दस महाविद्याओं में सप्तमः धूमावती | Seventh among the ten Mahavidyas: Dhumavati

दस महाविद्याओं में सप्तमः धूमावती

धूमावती देवी महाविद्याओंमें सातवें स्थानपर परिगणित हैं। इनके सन्दर्भमें कथा आती है कि एकबार भगवती पार्वती भगवान् शिवके साथ कैलास पर्वतपर बैठी हुई थीं। उन्होंने महादेव से अपनी क्षुधाका निवारण करनेका निवेदन किया। कई बार माँगनेपर भी जब भगवान् शिवने उस ओर ध्यान नहीं दिया, तब उन्होंने महादेवको ही उठाकर निगल लिया। उनके शरीरसे धूमराशि निकली। शिवजीने उस समय पार्वतीसे कहा कि 'आपकी सुन्दर मूर्ति धूएँसे ढक जानेके कारण धूमावती या धूम्रा कही जायगी।' धूमावती महाशक्ति अकेली है तथा स्वयं नियन्त्रिका है। इसका कोई स्वामी नहीं है, इसलिये इसे विधवा कहा गया है। दुर्गासप्तशतीके अनुसार इन्होंने ही प्रतिज्ञा की थी 'जो मुझे युद्धमें जीत लेगा तथा मेरा गर्व दूर कर देगा, वही मेरा पति होगा। ऐसा कभी नहीं हुआ, अतः यह कुमारी हैं', ये धन या पतिरहित हैं अथवा अपने पति महादेवको निगल जानेके कारण विधवा हैं।

नारदपाञ्चरात्रके अनुसार इन्होंने अपने शरीरसे उग्रचण्डिकाको प्रकट किया था, जो सैकड़ों गीदड़ियोंकी तरह आवाज करनेवाली थी, शिवको निगलनेका तात्पर्य है, उनके स्वामित्वका निषेध। असुरोंके कच्चे मांससे इनकी अंगभूता शिवाएँ तृप्त हुईं, यही इनकी भूखका रहस्य है। इनके ध्यानमें इन्हें विवर्ण, चंचल, काले रंगवाली, मैले कपड़े धारण करनेवाली, खुले केशोंवाली, विधवा, काकध्वजवाले रथपर आरूढ़, हाथमें सूप धारण किये, भूख-प्याससे व्याकुल तथा निर्मम आँखोंवाली बताया गया है। स्वतन्त्रतन्त्रके अनुसार सतीने जब दक्षयज्ञमें योगाग्निके द्वारा अपने-आपको भस्म कर दिया, तब उस समय जो धुआँ उत्पन्न हुआ उससे धूमावती-विग्रहका प्राकट्य हुआ था।
धूमावतीकी उपासना विपत्ति-नाश, रोग निवारण, युद्ध-जय, उच्चाटन तथा मारण आदिके लिये की जाती है। शाक्तप्रमोदमें कहा गया है कि इनके उपासकपर दुष्टाभिचारका प्रभाव नहीं पड़ता है। संसारमें रोग-दुःखके कारण चार देवता हैं। ज्वर, उन्माद तथा दाह रुद्रके कोपसे, मूर्च्छा, विकलाङ्गता यमके कोपसे, धूल, गठिया, लकवा, वरुणके कोपसे तथा शोक, कलह, क्षुधा, तृषा आदि निर्ऋतिके कोपसे होते हैं। शतपथब्राह्मणके अनुसार धूमावती और निर्ऋति एक हैं। यह लक्ष्मीकी ज्येष्ठा है, अतः ज्येष्ठा नक्षत्रमें उत्पन्न व्यक्ति जीवनभर दुःख भोगता है।
तन्त्र ग्रन्थोंके अनुसार धूमावती उग्रतारा ही हैं, जो धूम्रा होनेसे धूमावती कही जाती हैं। दुर्गासप्तशतीमें वाभ्रवी और तामसीनामसे इन्हींकी चर्चा की गयी है। ये प्रसन्न होकर रोग और शोकको नष्ट कर देती हैं तथा कुपित होनेपर समस्त सुखों और कामनाओंको नष्ट कर देती हैं। इनकी शरणागतिसे विपत्तिनाश तथा सम्पन्नता प्राप्त होती है। ऋग्वेदोक्त रात्रिसूक्तमें इन्हें 'सुतरा' कहा गया है। सुतराका अर्थ सुखपूर्वक तारनेयोग्य है। तारा या तारिणीको इनका पूर्वरूप बतलाया गया है। इसलिये आगमोंमें इन्हें अभाव और संकटको दूरकर सुख प्रदान करनेवाली भूति कहा गया है। धूमावती स्थिरप्रज्ञताकी प्रतीक है। इनका काकध्वज वासनाग्रस्त मन है, जो निरन्तर अतृप्त रहता है। जीवकी दीनावस्था भूख, प्यास, कलह, दरिद्रता आदि इसकी क्रियाएँ हैं, अर्थात् वेदकी शब्दावलीमें धूमावती कद्रु है, जो वृत्रासुर आदिको पैदा करती है।

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