कबीर दास जी के दोहा 52 से 100 तक कबीर दास का जीवन परिचय, Kabir Das Ji's Dohas from 52 to 100 Biography of Kabir Das

कबीर दास जी के दोहा 52 से 100 तक कबीर दास का जीवन परिचय

कबीर दास का जीवन परिचय

संत कबीर का जन्म सन 1398 ईसवी में एक जुलाहा परिवार में हुआ था उनके पिता का नाम नीरू एवं माता का नाम नीमा था। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे ,जिसने लोक लाज के डर से जन्म देते ही कबीर को त्याग दिया था। नीरू और नीमा को कबीर पड़े हुए मिले और उन्होंने कबीर का पालन-पोषण किया।
  • कबीर ने कौन सी भाषा लिखी थी?
कबीर की रचनाएँ मुख्यतः हिन्दी भाषा में लिखी गईं। 15वीं शताब्दी में, जब फ़ारसी और संस्कृत प्रमुख उत्तर भारतीय भाषाएँ थीं, उन्होंने बोलचाल की, क्षेत्रीय भाषा में लिखना चुना। उनकी कविता हिंदी, खड़ी बोली, पंजाबी, भोजपुरी, उर्दू, फ़ारसी और मारवाड़ी का मिश्रण है।
Kabir Das Ji's Dohas from 52 to 100 Biography of Kabir Das

कबीर दास जी के दोहा 52 से 100 तक

दोहा
हंसा मोती विण्न्या, कुड्च्न थार भराय । 
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ 

कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । 
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ 

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । 
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ 

कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । 
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ 

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । 
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ 

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । 
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । 
सार-सार को गहि रहे, थोथ दे उड़ाय ॥ 58 ॥ 

लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । 
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ 

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । 
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ 

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 6 ॥ 

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । 
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ 

मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । 
तुम दाता दुःख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । 
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ 

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । 
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ 

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ 

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । 
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ 

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । 
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ 

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । 
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ 

जा करण जग ढूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । 
परदा दिया भरम॑ का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ 

जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । 
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ 

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । 
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ 

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । 
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ 

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । 
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ 

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । 
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ 

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । 
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ 

बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । 
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ 

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ 

'फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्‍त असन्त । 
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ 

दाया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद । 
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ 

दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । 
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 84 ॥ 

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । 
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥ 

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । 
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ 

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । 
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ 

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । 
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ 

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय । 
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ 

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । 
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ 

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । 
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ 

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । 
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ 

जब ही नाम हृदय धरयो, भयो पाप का नाश । 
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥ 

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । 
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 94 ॥ 

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । 
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥ 

बाहर क्‍या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम । 
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥ 

'फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम । 
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥ 

तेरा साँई तुझमें, ज्यों है पन में बास । 
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास ॥ 95 ॥ 

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव । 
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥ 

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । 
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥ 

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । 
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुंगगन समाय ॥ 98 ॥ 

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय । 
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ 

कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय । 
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 00 ॥ 
  • कबीर की माता का नाम क्या था
पिता का नाम चन्दन साहु तथा माता का नाम ऊदा हुआ। चन्दनवारे में भी कबीर एक सरोवर में कमल पत्र पर बालक के रूप में आठों प्रहर विराजमान रहे । एक दिन ऊदा स्नान करने आई और बालक (कबीर) के सुन्दर रूप को देखकर आकर्षित हो गई और उन्हें अपने घर ले गईं तथा पति चन्दन साहु से सारी कथा कह दी ।

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