बालकाण्ड श्लोक {४३ से ४९} हिंदी अर्थ सहित

बालकाण्ड  श्लोक  {४३ से ४९}  हिंदी अर्थ सहित  Balkand verses {43 to 48} with Hindi meaning

श्लोक 
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए।।
 कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ।। ४३
अर्थ 
यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें धर्म और नैतिकता के बारे में बताया गया है।
भलेउ - अच्छा
पोच - प्रबलता
सब - सभी
बिधि - तरीका
उपजाए - उत्पन्न होती हैं
गनि - जो
गुन - गुण
दोष - दोष
बेद - वेद
बिलगाए - अलग कर देते हैं
कहहिं - कहते हैं
बेद - वेद
इतिहास - इतिहास
पुराना - पुराना
बिधि - तरीका
प्रपंचु - प्रपंच (संसार)
गुन - गुण
अवगुन - अवगुण
साना - समझाता है।
इस दोहे में कहा गया है कि सभी तरीके से गुणों और दोषों की प्रबलता वेदों में बताई गई है। वेदों में बताए गए तरीके से प्रपंच गुणों और अवगुणों को समझता है।
इस दोहे में कहा गया है कि बहुत से तरीके हैं जिनसे लोग धर्म और नैतिकता की अध्ययन कर सकते हैं, लेकिन गुणों और दोषों को समझने के लिए अद्भुत विचार और समझ चाहिए। वेदों और इतिहास के ज्ञान से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, लेकिन अच्छे और बुरे कार्यों को समझने में भी समय लगता है। एक व्यक्ति को साहस, समझ, और अनुभव की आवश्यकता होती है ताकि वह समझ सके कि कौनसे कार्य उसके लिए अच्छे हैं और कौनसे नहीं।
यह दोहा हमें बताता है कि केवल धर्म और नैतिकता के पाठ से ही नहीं, बल्कि अच्छे और बुरे कार्यों को समझने के लिए भी संदर्भ, समय, और समझ की आवश्यकता होती है।

