संत कबीर दास जी के दोहे 250 तक और जीवनी परिचय,Saint Kabir Das ji's couplets up to 250 and biographical introduction

संत कबीर दास जी के दोहे 250 तक और जीवनी परिचय

संत कबीर दास जी जीवनी परिचय

कबीर दास भारत के महान कवि और समाज सुधारक थे। वे हिन्दी साहित्य के विद्दान थे। कबीर दास के नाम का अर्थ महानता से है अर्थात वे भारत के महानतम कवियों में से एक थे।जब भी भारत में धर्म, भाषा, संस्कृति की चर्चा होती है तो कबीर दास जी का नाम का जिक्र सबसे पहले होता है क्योंकि कबीर दास जी ने अपने दोहों के माध्यम से भारतीय संस्कृति को दर्शाया है
Saint Kabir Das ji's couplets up to 250 and biographical introduction

संत कबीर दास जीवनी परिचय
  • नाम – संत कबीरदास (Kabir Das)
  • जन्म – 1398
  • जन्म स्थान – लहरतारा ताल, काशी
  • मृत्यु – 1518
  • मृत्यु स्थान – मगहर, उत्तर प्रदेश
  • माता का नाम – नीमा
  • पिता का नाम – नीरू
  • पत्नी का नाम – लोई
  • पुत्र का नाम – कमाल
  • पुत्री का नाम – कमाली
  • कर्म भूमि – काशी, बनारस
  • कार्य क्षेत्र – समाज सुधारक, कवि, सूत काटकर कपड़ा बनाना
  • मुख्य रचनाएं – साखी, सबद, रमैनी
  • भाषा – अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
  • शिक्षा – निरक्षर
  • नागरिकता – भारतीय

संत कबीर दास जी के दोहे 203 से 250 तक

तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । 
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ 

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । 
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ 

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ 

दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । 
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ 

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सीचें सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥ 207 ॥ 

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । 
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ 

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ 

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । 
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंड़ित होय ॥ 20 ॥ 

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । 
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 2 ॥ 

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजों पहार । 
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 22 ॥ 
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पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । 
अब के बिछूड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 23 ॥ 

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । 
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 24 ॥ 

बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । 
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 25 ॥ 

बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । 
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 26 ॥ 

बाहर क्‍या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । 
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 27 ॥ 

बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । 
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 28 ॥ 

बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । 
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 29 ॥ 

मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । 
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ 

माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । 
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 22 ॥ 

भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ 

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भागत के पीछे लगे, सन्‍्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ 

मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । 
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ 

माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । 
'फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ 

मैं रोऊँ सब जगत्‌ को, मोको रोवे न कोय । 
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ 

ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । 
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ 

या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । 
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ 

राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । 
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ 

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ 

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । 
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 234 ॥ 

संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । 
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ 

साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । 
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ 

साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । 
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ 

संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । 
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ 

साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । 
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ 

लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । 
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ 

हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । 
सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ 

ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । 
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ 

ऋद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । 
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहूँ देह ॥ 240 ॥ 

क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । 
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 24 ॥ 

राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । 
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ 

बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । 
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ 

ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । 
दुन्यू बूढ़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ 

सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्या कर संग । 
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ 

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । 
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ 

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । 
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ 

तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । 
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ 

राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । 
बेस्या केरा पूत॑ ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ 

कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । 
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥

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