गणेश पूजा विधि मंत्र सहित और भगवान गणपति के द्वादश नाम के रहस्य
गणेश जी का मंत्र
भगवान गणपति के सच्चे मन और श्रद्धा से इस मंत्र का जाप करने से कार्य में आने वाली बाधाएं दूर होती है.
मंत्र-
गजाननाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
श्री वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटी समप्रभा निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व-कार्येशु सर्वदा॥
अपना मुख पूर्व दिशा की ओर करके बैठ जाएं और इसके बाद 7 से 21 बार इस मंत्र का जाप करें.
गणेश जी के कुछ और मंत्र ये हैं
- वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
- ऊँ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥
- ॐ गं गणपतये नमः
- ॐ गणेश ऋणं छिन्धि वरेण्यं हुं नमः फट ||
- ॐ श्रीं गं सौभ्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा
- गणपतिर्विघ्नराजो लम्बतुण्डो गजाननः। द्वैमातुरश्च हेरम्ब एकदन्तो गणाधिपः॥
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Ganesh puja method including mantra and secret of twelve names of Lord Ganapati |
गणेश जी की पूजा विधि
- सुबह स्नान करने के बाद व्रत का संकल्प लें.
- भगवान गणेश को प्रणाम करें और तीन बार आचमन करें.
- उन्हें वस्त्र, जनेऊ, चंदन, दूर्वा, अक्षत, धूप, दीप, शमी पत्ता, पीले पुष्प और फल चढ़ाएं.
- पूजन आरंभ करें.
- माथे पर तिलक लगाएं,मूर्ति स्थापित करने के बाद गणेश जी को पंचामृत से स्नान कराएं.
- पूजन आरंभ करें.
- किसी चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर देवाधिदेव भगवान श्री गणेश की प्रतिमा स्थापित करें.
- गणेश जी का प्रिय लाल रंग का पुष्प, दूर्वा, फल, मोदक आदि चढ़ाएं.
- गणेश जी को तुलसी दल व तुलसी पत्र नहीं चढ़ाना चाहिए.
- गणेश जी को दूर्वा एक खास तरीके से चढ़ाई जाती है. 22 दूर्वा को एक साथ जोड़ने पर दूर्वा के 11 जोड़े तैयार हो जाते हैं. इन 11 जोड़ों को गणेशजी के चरणों में चढ़ाना चाहिए.
भगवान गणपति के द्वादश नाम के रहस्य
सनातन धर्म में कोई भी मंगल कार्य श्री गणेश जी की आराधना से ही आरम्भ होता है कार्य में सफलता की कामना से आरम्भ में ही श्री गणेश के द्वादश नामों का संकीर्तन किया जाता है। विध्याध्यन आरम्भ करते समय, विवाह के समय, नगर अथवा नवनिर्मित भवन में प्रवेश करते समय, यात्रा आदि में कहीं बाहर जाते समय संग्राम के अवसर पर अथवा किसी भी प्रकार की विपत्ति आने पर यदि साधक श्री गणेश जी के बारह नामों का स्मरण करता है उसके उद्देश्य और मार्ग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आता। श्री गणेश जी के ये बारह नाम हैं-
- सुमुख,
- एकदन्त,
- कपिल,
- गजकर्ण,
- लम्बोदर,
- विकट,
- विघ्ननाशक,
- विनायक,
- धूम्रकेतु,
- गणाध्यक्ष,
- भाल चन्द्र और गजानन। इन नामों को श्लोक के रूप में इस तरह वर्णित किया गया है-
श्लोक -
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥
धूम्रकेतुः गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
सामान्य रूप से इन बारह नामों का अर्थ इस प्रकार है
- सुमुख अर्थात सुन्दर मुख वाले
- एकदन्त अर्थात एक दांत वाले
- कपिल यानी कपिल वर्ण के
