चरित्र और समाजिक मूल्यों का महत्त्व

चरित्र और समाजिक मूल्यों का महत्त्व  Importance of character and social values

जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥ 251

यह दोहा तुलसीदास जी की रचना से है, जिसका अर्थ निम्नलिखित है:
"जो गाँव हो, उसमें ऐसे लोग रहते हैं जो अपने चरित्र को संभालते हैं। उन्होंने अपने व्यवहार में बुद्धिमानी से ऐसा संचालन किया है कि वे ताल और वर्तनी का सम्मान करते हैं। वे नर और नारी हमेशा सुशीलता से बातचीत करते हैं। उनमें ऐसी सद्गुणों का विकास होता है जो मानव जीवन में अधिकारी बनाते हैं।"
यह दोहा सामाजिक मूल्यों, शिष्टाचार और सद्गुणों के महत्त्व को बताता है, जो एक समृद्ध समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण होते हैं।

अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥252

यह दोहा भी तुलसीदास जी की रचना से है, जिसका अर्थ निम्नलिखित है:
"बहुत जहाँ जाते हैं वहाँ अत्यंत कपटी और दुष्ट लोग होते हैं। उनका संबंध समृद्धि और सत्ता से होता है। इसलिए उनका संबंध साधारण व्यक्तियों से नहीं होता। समृद्धि का सौदा करने वाले लोग तो सिर्फ सेवा करने का दिखावा करते हैं, इसमें कोई वास्तविक रस नहीं होता।"
यह दोहा नकलीता, धोखाधड़ी, और भ्रष्टाचार को व्यक्त करता है और साथ ही उन लोगों को चित्रित करता है जो दिखावा के लिए सेवा का दावा करते हैं, लेकिन वास्तविकता में उनका उद्देश्य स्वार्थ और धन कमाना होता है।

तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥ 253

यह दोहा भगवान तुलसीदास जी की रचना से है, जिसका अर्थ निम्नलिखित है:
"इसी कारण से मन हार जाता है, क्योंकि व्यक्ति स्वार्थी होते हैं और वे अपनी ही सोच में फंसे रहते हैं। इस लोक में बहुत सारी कठिनाइयाँ होती हैं। भगवान की कृपा के बिना कोई भी इन सारी कठिनाइयों से पार नहीं कर सकता।"
यह दोहा मनुष्य के स्वार्थी और अहंकारी होने के परिणामों को बताता है और उसे अपनी ही सोच में फंसे रहने की चेतावनी देता है। इसके अलावा, यह भगवान की कृपा के महत्त्व को भी जाहिर करता है और बिना उसकी कृपा के, कठिनाइयों को पार करना संभव नहीं होता।
कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥ 254

यह दोहा तुलसीदास जी की रचना से है, जिसका अर्थ निम्नलिखित है:
"कठिन हैं वे लोग जो दुष्ट संगति और दुर्मार्ग का अनुसरण करते हैं। उनके वचन तो व्याघ्र और ब्याले के समान होते हैं। घरेलू कार्यों के बहुत से जाल होते हैं, जिन्हें पार करना कठिन होता है। वे सभी कठिनाइयाँ बड़ी विशाल पहाड़ों की तरह हैं।"
यह दोहा दुष्ट संगति और गलत राह पर चलने वालों के विषय में चेतावनी देता है। इसके अलावा, घरेलू कार्यों की चुनौतियों को भी दिखाता है, जो अक्सर बड़े पहाड़ों की तरह विशाल और दुर्गम होती हैं।

बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥ 255

यह दोहा भगवान तुलसीदास जी की रचना से है, जिसका अर्थ निम्नलिखित होता है:
"मोह, मद, और अहंकार जैसे विषम बन के समान हैं। वे नदी की तरह भयानक और विचित्र होते हैं।"
यह दोहा मानवीय गुणों के विरुद्ध विकृतियों को बताता है, जैसे कि मोह, मद और अहंकार, जो व्यक्ति को अपने मूल्यों से दूर ले जाते हैं। इसके साथ ही, यह उन विचित्रताओं को भी उदाहरण देता है जो इन दुर्भावनाओं की तरह होती हैं, भयानक और अनिश्चित।

दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ 256

यह दोहा भगवान तुलसीदास जी की रचना से है, जिसका अर्थ निम्नलिखित है:
"जो व्यक्ति श्रद्धा और संबल के बिना हैं, वे संतों के साथ सहयोग नहीं करते। उन्हें मानवीय दृष्टि से अत्यंत गहरा और अगम्य माना जाता है, जिन्हें श्रीराम (रघुनाथ) को प्रिय नहीं मानते।"
यह दोहा संतों या भगवान की शरण में आने की महत्त्वपूर्णता और उन गुणों की महिमा को बताता है, जो श्रद्धा और संबल के साथ आते हैं। उसके साथ ही, यह यहाँ व्यक्ति की अवस्था को भी बताता है जो अगम्य और गहरा होती है, जिससे कि उन्हें दिव्य और उच्च स्तर की समझ मिलती है, लेकिन वे श्रीराम को प्रिय नहीं मानते।

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