50 दोहे कबीर दास के और कबीर का देश के लिए योगदान,50 couplets of Kabir Das and Kabir's contribution to the country
50 दोहे कबीर दास के और कबीर का देश के लिए योगदान
कबीर का देश के लिए योगदान
संत कबीर ने मध्यकालीन भारत में भक्ति और सूफी आंदोलनों का नेतृत्व किया। कवि का जीवन चक्र काशी क्षेत्र पर केंद्रित है, जो जुलाहा जाति से संबंधित है। हालाँकि, भक्ति आंदोलन में उनका योगदान देश के कर्मकांड और तपस्वी तरीकों पर सख्ती से आपत्ति जताता है। अच्छाई और समृद्धि के बारे में उनकी कही बातों ने लोगों को यह अहसास कराया कि अच्छाई की नजर में हर कोई बराबर है। उन्होंने कभी किसी के बीच भेदभाव नहीं किया, चाहे वह व्यक्ति नीची जाति का हो, वेश्या या उच्च जाति का। संत अहिंसा के प्रवर्तक और अनुयायी थे, उन्होंने अपने आंदोलन और दोहों के माध्यम से लोगों का मन बदल दिया। हालाँकि कई ब्राह्मणों ने उनके कार्यों के लिए उनकी आलोचना की, लेकिन उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय, उन्होंने हमेशा प्रेम, शांति और समृद्धि का मार्ग अपनाया जिससे दुनिया में बदलाव आया।
50 दोहे कबीर दास के 701 से 750 तक
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 701 ॥
दोहे
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 702 ॥
दोहे
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 703 ॥
दोहे
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 704॥
दोहे
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सनन््तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 705 ॥
दोहे
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 706॥
दोहे
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरनत ॥ 707 ॥
दोहे
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 708 ॥
दोहे
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 709॥
दोहे
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्वि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 710॥
दोहे
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 711॥
दोहे
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 712 ॥
दोहे
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 713 ॥
दोहे
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 714॥
दोहे
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 715॥
दोहे
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न््यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 716 ॥
दोहे
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 717॥
दोहे
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 718 ॥
दोहे
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़े सकै, निज मन समझो आय ॥ 719 ॥
दोहे
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 720 ॥
दोहे
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 721 ॥
दोहे
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 722 ॥
दोहे
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 723 ॥
दोहे
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 724॥
दोहे
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 725 ॥
दोहे
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 726 ॥
दोहे
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 727 ॥
दोहे
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 728 ॥
दोहे
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 729 ॥
दोहे
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 730 ॥
दोहे
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 731 ॥
दोहे
देखा देखी भक्ति का, कबहूँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 732 ॥
दोहे
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 733॥
दोहे
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 734 ॥
दोहे
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरें, लेते गये अऊत ॥ 735 ॥
दोहे
निर्षक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्ंद्वी की भक्ति है, नि्लोभी निर्बान ॥ 736 ॥
दोहे
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 737 ॥
दोहे
खेत बिगारेडउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 738 ॥
दोहे
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 739 ॥
दोहे
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 740 ॥
दोहे
भकक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 741 ॥
दोहे
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 742 ॥
दोहे
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 743॥
दोहे
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 744॥
दोहे
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 745 ॥
दोहे
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 746॥
दोहे
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 747॥
दोहे
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंड लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 748 ॥
दोहे
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 749 ॥
दोहे
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 750 ॥
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