कबीर दास जी के 300 तक दोहे और कबीर का अर्थ क्या है,Kabir Das ji's 300 couplets, what is the meaning of Kabir?

कबीर दास जी के 300 तक दोहे कबीर का अर्थ क्या है

कबीर का अर्थ क्या है

अर्थ: महान, शानदार; ताकतवर; नेता । कबीर अरबी मूल के एक लड़के का नाम है जिसकी सरल शैली एक छिपी हुई श्रेष्ठता को प्रकट करती है। अरबी शब्द कबीर से आया है, इसका अर्थ "महान," "शानदार," "शक्तिशाली," और "नेता" हो सकता है। इससे आपके नन्हे-मुन्नों को भविष्य में कार्यभार संभालने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन मिल सकता है।
  • कबीर की भाषा शैली क्या है
कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया–बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर।

कबीर दास जी के 250 से 300 तक दोहे

कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । 
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 25 ॥ 

लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । 
कह संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ 

बिरह-भुवगम तन बसे मंत्र न लागै कोइ । 
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ 

यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । 
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ 

अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । 
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ 

इस तन का दीवा करी, बाती मेल्यूं जीवउं । 
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउ ॥ 256 ॥ 

अंपषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि । 
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥ 

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त । 
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥ 

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ । 
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥ 

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । 
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥ 

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे । 
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 26 ॥ 

परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोड । 
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥ 

पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ । 
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥ 

हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान । 
काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥ 

जा कारणि में ढूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । 
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ 

पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । 
आउहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥ 

दीठा है तो कस कहूं, कह्या न को पतियाइ । 
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥ 

भारी कहीं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ । 
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ 

कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ । 
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥ 

कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ । 
नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥ 

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं । 
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 27 ॥ 

कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत । 
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥ 

जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव । 
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥ 

पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत । 
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥ 

कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि । 
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ 

भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरे स्वादि । 
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥ 

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि । 
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥ 

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । 
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥ 

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना । 
ताथै संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥ 

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद । 
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥ 

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ । 
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥ 

स्वामी हवा सीतका, पैलाकार पचास । 
राम-नाम काठें रह्मया, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥ 

इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम । 
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥ 

ब्राह्मण गुरु जगत्‌ का, साधू का गुरु नाहिं । 
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥ 

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ । 
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होड़ ॥ 295 ॥ 

कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । 
दैँहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ 

कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । 
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ 

तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी नहाइ । 
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ 

चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । 
फिरि प्रमोधे आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ 

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं प्रंम । 
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥

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