10 Mahaavidya : जानिए दस महाविद्याओं के बारे में,Jaanie Das Mahaavidyaon Ke Baare Mein

जानिए दस महाविद्याओं के बारे में,Jaanie Das Mahaavidyaon Ke Baare Mein

हिंदू धर्म में, दस महाविद्याओं को शक्ति या देवी के दस पहलुओं का समूह माना जाता है. इनका संबंध श्रीहरि के दस अवतारों से भी है. जैसे, भगवान राम को तारा और भगवान कृष्ण को काली का अवतार माना गया है. इन दस महाविद्याओं को बुद्धि की देवी माना जाता है. इनकी पूजा से नकारात्मक प्रवृत्तियों को नष्ट करने में मदद मिलती है. साल भर में आने वाली सभी चार नवरात्रियों में नवदुर्गा के साथ 10 महाविद्याओं की पूजा करने से विशेष फल मिलता है. शास्त्रों के मुताबिक, इन दस महाविद्याओं में से किसी एक की पूजा करने से कई तरह के संकट दूर हो जाते हैं और व्यक्ति परम सुख और शांति पाता है

इन महाविद्याओं की पूजा से ये फ़ायदे मिलते हैं:

  • प्रेम और विवाह संबंधी समस्याओं में मदद मिलती है
  • तलाक के मामलों और अंतरजातीय विवाहों में समझौता होता है
  • काले जादू के प्रभाव, बुरी नज़र, नकारात्मक प्रभावों को दूर करता है
  • शत्रुओं से सुरक्षा मिलती है
  • भारी वित्तीय ऋणों से उबरने में मदद मिलती है
  • उपासक की आर्थिक स्थिति में सुधार होता
Jaanie Das Mahaavidyaon Ke Baare Mein

दश महाविद्या वर्णन

देवी पार्वती को आद्यभवानी माना जाता है। इनका पाणिग्रहण संस्कार देवाधिदेव महादेव के साथ इनकी अभिलाषानुसार हुआ था। पार्वती जनक दक्ष ने एक बार यज्ञ किया जिसमें उसने शिवजी को आमन्त्रित नहीं किया। पार्वती को इस यज्ञ की सूचना प्राप्त हुई तो उसने शिवजी से वहाँ चलने का विनम्र निवेदन किया। जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। अपने स्वामी की अभिलाषा वहाँ न जाने की समझकर पार्वती ने स्वयं के जाने की आज्ञा चाही तो शिव ने दक्ष के शत्रुतापूर्ण व्यवहार का ध्यान रखते हुये उन्हें पुनः मना कर दिया। अपने शब्दों की बारम्बार अवहेलना देखकर पार्वती ने कहा-

"ततोऽहं तत्र यास्यामि, तदाज्ञापय वा न वा। 
प्राप्स्यामि यज्ञभागं वा नाशयिष्यामि व मखम् ॥"

अर्थात् आपकी आज्ञा हो या न हो किन्तु मैं वहाँ अवश्य जाऊँगी। वहाँ जाकर मैं यज्ञ अंश प्राप्त करूँगी अन्यथा यज्ञ नष्ट कर दूँगी। शिव के पुनः समझाने पर पार्वती क्रोधित हो उठी और उन्होंने रौद्र रूप ग्रहण कर लिया। उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये, अधर क्रोध से फड़फड़ाने लगे और तीव्र अट्टहास किया। कुछ स्मरण करके शिवजी ने उन्हें ध्यान से देखा तो पार्वती का शरीर क्रोधाग्नि से जल कर क्रमशः काला पड़ता जा रहा था।अपनी जीवन-संगिनी का यह भीषण रूप देखकर उन्होंने दूर चले जाना सम्भवतः उचित समझा होगा, अतः वहाँ से चले गये। वह कुछ दूर ही गये थे कि अपने समक्ष एक दिव्य स्वरूप देखकर अचम्भे में पड़ गये। तत्पश्चात् उन्होंने अपने दाँये, बाँये, ऊपर तथा नीचे अर्थात् सभी तरफ देखा तो प्रत्येक दिशा में एक विभिन्न देवीय स्वरूप देखकर स्तम्भित हो गये। सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण हुआ और उन्होंने सोचा कि कहीं यह सती का प्रताप न हो। अतः उन्होंने कहा- "पार्वती! क्या माया है?"
अपने स्वामी का प्रश्न श्रवण करके पार्वती ने विनम्र भाव से बताया - "स्वामी ! आपके समक्ष जो कृष्ण-वर्णा देवी स्थित है वह काली है। आपके ऊपर महाकाल स्वरूपिणी जो नील-वर्णा देवी हैं वह 'तारा' है। आपके पश्चिम में श्याम वर्णा और कटे हुये शीश को उठाये जो देवी खड़ी हैं वह 'छिन्नमस्तिका' हैं। आपके बाँई तरफ देवी 'भुवनेश्वरी' खड़ी हैं। आपके पृष्ठ पर शत्रु मर्दन करने वाली देवी 'बगलामुखी' खड़ी हैं। आपके अग्निकोण में 'विधवा रूपिणी-धूमावती' खड़ी हैं। नेऋत्य कोण में देवी 'त्रिपुर सुन्दरी' खड़ी हैं। वायव्य कोण पर 'मातंगी' खड़ी हैं। ईशान कोण पर देवी 'षोडशी' खड़ी हैं तथा 'भैरवी' रूपा होकर मैं स्वयं उपस्थित हूँ।" यहीं पर शिवजी के द्वारा इनका महात्म्य पूछे जाने पर पार्वती ने बताया था- 'इन सभी की पूजा अर्चना करने पर चतुर्वर्ग की अर्थात् धर्म, भोग, मोक्ष तथा अर्थ की प्राप्ति हुआ करती है। इन्हीं की कृपा से षट्कर्मों की सिद्धि तथा अभीष्ट की उपलब्धि हुआ करती है।'
शिवजी के निवेदन करने पर यह देवियाँ क्रमशः कालिका देवी में समा गयीं।