- गजकर्ण अर्थात हाथी जैसे कान वाले
- लम्बोदर अर्थात लम्बे पेट वाले
- विकट यानी भयंकर
- विनायक अर्थात वशिष्ट नायकोचित गुण सम्पन्न
- धूम्रकेतु यानी धुँये के रंग की पताका वाले
- गणाध्यक्ष अर्थात गणों के अध्यक्ष
- भालचन्द्र अर्थात मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले और गजानन अर्थात हाथी के समान मुख वाले ।
द्वादश नाम के रहस्य
- सुमुख :-
आम लोगों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि हाथी की सूंड, छोटी-छोटी आँखे और सूप जैसे लम्बे कान वाले को सुमुख कैसे कहा जा सकता है वैसे जो चमड़े की सुन्दरता को ही महत्व देते हैं उनका ऐसा सोचना ठीक भी है किन्तु यदि गहराई से विचार किया जाय तो शारीरिक सुन्दरता से परे गुणो की महत्ता सर्वोपरि है। सनातन आर्य संस्कृति ने सदैव गुणों को ही अधिक महत्व दिया है। आध्यात्मिक दृष्टि से छोटी आँखें गम्भीरता की, लम्बी नाक बुद्धिमता की और दीर्घ कर्ण बहुलता के सूचक हैं। सामुद्रिक शास्त्र भी इसकी पुष्टि करता है। इस प्रकार सुमुख नाम श्री गणेश के गुणों के सुरूप ही है।
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- एकदन्त :-
श्री गणेश का दूसरा नाम एकदन्त है। श्री गणेश का एकदन्त होना इस बात का ज्ञान कराता है कि जीवन में सफल वही होता है जिसका लक्ष्य एक हो। दो वस्तुऐं हमेशा द्वैत की परिचायक होती हैं गणपति का एक दाँत टूटा तो वे अद्वैत के प्रतीक बन गये। यह एकदन्त का तात्विक पक्ष था जिसे जानकर यह जिज्ञासा जागृत होती है कि हाथी के समान मुख वाले श्री गणेश के दो दाँत थे तो एक दाँत टूटा कैसे ? इस सम्बन्ध में एक पौराणिक प्रसंग हैं एक बार भगवती पार्वती और शिव विहार कर रहे थे तो उन्होंने श्री गणेश को यह कहकर द्वार पर पहरे में खड़ा कर दिया कि किसी को भी भीतर न आने दें तभी सहसा परशुराम वहाँ आये और भीतर जाने के लिये हठ करने लगे। बात इतनी अधिक बढ़ गयी कि परशुराम को प्रहार करना पड़ा फलस्वरूप श्री गणेश का दाँत टूट गया। परशुराम ने जब अपने तीव्र धार वाले कुठार से श्री गणेश की भुजा पर प्रहार किया तो वह कुठार फिसलकर गणेश जी के दाँत पर में गिरा और प्रचण्ड ध्वनि के साथ श्री गणेश का दाँत टूटकर गिर गया। वह दाँत जब परशुराम को नष्ट करने के लिये चला तो शिवगणों ने उसे रोक लिया। उस समय दाँत की वक्रगति देखकर पृथ्वी कांप उठी, पशु चिग्घाड़ने लगे सर्वत्र भय व्याप्त हो गया देवगण भी हाहाकार करने लगे। अंत में भगदन्त श्री गणेश जी की देवताओं ने स्तुति की इस प्रकार उनका नाम एकदन्त पड़ा।
- कपिल :-
श्री गणेश के तीसरे नाम कपिल का यदि आकारान्त बना दिया जाय तो इसका रूप बनेगा 'कपिला' जिसका शाब्दिक अर्थ है गाय इससे स्पष्ट है कि गौ धूसर वर्ण की होती हुयी भी दूध, दही, घृत आदि पोषक पदार्थ तथा गोमय व गोमूत्र आदि रोग निवारक पदार्थ प्रदान कर मानव का हित साधन करती है उसी प्रकार कपिलवर्ण के श्री गणेश भी बुद्धि रूपी दधि, ज्ञानरूपी घृत तथा समुज्वल भावरूपी दुग्ध द्वारा मानव को पुष्ट बनाते हैं अथवा उसके बौद्धिक पक्ष को पुष्ट बनाने वाले पदार्थ प्रदान करते हैं और अमंगल नाश, विघ्नहरण और दिव्य पदार्थ प्रदान कर उसके त्रिविध तापों का शमन करते हैं।.
