि तानि दास्यन्ति ते फलम् ॥ ८४
अदक्षिणास्तथा यज्ञाः क्रियाश्चाविधिना कृताः ।
फलानि तव दास्यन्ति अधीतान्यव्रतानि च ॥ ८५
श्रीभगवान्ने कहा- जो विधानसे रहित किये गये दान, बिना श्रोत्रिय ब्राह्मणके किये गये श्राद्ध और श्रद्धारहित किये हुए हवन हैं, ये सब तुम्हें अपना फल प्रदान करेंगे। दक्षिणाहीन यज्ञ, बिना विधिके की हुई क्रियाएँ और ब्रह्मचर्य व्रतसे रहित अध्ययन- ये सभी तुम्हें अपना फल देंगे ॥ ८४-८५ ॥
शौनक उवाच
बलेर्वरमिमं दत्त्वा शक्राय त्रिदिवं तथा।
व्यापिना तेन रूपेण जगामादर्शनं हरिः ॥ ८६
प्रशशास यथापूर्वमिन्द्रस्त्रैलोक्यपूजितः ।
सिषेवे च परान् कामान् बलिः पातालसंस्थितः ॥ ८७
इहैव देवदेवेन बद्धोऽसौ दानवोत्तमः ।
देवानां कार्यकरणे भूयोऽपि जगति स्थितः ॥ ८८
सम्बन्धी ते महाभाग द्वारकायां व्यवस्थितः ।
दानवानां विनाशाय भारावतरणाय च ॥ ८९
यतो यदुकुले कृष्णो भवतः शत्रुनिग्रहे।
सहायभूतः सारथ्यं करिष्यति बलानुजः ॥ ९०
एतत् सर्वं समाख्यातं वामनस्य च धीमतः ।
अवतारं महावीर श्रोतुमिच्छोस्तवार्जुन ॥ ९१
शौनक जी ने कहा- बलिको यह वरदान तथा इन्द्रको स्वर्गका राज्य देकर भगवान् विष्णु अपने उस सर्वव्यापक रूपके साथ अदृश्य हो गये। तत्पश्चात् इन्द्र तीनों लोकोंमें पूजित होकर पूर्ववत् शासन करने लगे तथा बलि पातालमें स्थित होकर उत्तम मनोरथोंका सेवन करने लगे। महाभाग ! वह दानवराज बलि भगवान् विष्णुद्वारा यहीं बाँधा गया था। वे भगवान् देवताओंका कार्य करनेके लिये फिर इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं, जो दानवोंका विनाश तथा पृथ्वीका भार हरण करने के लिये कृष्णरूपसे यदुकुलमें उत्पन्न होकर विराजमान हैं। वे तुम्हारे सम्बन्धी हैं। बलरामके छोटे भाई वे श्रीकृष्ण तुम्हारे शत्रुओंके निग्रहके समय सारथिरूपसे तुम्हारी सहायता करेंगे। महावीर अर्जुन। बुद्धिमान् वामनके अवतारकी यह सारी कथा मैंने तुमसे वर्णन कर दी, जिसे तुम सुनना चाहते थे ॥ ८६-९१ ॥
अर्जुन उवाच
श्रुतवानिह ते पृष्टं माहात्म्यं केशवस्य च।
गङ्गाद्वारमितो यास्याम्यानुज्ञां देहि मे विभो ॥ ९२
अर्जुन बोले- विभो ! भगवान् विष्णुके माहात्म्यको, जिसे मैंने पूछा था, उसे मैं आपके मुखसे सुन चुका। अब मैं यहाँसे गङ्गाद्वार (हरिद्वार) जाना चाहता हूँ, इसके लिये आप मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ ९२ ॥
सूत उवाच
एवमुक्त्वा ययौ पार्थो नैमिषं शौनको गतः ।
इत्येतद् देवदेवस्य विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ।
वामनस्य पठेद् यस्तु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ९३
बलिप्रह्लादसंवादं मन्त्रितं बलिशुक्रयोः ।
बलेर्विष्णोश्च कथितं यः स्मरिष्यति मानवः ॥ ९४
नाधयो व्याधयस्तस्य न च मोहाकुलं मनः ।
भविष्यति द्विजश्रेष्ठाः पुंसस्तस्य कदाचन ॥ ९५
च्युतराज्यो निजं राज्यमिष्टाप्तिं च वियोगवान् ।
अवाप्नोति महाभागो नरः श्रुत्वा कथामिमाम् ॥ ९६
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! ऐसा कहकर अर्जुन गङ्गाद्वारको चले गये और महर्षि शौनक नैमिषारण्यकी और प्रस्थित हुए। इस प्रकार जो देवाधिदेव भगवान् वामनके इस उत्तम माहात्म्यका पाठ करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। द्विजवरो! जो मनुष्य बलि और प्रह्लादके संवाद, बलि और शुक्रकी मन्त्रणा तथा बलि और विष्णुके कथनोपकथनका स्मरण करेगा, उस पुरुषको कभी भी न तो किसी प्रकारकी आधि-व्याधि प्राप्ति होगी और न उसका मन मोहसे व्याकुल होगा। जो महान् भाग्यशाली मनुष्य इस कथाको सुनता है, वह राज्यच्युत हो तो अपने राज्यको और वियोगी हो तो अपने इष्टको प्राप्त कर लेता है॥ ९३-९६ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वामनप्रादुर्भावो नाम षट्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वामनप्रादुर्भाव नामक दो सी छियालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४६ ॥
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