भगवान शिव और देवी सती के पर्वत गमन का वर्णन

भगवान शिव और देवी सती के पर्वत गमन का वर्णन

कथा हिन्दू धर्म के पुराणों में सुनी जाती है और इसमें भगवान शिव और देवी सती के पर्वत गमन का वर्णन है। यह एक पौराणिक कथा है जो शिव पुराण, विष्णु पुराण आदि में मिलती है।इस कथा में, देवी सती ने अपनी इच्छा प्रकट की कि वह और भगवान शिव हिमालय या कैलाश पर्वत पर रहना चाहते हैं। भगवान शिव ने उसे अपनी आज्ञा का आदान-प्रदान किया और उन्होंने साथ में हिमालय पर्वत की ओर यात्रा की। यहां वे विविध विहारों में बिताए और फिर अपने निवास स्थान पर लौटे।

 Description of the mountain journey of Lord Shiva and Goddess Sati

कैलाश पर्वत पर श्रीशिव और दक्ष कन्या सती के विविध विहारों का विस्तार से वर्णन करने के बाद ब्रह्माजी ने कहा- नारद! एक दिन की बात है कि देवी सती भगवान शिव को प्रेमपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। उन्हें चुपचाप खड़े देखकर भगवान शिव समझ गए कि देवी सती के मन में कुछ बात अवश्य है, जिसे वह कहना चाह रही है। तब उन्होंने मुस्कुराकर देवी सती से पूछा कि हे प्राणवत्सला! कहिए आप क्या कहना चाहती है? यह सुनकर देवी सती बोलीं हे भगवन्! वर्षा ऋतु आ गई है। चारों ओर का वातावरण सुंदर व मनोहारी हो गया है। हे देवाधिदेव ! में चाहती हूं कि कुछ समय हम कैलाश पर्वत से दूर पृथ्वी पर या हिमालय पर्वत पर जाकर रहें। वर्षा काल के लिए हम किसी योग्य स्थान पर चले जाएं और कुछ समय वहीं निवास करें। देवी सती की यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव हंसने लगे। हंसते हुए ही उन्होंने अपनी पत्नी सती से कहा कि प्रिये! जहां पर में निवास करता हूँ, वहां पर मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई भी आ-जा नहीं सकता है। मेघ भी मेरी आज्ञा के बिना कैलाश पर्वत की ओर कभी नहीं आएंगे। वर्षा काल में भी मेघ सिर्फ नीचे की ओर ही घूमकर चले जाएंगे। हे प्रिये! तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर सकता। फिर भी यदि आप चाहती है तो हम हिमालय पर्वत पर चलते हैं। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी सती के साथ हिमालय पर चले गए। कुछ समय वहां प्रसन्नतापूर्वक विहार करने के पश्चात वे पुनः अपने निवास पर लोट आए।
इस प्रकार के कथाएं हमें धार्मिकता और भक्ति की भावना से भर देती हैं, साथ ही सामाजिक एकता और प्रेम का महत्व भी सिखाती हैं। भगवान शिव और देवी सती की इस कथा से हमें यह सिखने को मिलता है कि सामंजस्य, प्रेम, और आपसी समर्थन से ही सुख और शांति प्राप्त हो सकती है।

श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड बाईसवां अध्याय समाप्त

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