- गजकर्ण:-
आर्य संस्कृति में श्री गणेश को बुद्धि का अधिष्ठात्र देवता माना गया है श्री गणेश के लम्बे कान सब कुछ सुनने की क्षमता रखते हैं। शास्त्र हमें यह शिक्षा देते हैं कि सुननी सबकी बात चाहिये किन्तु कोई भी कार्य ऊँचे लोगों से विचार विमर्श के पश्चात् ही करना चाहिए यही सीख देने के लिये श्री गणेश जी ने हाथी के समान लम्बे कान धारण किये हैं। श्री गणेश के लम्बे कानों में यह रहस्य भी छिपा हुआ है कि छुद्र अर्थात छोटे कानों वाला व्यक्ति सदैव व्यर्थ की बातों को सुनकर अपना ही अहित करने लगता है। श्री गणेश के लम्बे कान यह शिक्षा भी देते हैं कि व्यक्ति को अपने कान ओछे न रखकर इतने विस्तृत बना लेने चाहिए कि उनमें सहस्त्रों निंदकों की सभी अच्छी बुरी बातें इस प्रकार समा जाँय कि वे फिर कभी जिह्वाग्र पर आने का प्रयास न करें।
- लम्बोदर :-
लम्बा उदर समस्त भली बुरी बातों को उदरस्थ करने की प्रेरणा देता है। शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर द्वारा बनाये हुये डमरू की ध्वनि से श्री गणेश ने सम्पूर्ण वेदों को ग्रहण किया, माता पार्वती के चरणद्वय में झंकृत होने वाले नूपुरों से संगीत सीखा, प्रतिदिन ताण्डव नृत्य देखने और उसके अभ्यास के बल से नृत्य सीखा और इस तरह से प्राप्त विभिन्न ज्ञानों को आत्मसात करने के कारण उनका उदर लम्बायमान हो कोष रूप में परिणित हुआ ।
- विकट -
इसके अनन्तर श्री गणेश का छठा नाम समाने आता है और वह है विकट । विकट का अर्थ होता है भयंकर श्री गणेश का धड़ (कण्ठ से पैर तक का भाग) है नर का और ऊर्ध्वांग अर्थात मुख है- हाथी का । अतः ऐसा विकट प्राणी विकट होगा ही यह निर्विवाद है। श्री गणेश के नाम के रूप में इसका भाव यह है कि श्री गणेश अपने नाम को सार्थक बनाते हुए सभी प्रकार के विघ्नों की निवृत्ति के लिये विघ्नों के मार्ग में विकट बनकर उपस्थित रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं 'शठे शाठ्य समाचरेत्' अर्थात बुरे और दुष्ट व्यक्तियों को सौम्यता से नहीं, अपितु तद्वत् बनकर ही दबाया जा सकता है। अतः यह नाम भी सार्थक ही है। गणपत्यथर्वशीर्ष के नवम मंत्र में श्री गणेश के लिये लिखा है विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः । इसका भाव हैं हम विघ्नों को नष्ट करने वाले, शिव के पुत्र, वरप्रदायी मूर्ति रूप में प्रकटित श्री गणेश को नमस्कार करते हैं। सुप्रसिद्ध भाष्यकार श्रीसायणाचार्य ने विघ्ननाशिने का भाष्य इस प्रकार प्रस्तुत किया है विवनाशिने कालात्मक भयहारिणे, अमृतात्मकपदप्रदत्वात् अर्थात श्री गणेश कालात्मक भय को हरण करने वाले हैं क्योंकि वे अमृतात्मक पद के प्रदाता हैं। स्कन्दपुराण के अनुसार इन्द्र ने निज भाग शून्य यज्ञ के विध्वंस के लिये जब कालका आह्वान किया तब वह विनासुर के रूप में प्रकटित हो, अभिनन्दन राजा को मारकर सत्कर्मों का लोप करने लगा तब महर्षियों ने ब्रह्माजी की प्रेरणा से श्री गणेश की स्तुति कर उनके द्वारा विनासुर का उपद्रव दूर करवाया। उसी समय से गणेश पूजन स्मरणादिविरहित कार्य में विघ्न का प्रादुर्भाव अवश्य होता है। यह मान्यता स्वीकार कर कार्यारम्भ में श्री गणेश पूजन अनिवार्य प्रतिपादित किया गया है । विन भी सामान्य नहीं है। यह कालस्वरूप होने से भगवत् स्वरूप, अतएव अतीव महिमान्वित है। इसके स्वरूप का निदर्शन इस प्रकार प्राप्त होता है विशेषेण जागत्सामर्थ्यं हन्तीति विघ्नः ब्रह्मादिक की भी जगत्सर्जनादि सामर्थ्य का हरण करने वाले तत्व को विघ्न कहते हैं। इस पर यदि किसी का शासन चलता है तो श्री गणेश का ही अतः गणेश का विनेश नाम न केवल सार्थक, अपितु उनकी लोकोत्तर महिमा का भी व्यापक है।
