दस महाविद्याओं में तृतीया छिन्नमस्ता | Tritiya Chhinnamasta among the ten Mahavidyas

दस महाविद्याओं में तृतीया छिन्नमस्ता 

परिवर्तनशील जगत्‌ का अधिपति कबन्ध है और उसकी शक्ति ही छिन्नमस्ता है। विश्वकी वृद्धि- ह्रास तो सदैव होती रहती है। जब ह्रासकी मात्रा कम और विकासकी मात्रा अधिक होती है, तब भुवनेश्वरीका प्राकट्य होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है, तब छिन्नमस्ताका प्राधान्य होता है।

भगवती छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। महाविद्याओंमें इनका तीसरा स्थान है। इनके प्रादुर्भावकी कथा इस प्रकार है- एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजयाके साथ मन्दाकिनीमें स्नान करनेके लिये गयीं। स्त्रानोपरान्त क्षुधाग्निसे पीड़ित होकर वे कृष्णवर्णकी हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियोंने भी उनसे कुछ भोजन करनेके लिये माँगा। देवीने उनसे कुछ समय प्रतीक्षा करनेके लिये कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करनेके बाद सहचरियोंने जब पुनः भोजनके लिये निवेदन किया, तब देवीने उनसे कुछ देर और प्रतीक्षा करनेके लिये कहा। इसपर सहचरियोंने देवीसे विनम्र स्वरमें कहा कि 'माँ तो अपने शिशुओंको भूख लगनेपर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं?' अपने सहचरियोंके मधुर वचन सुनकर कृपामयी देवीने अपने खड्गसे अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवीके बायें हाथमें आ गिरा और उनके कबन्धसे रक्तकी तीन धाराएँ प्रवाहित हुईं। वे दो धाराओंको अपनी दोनों सहचरियोंकी ओर प्रवाहित कर दीं, जिसे पीती हुई दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धाराको देवी स्वयं पान करने लगीं। तभीसे देवी छिन्नमस्ताके नामसे प्रसिद्ध हुईं।
ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकालमें छिन्नमस्ताकी उपासनासे साधकको सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं। शत्रु-विजय, समूह स्तम्भन, राज्य प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष प्राप्तिके लिये छिन्नमस्ताकी उपासना अमोघ है। छिन्नमस्ताका आध्यात्मिक स्वरूप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञशीर्षकी प्रतीक ये देवी श्वेतकमल-पीठपर खड़ी हैं। दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभिमें योनिचक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त (रज) गुणोंकी देवियाँ इनकी सहचरियाँ हैं। ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने आपमें पूर्ण अन्तर्मुखी साधनाका संकेत है।
विद्वानोंने इस कथामें सिद्धिकी चरम सीमाका निर्देश माना है। योगशास्त्रमें तीन ग्रन्थियाँ बतायी गयी हैं, जिनके भेदनके बाद योगीको पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि कहा गया है। मूलाधारमें ब्रह्मग्रन्थि, मणिपूरमें विष्णुग्रन्थि तथा आज्ञाचक्रमें रुद्रग्रन्थिका स्थान है। इन ग्रन्थियोंके भेदनसे ही अद्वैतानन्दकी प्राप्ति होती है। योगियोंका ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्रके नीचेकी नाड़ियोंमें ही काम और रतिका मूल है, उसीपर छिन्ना महाशक्ति आरूढ़ है, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होनेपर रुद्रग्रन्थिका भेदन होता है।
छिन्नमस्ताका वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनोंमें समान रूपसे प्रचलित है। देवीकी दोनों सहचरियाँ रजोगुण तथा तमोगुणकी प्रतीक हैं, कमल विश्वप्रपञ्च है और कामरति चिदानन्दकी स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्यककी अश्वशिर-विद्या, शाक्तोंकी हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्योंके छिन्नशीर्ष गणपतिका रहस्य भी छिन्नमस्तासे ही सम्बन्धित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ताके ही उपासक थे। इसीलिये इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है। वैरोचन अग्निको कहते हैं। अग्निके स्थान मणिपूरमें छिन्नमस्ताका ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ीमें इनका प्रवाह होनेसे इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरवतन्त्रमें कहा गया है कि इनकी आराधनासे साधक जीवभावसे मुक्त होकर शिवभावको प्राप्त कर लेता है।

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