श्लोक 
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती ।। 
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।। ४४
अर्थ 
यह दोहे भगवान श्रीरामचंद्र जी के जीवन और उनके धर्मिक तत्वों को दर्शाते हैं। इन्हें रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखा गया एक महाकाव्य है।
दुख - दुःख
सुख - सुख
पाप - पाप
पुण्य - पुण्य
दिन - दिन
राती - रात
साधु - साधु
असाधु - असाधु
सुजाति - अच्छी जाति
कुजाती - बुरी जाति
दानव - राक्षस
देव - देवता
ऊँच - उच्च
अरु - और
नीचू - नीचा
अमिअ - अमृत
सुजीवनु - अच्छे जीवन
माहुरु - मानते हैं
मीचू - मीठा
ये दोहे बताते हैं कि जीवन में हमें दुःख-सुख, पाप-पुण्य, साधु-असाधु, ऊँचा-नीचा आदि सभी विपरीत प्रकार के अनुभव होते रहते हैं। हमें इन्हें समान दृष्टि से देखना चाहिए। भगवान राम के जीवन में भी उन्होंने इन सभी प्रकार के अनुभवों को स्वीकार किया और धर्म के माध्यम से सभी को समान दृष्टि से देखा।
उनका संदेश है कि हमें सभी को समान भाव से देखना चाहिए, चाहे वो दानव हों या देव। इसी तरह हमें सभी को समानता से स्वीकार करना चाहिए।
श्लोक 
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।। 
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा।।
 सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा।। ४५ 
अर्थ 
यह दोहे भी गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित "रामचरितमानस" से लिए गए हैं। इनमें भी दिव्य तत्वों का वर्णन किया गया है।
माया - अनिष्ट, मिथ्या
ब्रह्म - परमात्मा
जीव - अनुभवकर्ता
जगदीसा - जगत का स्वामी
लच्छि - प्रकट
अलच्छि - अप्रकट
रंक - देह
अवनीसा - पदार्थों की सृष्टि करने वाला
कासी - वाराणसी
मग - भूमि
सुरसरि - स्वर्ग
क्रमनासा - घातक
मरु - जंगल
मारव - मारुदेश (राजस्थान)
महिदेव - हिमालय
गवासा - स्थान
सरग - स्वर्ग
नरक - नरक
अनुराग - प्रेम
बिरागा - वैराग्य
निगमागम - वेदान्त
गुन - गुण
दोष - दोष
बिभागा - विभाजित
"माया ब्रह्म जीव जगदीसा" यहां पर माया (अज्ञान) का उल्लेख है, जो कि ब्रह्म (परमात्मा) और जीव (आत्मा) के बीच का अंतर बताता है। यहां तक कि संसार (जगदीसा) भी माया के अधीन होता है।
"लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा" यह वाक्य माया के अनेक रूपों को दर्शाता है, जो कई बार वास्तविकता से भिन्न और असत्य साबित होती है।
"कासी मग सुरसरि क्रमनासा, मरु मारव महिदेव गवासा" यह वाक्य भारतीय सांस्कृतिक स्थलों का उल्लेख करता है, जैसे काशी, मथुरा, मरुदेव (राजस्थान), गवांदेव (गोकुल)। यहां पर विभिन्न धार्मिक स्थलों के महत्त्व को बताया गया है।
"सरग नरक अनुराग बिरागा, निगमागम गुन दोष बिभागा" यह वाक्य भाग्य और अनुभवों के विविधता को दर्शाता है, जैसे स्वर्ग, नरक, आसक्ति, और वैराग्य के अनुभव। यहां पर धर्मग्रंथों की महत्ता को भी बताया गया है।
ये दोहे जीवन के विभिन्न पहलुओं और धार्मिक सिद्धांतों को समझाते हैं, और इससे हमें उन्हें समझने और अपने जीवन में उनका अनुपालन करने की महत्ता समझने में मदद मिलती है।
श्लोक 
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
 संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ।।  ४६ ।।
अर्थ 
यह दोहा भी गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस से लिए गए हैं। इस दोहे में व्यक्त किया गया है कि इस संसार में जड़ और चेतन, गुण और दोष, सभी ब्रह्म के कार्य हैं।
जड़ - जड़ता
चेतन - चेतना
गुण - गुण
दोषमय - दोषों से भरा
बिस्व - जगत्
कीन्ह - किया
करतार - सृष्टिकर्ता
संत - संत
हंस - हंस
गुन - गुण
गहहिं - ग्रहण करते हैं
पय - पानी
परिहरि - छोड़ देते हैं
बारि - अपनी
बिकार - दोष
इस दोहे में बताया गया है कि जगत् जड़ता और चेतना से भरा है, जबकि संत पानी की तरह गुणों को ग्रहण करते हैं और अपने दोषों को छोड़ देते हैं।
"जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार" - यहां बताया गया है कि यह सृष्टि जड़-चेतन, गुण-दोष से भरी हुई है और इसका कारण ब्रह्म (परमात्मा) है, जो इस सम्पूर्ण सृष्टि का कारण है।
"संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार" - इस वाक्य में कहा गया है कि संत जो साधु-महात्मा होते हैं, वे गुणों को ही प्राप्त करते हैं और दोषों को त्याग देते हैं। उन्हें बार-बार भ्रमने का कोई आवागमन नहीं होता।
यह दोहा बताता है कि संतों को गुणों को ग्रहण करना चाहिए और बार-बार दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए। इससे हमें जीवन में सही और उचित मार्ग पर चलने में सहायता मिलती है।
श्लोक 
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ।।
 काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं।।  ४७
अर्थ 
यह दोहे भी गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस से लिए गए हैं। इनमें जीवन में विवेकपूर्ण निर्णय लेने और कार्य करने की महत्ता को बताया गया है।
अस - जब
बिबेक - विवेक
जब - जब
देइ - देता है
बिधाता - सृष्टिकर्ता
तब - तब
तजि - त्याग देता है
दोष - दोष
गुनहिं - गुणों को
मनु - मन
राता - राजी होता है
काल - समय
सुभाउ - समझाना
करम - कर्म
बरिआईं - व्यवस्था करता है
भलेउ - भलाई
प्रकृति - प्राकृतिक
बस - बसा
चुकइ - छिपा लेती है
भलाईं - भलाई
इस दोहे में विवेकपूर्ण विचार करने पर मनुष्य अपने दोषों को छोड़कर गुणों को अपने मन में राजी कर लेता है और समय, कर्म और प्राकृतिक व्यवस्था के द्वारा भलाई को प्रकट करता है।
"अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता" - यहां कहा गया है कि जब हमें विवेक (बुद्धि) प्राप्त होता है, तो हमें गुणों को पहचानना चाहिए और दोषों को त्याग देना चाहिए।
"काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं" - इस वाक्य में कहा गया है कि समय का सदुपयोग करके अच्छे कर्म करना चाहिए। अच्छे कर्म करने से हमारी प्रकृति (स्वभाव) भली बन जाती है और हमारा जीवन भी भला होता है।
यह दोहा हमें बताता है कि हमें समय पर बुद्धिमानी से कार्य करना चाहिए, गुणों को अपनाना और दोषों को छोड़ना चाहिए। साथ ही, अच्छे कर्मों का प्रयास करना चाहिए ताकि हमारी प्रकृति में सुधार और समृद्धि आ सके।
श्लोक 
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं।। 
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ।। ४८
अर्थ 
यह दोहे भगवान श्रीरामचंद्र जी के धर्म और नैतिकता को बताते हैं। इन्हें गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में शामिल किया है।
सो - वह
सुधारि - सुधारता
हरिजन - भगवान के भक्त
जिमि - जैसे
लेहीं - लेता है
दलि - दिल
दुख - दुःख
दोष - दोष
बिमल - शुद्ध
जसु - जैसा
देहीं - देता है
खलउ - दुष्ट
करहिं - करते हैं
भल - भलाई
पाइ - प्राप्त होती है
सुसंगू - साथी
मिटइ - मिटते हैं
न - नहीं
मलिन - मलिनता
सुभाउ - समझाना
अभंगू - विचलित नहीं होता
इस दोहे में यह कहा गया है कि भगवान के भक्त दिल से अपने दुःख और दोषों को हर लेते हैं और दुष्ट लोग भलाई को प्राप्त करते हैं, साथ ही समझ में आने वाला विचलित नहीं होता।
"सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं" - यह वाक्य बताता है कि जैसे हरिजन (भगवान) सबको सुधारते हैं, वैसे ही एक व्यक्ति जिसे दूसरों की दुःख-दोषों को समझने की शक्ति होती है, वही वास्तविक रूप में पवित्र होता है।
"खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू" - यह वाक्य बताता है कि एक व्यक्ति बुराई का सामना करते समय भी अच्छाई को बरकरार रखे, तो उसकी शक्ति और स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता।
यह दोहे हमें यह सिखाते हैं कि हमें दूसरों की मदद करने और उनकी समस्याओं को समझने की क्षमता बढ़ानी चाहिए, साथ ही अपनी नैतिकता को बरकरार रखना चाहिए।आप लोग हमारे वेबसाइट पर आनी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आपको अगर हमारी पोस्ट अच्छी लगती है अधिक से अधिक लोगों तक फेसबुक व्हाट्सएप इत्यादि पर शेयर अवश्य करें और कमेंट कर हमें बताएं कि आपको इस तरह की जानकारी चाहिए जो हिंदू धर्म से हो

टिप्पणियाँ