- विनायक :-
गणेश की इस नामावली का अष्टम नाम है विनायक । इसका अर्थ है विशिष्ट नायक या विशिष्ट स्वामी । कतिपय विद्वानों ने वि उपसर्ग को विघ्न का लघुस्वरूप स्वीकार कर विनायक का अर्थ विघ्नों का नायक भी स्वीकार किया है यह अर्थ पूर्णत: श्री गणेश पर चरितार्थ होता है क्योंकि ब्रह्मादि देवता अपने-अपने कार्य में विघ्र पराभूत होने के कारण स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते, परन्तु श्री गणेश के अनुग्रह से ही विघ्नरहित होकर कार्य सम्पादन में समर्थ होते हैं और यही कारण है कि पुण्याहवाचन के अवसर पर भगवन्तौ विघ्नविनायकौं प्रीयेताम् कहकर विघ्न और उसके पराभवकर्ता श्री गणेश दोनों का स्मरण किया जाता है इससे वि विघ्न, नायक स्वामी विनायक शब्द की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार यदि इस शब्द विनायक का अर्थ विशिष्ट नायक लिया जाय तो भी वह अन्वर्थक ही सिद्ध होता है क्योंकि श्रुति में श्री गणेश को ज्येष्ठराज शब्द द्वारा सम्बोधित कर उनके महत्व का प्रतिपादन किया गया है।
- धूम्रकेतु-
श्री गणेश जी का नवम नाम है धूम्रकेतु । धूम्रकेतु का सामान्य अर्थ है अग्नि और शब्दार्थ हैं धूऐं के ध्वजवाला ।श्री गणेश के संदर्भ में इसके दो भाव प्रकट होते हैं। 1.संकल्प - विकल्पात्मक धूम धूसर अस्पष्ट कल्पनाओं को साकार बनानेवाले तथा उन्हें मूर्तरूप दे ध्वजवत् नभमण्डल में फहराने वाले होने के कारण गणेश का धूम्रकेतु नाम अन्वर्थक है। 2.इसी प्रकार अग्नि के समान मानव की आध्यात्मिक अथवा आधिभौतिक प्रगति के मार्ग में आने वाले विघ्नों को भस्मसात् कर मानव को चरमोत्कर्ष की दिशा में उन्मुख बनाने की क्षमता से परिपूर्ण होने के कारण भी श्री गणेश का धूम्रकेतु नाम सार्थक ही प्रतीत होता है।
- गणाध्यक्ष :-
श्री गणेश का दशम नाम है। इसके दो अर्थ 1. संख्या में परिगणित हो सकने योग्य सभी पदार्थों के स्वामी तथा 2.प्रमथादि गणों के स्वामी विचार करने पर उक्त दोनों ही नाम अन्वर्थक जान पड़ते हैं। विश्व के परिगणनीय जितने भी पदार्थ हैं- श्री गणेश उन सबके स्वामी हैं। जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ट है कि श्री गणेश देवता, नर, असुर,और नाग इन चारों के संस्थापक एवं चतुर्वर्ग (धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष) तथा चतुर्वेदादि के भी स्थापक हैं।
स्वर्गेषु देवताश्चायं पृथ्व्यां नरांस्तथाऽतले ।
आसुरान्नागमुख्यांश्च स्थापयिष्यति बालकः ॥
तत्वानि चालयन् विप्रास्तस्मान्नाम्ना चतुर्भुजः ।
चतुर्णां विविधानां च स्थापकोऽयं प्रकीर्तितः ॥
