शिव लिङ्ग के निर्माण की विधि | shiv ling ke nirmaan kee vidhi

मत्स्य पुराण दो सौ तिरसठवाँ अध्याय 

शिव लिङ्ग के निर्माण की विधि 

सूत उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि लिङ्गलक्षणमुत्तमम् ।
सुस्निग्धं च सुवर्ण च लिङ्गं कुर्याद् विचक्षणः ॥ १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब मैं लिङ्गके उत्तम लक्षणका वर्णन कर रहा हूँ। चतुर पुरुष अत्यन्त चिकने एवं श्रेष्ठ (बेत) रंगके शिवलिङ्गका निर्माण करे। १

प्रासादस्य प्रमाणेन लिङ्गमानं विधीयते।
लिङ्गमानेन वा विद्यात् प्रासादं शुभलक्षणम् ॥ २

चतुरस्त्रे समे गर्ते ब्रह्मसूत्रं निपातयेत्।
वामेन ब्रह्मसूत्रस्य अर्चा वा लिङ्गमेव च ॥ ३

प्रागुत्तरेण लीनं तु दक्षिणापरमाश्रितम् ।
पुरस्यापरदिग्भागे पूर्वद्वारं प्रकल्पयेत् ॥ ४

पूर्वेण चापरे द्वारं माहेन्द्रं दक्षिणोत्तरम्।
द्वारं विभन्य पूर्व तु एकविंशतिभागिकम् ॥ ५

ततो मध्यगतं ज्ञात्वा ब्रह्मसूत्रं प्रकल्पयेत्।
तस्यार्थं तु त्रिधा कृत्वा भागं चोत्तरतस्त्यजेत् ।। ६

एवं दक्षिणतस्त्यक्त्वा ब्रह्मस्वानं प्रकल्पयेत् । 
भागार्थेन तु यल्लिङ्ग कार्य तदिह शस्यते ॥ ७

मन्दिरके प्रमाणके अनुसार ही शिवलिङ्गका प्रमाण बतलाया गया है। अथवा शिवलिङ्गके प्रमाणानुसार शिव मन्दिरका निर्माण शुभ जानना चाहिये। सर्वप्रथम चौकोर एवं समतल गर्तमें ब्रह्मसूत्र गिराना चाहिये। ब्रह्मसूत्रकी बायों ओर अर्चा या लिङ्गको स्थापना करनी चाहिये। वहाँ पूर्वोत्तर या दक्षिणपूर्वकी ओर पूर्वद्वार बनाना चाहिये। वह द्वार कुछ दक्षिणाश्रित या ईशानमें लीन रहना चाहिये। पूर्वका यह द्वार माहेन्द्रद्वार कहलाता है। प्रथमतः पूर्वद्वारको इक्कीस भागोंमें विभक्तककर मध्य भागमें ब्रह्मसूत्रको कल्पना करनी चाहिये। इसके अर्थभागको तीन भागोंमें विभक्तकर उत्तरकी और तथा दक्षिणकी और एक-एक भाग छोड़कर ब्रह्मस्थानकी कल्पना करनी चाहिये। उस अर्थभागमें लिङ्गकी स्थापना प्रशस्त मानी गयी है। उसे पाँच भागोंमें विभक्त कर उनमें तीन भागोंको ज्यो कहा जाता है। भीतरी मानको नी भागोंमें विभक्त कर उसके पञ्चम भागको मध्यम कहते हैं। गर्भके एक ही भागको नौ भागमें विभक्तकर उनमें लिङ्गोंको स्थापित करे। इसी समसूत्रवाले गर्भ-भागको नौ भागमें विभक्त करे। उनमें आधा ज्येष्ठ, आधा कनिष्ठ और मध्यभाग मध्यम कहलाता है। इस प्रकार गर्भको तीन भागोंमें विभक्त करना चाहिये। फिर उनमें तीन ज्येष्ठ, तीन मध्यम और तीन कनिष्ठ भेद होते हैं, जिससे लिङ्गकि कुल नौ भेद होते हैं ॥२-११॥

पञ्चभागविभक्तेषु त्रिभागो ज्येष्ठ उच्यते ।
भाजिते नवधा गर्ने मध्यमं पाञ्चभागिकम् ॥ ८

एकस्मिन्नेव नवधा गर्ने लिङ्गानि कारयेत्। 
समसूत्रं विभज्याथ नवधा गर्भभाजितम् ॥ ९

ज्येष्ठमर्थ कनीयोऽर्थ तथा मध्यममध्यमम् । 
एवं गर्भः समाख्यातस्त्रिभिर्भागैर्विभाजयेत् ॥ १० 

ज्येष्ठं तु त्रिविधं ज्ञेयं मध्यमं त्रिविधं तथा। 
कनीयस्त्रिविधं तद्वल्लिङ्गभेदा नवैव तु ॥११

नाभ्यर्थमष्टभागेन विभज्याथ समं बुधैः।
भागत्रयं परित्यज्य विष्कम्भं चतुरस्रकम् ॥ १२

अष्टास्रं मध्यमं ज्ञेयं भागं लिङ्गस्य वै ध्रुवम्। 
विकीर्णे चेत् ततो गृह्य कोणाभ्यां लाञ्छयेद् बुधः ।। १३

अष्टास्त्रं कारयेत् तद्वदूर्ध्वमप्येवमेव तु।
षोडशास्त्रीकृतं पश्चाद् वर्तुलं कारयेत् ततः ॥ १४

