तुलसीदास के दोहे और अर्थ {116-125}

तुलसीदास के दोहे और अर्थ  Couplets and meanings of Tulsidas

सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥116

यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"वह प्रभु जो मुझे अनुकूल हैं, वह उमेश्वर (शिव) हैं। उनकी कथा मुझे मनोहर और मंगलमयी लगती है।
जब सिवा को स्मरण करता हूँ, तब वही शिव मुझे प्राप्त होते हैं। मैं रामचरित्र मन में ध्यान और चित्त में चिता के रूप में बार-बार वर्णन करता हूँ।"
यहां कहा गया है कि जो ईश्वर मुझे अनुकूल हैं, वह शिवजी हैं। उनकी कथा मुझे प्रिय और मंगलमयी लगती है। सिवा के स्मरण से ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है और मैं रामायण की कथा को अपने मन में ध्यान करता हूँ और उनकी चिता में चित्त को समर्पित करता हूँ।

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥117

यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"मेरी बातों को सुनकर शिव भगवान कृपा करते हैं, और मेरा मन सुखद रहता है उनके सम्मुख जाकर।
जो भक्त सम्पूर्ण स्नेह के साथ इस कथा को सुनते हैं, वह समझते हैं, सुनते हैं, और सत्य को समझते हैं।"
यहां कहा गया है कि शिव भगवान मेरी बातों को सुनकर कृपा करते हैं, और मेरा मन उनके सम्मुख जाकर आनंदित रहता है। जो भक्त सम्पूर्ण स्नेह के साथ इस कथा को सुनते हैं, वे समझते हैं, सुनते हैं, और सत्य को समझते हैं।

होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।118

यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"जो व्यक्ति श्रीराम के चरणों में भक्ति रखता है, वह कलियुग में भी अशुद्धि से रहित, सुखदायी भाग्यशाली होता है।
ऐ गौरी! मुझे सच्चे भक्ति के आसरे में ले जाना, ताकि मैं सत्य को देख सकूँ।"
यहां कहा गया है कि जो व्यक्ति श्रीराम के चरणों में भक्ति रखता है, वह कलियुग में भी अशुद्धि से रहित, सुखदायी और भाग्यशाली होता है। इस दोहे में भगवान से सच्ची भक्ति के आधार पर प्रार्थना की गई है।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥119

यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:
"वह परमात्मा जो मैं कहूँ, सब भाषाओं में व्यक्त करता है और उसी की प्रतिभा होती है।"
यहां कहा गया है कि परमात्मा वह है जो मैं कहूँ, वह सभी भाषाओं में सुनते हैं और उसी की प्रतिभा होती है।

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥ 120

यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"अवधपुरी बहुत ही पावन है, जो सरयू नदी से होकर कलियुग के दोषों को नष्ट करती है।
जो पुरुष और स्त्री अपनी ममता को परमात्मा में नहीं विचलित करते, उनकी प्रेमी भक्ति परमात्मा द्वारा प्रीतिपूर्वक स्वीकार की जाती है।"
इस दोहे में कहा गया है कि अवधपुरी बहुत ही पावन है, जो कलियुग के दोषों को सरयू नदी के स्नान से नष्ट करती है। जो मनुष्य और स्त्री अपनी ममता को परमात्मा में नहीं विचलित करते, उनकी प्रेमी भक्ति को परमात्मा स्वीकार करते हैं।

सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥121

यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"सीता की निन्दा करने वाले अघ और ओघ नष्ट नहीं होते, बल्कि वे सर्वलोक को अशांति में डालकर बसा देते हैं।
कौसल्या देवी की दिशा पूर्व की ओर होने से जिनकी प्रशंसा होती है, उनकी कीर्ति से पूरी दुनिया मचल जाती है।"
यहां कहा गया है कि सीता की निन्दा करने वाले व्यक्ति के पाप और दोष नष्ट नहीं होते, बल्कि वह लोगों को अशांति में डालकर उन्हें परेशान करते हैं। वहीं कौसल्या देवी की दिशा पूर्व की ओर होने से जिनकी प्रशंसा होती है, उनकी कीर्ति से पूरी दुनिया मचल जाती है।

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥122

यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"जहाँ राघव (राम) प्रकट होते हैं, वहाँ समुद्र भी चारू और सुंदर लगता है। उनकी बेटी और दशरथ राजा के साथ सभी रानियाँ, सुखदायी और सुमंगलमयी मूर्ति को मानती हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि जहाँ भगवान राम प्रकट होते हैं, वहाँ समुद्र भी सुंदरता से भर जाता है। उनकी बेटियाँ और राजा दशरथ के साथ सभी रानियाँ भी भगवान राम की सुखदायी और सुमंगलमयी मूर्ति को मानती हैं।

करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥123

यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"मैं करता हूँ प्रणाम अपने कर्म, मन और वाणी से, कृपा करो, हे सुत (राम)! मैं तुम्हें अपना सेवक मानता हूँ।
जो ब्रह्मा और शिव भी भयभीत होते हैं, उस श्रीराम की महिमा अनंत है, वह राम मेरे पिता और माता हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि मैं अपने कर्म, मन और वाणी से श्रीराम को प्रणाम करता हूँ और उनसे कृपा की प्रार्थना करता हूँ। श्रीराम की महिमा अनंत है, जिससे ब्रह्मा और शिव भी भयभीत होते हैं, और उन्हें मैं अपने पिता और माता मानता हूँ।
सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥124

यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"वह अवधपुरी (अयोध्या) सत्य और प्रेम में भावुक हो जिनके लिए श्रीराम के चरण शरण हैं।
दीनदयाल (कृपालु) और प्रिय शरीर से अलग होकर मैं उन्हीं को छोड़ देता हूँ, जैसे दीन-हीन व्यक्ति तन के त्याग कर गया हो।"
इस दोहे में कहा गया है कि जिनके लिए अयोध्या सत्य और प्रेम में भावुक होती हैं, उनके लिए श्रीराम के चरण ही शरण हैं। मैं उन दीनदयाल और प्रिय शरीरों को छोड़ देता हूँ, जैसे कि दीन-हीन व्यक्ति अपने शरीर को छोड़ देता है।

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥125

यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"मैं परिजनों के साथ बिदेह (जानकी) की तरह प्रभु राम के पद में गुप्त स्नेह करता हूँ।
जोग और भोग को मैं अपने पास रखता हूँ, लेकिन राम को ध्यान में रखकर उसी को प्रकट करता हूँ।"
यहां कहा गया है कि मैं परिजनों के साथ जानकी की तरह प्रभु राम के पद में गुप्त स्नेह करता हूँ। मैं जोग और भोग को अपने पास रखता हूँ, लेकिन राम को ध्यान में रखकर उसी को प्रकट करता हूँ।

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