गणों के स्वामी तो श्री गणेश हैं ही। इस पद पर वे स्वयं भगवान शंकर द्वारा प्रतिष्ठित किये गये या गणों द्वारा, इस सम्बन्ध में दोनों ही प्रकार के विवरण प्राप्त होते हैं। गणपति सम्भव के अनुसार जब भगवान् शंकर ने गज का मस्तक जोड़कर श्री गणेश को पुनर्जीवित कर दिया, तब सभी शिवगण समवेत होकर नाचते हुए अपने ऊपर उनको वरीयता देने लगे तथा गणपति कहकर सम्बोधन करते हुए उनकी जय-जयकार मनाने लगे।
- भालचन्द :-
श्री गणेश का ग्यारहवाँ नाम है- भालचन्द्र । इसका भाव है जिसके मस्तक (भाल) पर चन्द्र हो । भगवान शंकर के मस्तक में विराजमान चन्द्रमा का ही यह संक्षिप्त संस्करण है। चन्द्र की उत्पत्ति विराट के मन से मानी जाती है और उस चन्द्र तत्व से सब प्राणियों के मन अनुप्राणित माने जाते हैं। अतः श्री गणेश के संदर्भ में इसका भाव यही है कि वे भाल पर चन्द्र को धारण कर उसकी शीतल निर्मल कान्ति से विश्व के सभी प्राणियों को आप्यायित किया करते हैं। इसके साथ ही भालचन्द्र से यह भी विदित होता है कि व्यक्ति का मस्तक जितना शांत होगा उतनी ही कुशलता के साथ वह अपना दायित्व निभा सकेगा। श्री गणेश गणपति अर्थात् प्रत्येक गणनीय वस्तु के पति हैं, अतः अपने मस्तिष्क को सुशान्त बनाये रखने के प्रयास में सफलता पाकर, तत्परक नाम धारण कर सफलता कामियों के लिये एक समुज्जवल मार्ग प्रशस्त किया है और बताया है कि यदि वे अपने मस्तक में चन्द्र की सी शीतलता लेकर कार्यरत होंगे तो सफलता निश्चय ही उनके पग चूमेगी।
- गजानन :-
इस द्वादश नामावली का अंतिम नाम है गजानन । अर्थात हाथी के मुखवाला। गणेश के कण्ठ से ऊपर का भाग हाथी का है, इस तथ्य से सभी सुपरिचित हैं। नराकृति अर्धाङ्ग के साथ हाथी के मस्तक का मेल एक जीवित आश्चर्य ही कहा जा सकता है । परन्तु जब गजानन के सभी अवयवों पर दृष्टिपात कर हम एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, तब आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। मुख भाग में निम्न अवयव विशेषतः परिगणित होते हैं जिह्वा, दन्त, नासिका, कान और आँख जिह्वा सब विघ्नों की जड़ है। यह बहिर्मुखी होने के कारण परदोषगणन में विशेष रुचि लेती है परन्तु यदि मन जिह्वा के नुकीले भाग को दूसरों की ओर से हटाकर अपनी ओर कर ले,अर्थात् अपने दोषों का परिगणन करने लगे तो अनेकानेक झंझटों से मुक्त हो जाय। प्रकृति ने अन्य सभी प्राणियों के विपरीत हाथी की जिह्वा को दन्तमूल की ओर से कण्ठ की ओर लपलपाती हुई लगाया है अतः यह निर्विघ्नता विनायक विशेषता गणेश में विद्यमान रहकर उन्हें विघ्न विनायक का अन्वर्थक आश्रय बनाती है।
दन्त के सम्बन्ध में यह कहावत प्रसिद्ध ही है कि हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं। गणेश के दाँत भी इस बात के परिचायक हैं कि बुद्धिमान् व्यक्ति को ऊपरी दिखावा आन्तरिक भावों से सर्वथा भिन्न रखना चाहिये विशेषतः उस स्थिति में जब कि उसका सामना किसी सबल से हो परन्तु यह नीति केवल महाभारत के शब्दों में मायाचारों मायया बाधितव्यः के अनुसार एक सीमा तक ही आचरणीय है, सर्वथा एवं सवंदा अनुकरणीय नहीं इसलिए हाथी का मुख होते हुए भी दिखावे का दाँत केवल एक ही गणेश के साथ सम्पृक्त कर उन्हें एकदन्त पद से व्यवहृत किया जाता है।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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