आयामं तस्य देवस्य नाभ्यां वै कुण्डलीकृतम्।
माहेश्वरं त्रिधार्ग तु ऊर्ध्ववृत्तं त्ववस्थितम् ॥ १५

अधस्ताद् ब्रह्मभागस्तु चतुरस्रो विधीयते। 
अष्टाग्रो वैष्णवो भागो मध्यस्तस्य उदाहृतः ॥ १६

एवं प्रमाणसंयुक्तं लिङ्गं वृद्धिप्रदं भवेत्। 
तथान्यदपि वक्ष्यामि गर्भमार्न प्रमाणतः ॥ १७

गर्भमानप्रमाणेन यल्लिङ्गमुचितं भवेत्।
चतुर्धा तद् विभज्याश्च विष्कम्भं तु प्रकल्पयेत् ॥ १८

देवतायतनं सूत्रं भागत्रयविकल्पितम् ।
अधस्ताच्चतुरस्रं तु अष्टात्रं मध्यभागतः ॥ १९

पूज्यभागस्ततोऽर्थ तु नाभिभागस्तथोच्यते।
आयामे यद् भवेत् सूत्रं नाहस्य चतुररुखके ॥ २०

चतुरस्त्रं परित्यज्य अष्टास्त्रस्य तु यद् भवेत्।
तस्याप्यर्थं परित्यज्य ततो वृत्तं तु कारयेत् ॥ २१ 

बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि नाभिके आधे भागके बराबर आठ भाग करे, फिर उनमें तीन भागोंको छोड़कर चौकोर विष्कम्भ बनाये। लिङ्गके मध्यभागमें आठ कोण रहना चाहिये। तदनन्तर बुद्धिमानोंको बचे हुए भागको दो कोणोंसे लाञ्छित करना चाहिये। उसी प्रकार ऊपरका भाग भी आठ कोणोंवाला बनाये। सोलह कोणोंवाले भागको गोलाकारमें परिणत उस देवताकी नाभिमें लम्बाई कुण्डलीकृत माहेश्वर भागका होगी। लिङ्गमें भाग ऊर्ध्व-वृत्तरूपसे स्थित त्रिभाग होगा। उसके नीचे बहाभाग होगा, जो चौकोर बनाया जाता है। मध्यभाग, जो आठ कोणोंवाला होता है, वैष्णवभाग कहा जाता है। इन प्रमाणोंसे निर्मित लिङ्ग समृद्धि देनेवाला होता है। अब गर्भामानके प्रमाणसे बननेवाले लिङ्गका वर्णन कर रहा हूँ। जो लिङ्ग गर्भमानके प्रमाणसे निर्मित होता है, वह उचित होता है। उसे चार भागों में विभककर विष्कम्भको कल्पना करे। देवायतनको सूत्रद्वारा नापकर उसे तीन भागोंमें विभक्त करे। जिसमें नीचेका भाग चार कोणवाला और मध्यभाग आठ कोणवाला हो। इसके ऊपर पूज्यभाग और नाभिभाग कहा जाता है। लम्बाईका विस्तार चौकोर प्रमाणका होना चाहिये। उस चौकोर भागको छोड़कर आठ कोणवाला जो भाग हो, उसके आधे भागको छोड़कर वृत्ताकार बनाना चाहिये ॥ १२-२१॥

शिरः प्रदक्षिणं तस्य संक्षिप्तं मूलतो न्यसेत् ।
भ्रष्ठपूर्ण भवेल्लिङ्गमधस्ताद् विपुलं च यत् ॥ २२

शिरसा च सदा निम्नं मनोज्ञं लक्षणान्वितम् । 
सौम्यं तु दृश्यते यत्तु लिङ्गं तद् वृद्धिदं भवेत् ॥ २३

अथ मूले च मध्ये तु प्रमाणे सर्वतः समम्। 
एवंविधं तु यल्लिङ्ग भवेत् तत् सार्वकामिकम् ॥ २४ 

अन्यथा यद् भवेल्लिङ्ग तदसत् सम्प्रचक्षते। 
एवं रत्नमयं कुर्यात् स्फाटिकं पार्थिवं तथा। 
शुभं दारुमयं चापि यद् वा मनसि रोचते ॥ २५ 

उसके मङ्गलमय सिरको मूलदेशसे बिलकुल सीधे रूपमें स्थापित करे। जिस लिङ्गके नीचेका भाग बहुत चौड़ा होता है, वह पूजनीय नहीं रह जाता। जी लिङ्ग सिरकी ओरसे सदा निम्न, मनोहर, उत्तम लक्षणोंसे युक्त तथा सौम्य दिखायी पड़ता है, वह समृद्धिको देनेवाला होता है। जो लिङ्ग मूल तथा मध्यभागमें एक समान रहता है. वह सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला होता है। जो लिङ्ग इन उपर्युक्त लक्षणोंसे भिन्न होते हैं, वे असत् कहे जाते हैं अर्थात् वे अपूजनीय लिङ्ग हैं। इस प्रकार ऊपर बताये गये प्रमाणोंक अनुसार रत्न, स्फटिक, मिट्टी अथवा शुभ काष्ठका लिङ्ग अपनी रुचिके अनुकूल स्थापित करना चाहिये ॥ २२-२५ ॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे देवतार्थानुकीर्तनं नाम त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६३॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें देवतार्थानुकीर्तन नामक दो सौ तिरसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २६३॥

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