दश महाविद्या उपासना

दश महाविद्याओं की उपासना साधक अपनी-अपनी श्रद्धानुसार करते हैं परन्तु साधना में कुछ विशेष करने के लिये दीक्षा ली जाती है। दश महाविद्याओं से सम्बन्धित कोई भी दीक्षा दो विभिन्न खण्डों में विभाजित है। इन खण्डों को कुल कहते हैं। यह दो नामों से जाने जाते हैं जिन्हें 'कालीकुल' तथा 'श्रीकुल' कहते हैं। जो साधक भगवती काली, तारा तथा छिन्नमस्तिका की दीक्षा लेते हैं और उन्हें अपना आराध्य मानते हैं, उन्हें 'कालीकुल' के साधक माना जाता है। शेष सभी महाविद्याओं के साधक 'श्रीकुल' के साधक माने जाते हैं।
अपने कुलानुसार दश महाविद्याओं की उपासना अपनी विभिन्नता को प्राप्त होती है। महाविद्याओं को आदि स्वरूप माना जाता है अर्थात् जब कुछ नहीं था तब यह महादेवियाँ विद्यमान थीं। आदि का सूचक शून्य हुआ करता है। शून्य अर्थात् कुछ भी नहीं। यह शून्यरूपा शक्ति काली है। यही मूल तत्त्व है। महानिर्गुण स्वरूप होने के कारण इनकी उपमा अन्धकार से की जाती है। यह मूल तत्त्व महासगुण स्वरूप होने के कारण सुन्दरी कहलाता है।

"सा काली द्विविधा प्रोक्ता श्यामा रक्ता प्रभेदतः । 
श्यामा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता श्री सुन्दरि मता ॥"

अर्थात् जो काली देवी हैं वो श्यामा तथा रक्ता के भेद से दो रूपों में मानी जाती हैं। श्याम स्वरूप वाली देवी को 'काली' तथा रक्त स्वरूप वाली देवी को 'श्री सुन्दरी' कहते हैं। इसी देवी ने समूचे ब्रह्माण्ड का श्रीगणेश किया था और इसकी उत्पत्ति से पूर्व वह केवल स्वयं ही थी। इस आदि अन्त रहित सत्ता को कामकला तथा श्रृंगकला के नाम से भी जानते हैं। यही मूल शक्ति त्रिदेवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के प्रादुर्भाव का कारण है। इन्हीं से समस्त मरुदगण, गन्धर्व, अप्सरायें, किन्नरादि की रचना हुई है। समस्त दिशाओं में दृश्य तथा अदृश्य इन्हीं के द्वारा सृजित हुआ है।

"तदेतत् सर्वाकार महात्रिपुरसुन्दरीम् ।
त्व चाव च सर्व विश्व सर्वदेवताः ॥
इतरत् सर्वं महात्रिपुरसुन्दरीम् ।
सत्यमेकं ललिताऽऽख्यंवस्तु ।
तदद्वितीयम् खण्डार्थं परब्रह्म ॥"

अर्थात् इस भाँति से महात्रिपुरसुन्दरी समस्त स्थूलों में अधिष्ठित है। मैं, तुम, देवतादि, समूची-सृष्टि, दृश्य अदृश्य सभी कुछ स्वयं महात्रिपुरसुन्दरी ही है। जो सत्य है, जो परब्रह्म तत्त्व है वह ललिता अर्थात् महात्रिपुरसुन्दरी ही है। जिस भाँति से जल केवल जल होता है परन्तु गंगा का जल गंगा- जल, यमुना का जल यमुनाजल कहलाता है। इसी प्रकार शून्यरूपा मूल प्रकृति को भुवनेश्वरी, काली तथा सुन्दरी कहा जाता है। मूलतः यह सब एक ही हैं।

"इयं नारायणी काली तारा स्यात् शून्यवाहिनी । 
सुन्दरीम् रक्तकालीयं भैरवी नादिनी तथा ॥"

अर्थात् जो नारायणी है वह काली ही है। यह काली, तारा रूप से शून्य में निवास करती है। रक्तकाली को सुन्दरी कहते हैं और फिर यही शक्ति भैरवी नादिनी आदि स्वरूपों से जानी जाती है।
  • दश महाविद्याओं की एक साथ पूजा कैसे हो ?
दश महाविद्या की उपासना भोगसिद्धियों के साथ जीवन्मुक्ति के लिए भी अचूक साधन है। अतः यह आवश्यक है कि इनका पूजा- विधान तथा स्थापना-विधि विशेष रूप से समझ ली जाय। महाभागवत में नारद जी के प्रश्न करने पर महोदव जी ने देवपंचायतन के समान दशायतन महाविद्या पूजा की विधि छियत्तरवें अध्याय में बतायी है। उन्होंने कहा कि काली अथवा कामाख्या को केन्द्र में रखकर काली के बायें भाग में तारा तथा दाहिने भाग में भुवनेश्वरी की प्रतिष्ठा करे। अग्निकोण में षोडशी तथा नैऋत्य में भैरवी की स्थापना करे। वायव्य में छिन्नमस्ता तथा पीठ भाग में बगलामुखी को विराजमान करे। ईशान कोण में त्रिपुरसुन्दरी, ऊर्ध्व भाग में मातंगी, पश्चिम में धूमावती की पूजा करे। इस महापीठ के नीचे महारुद्र तथा ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की उनकी शक्तियों के साथ प्रतिष्ठा करे।

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