अयोध्या का प्रथम राजा 'सीता का जन्म' वाल्मीकि रामायण के अनुसार लव और कुश का जन्म जानिए

अयोध्या का प्रथम राजा 'सीता का जन्म' वाल्मीकि रामायण के अनुसार लव और कुश का जन्म जानिए

अयोध्या का प्रथम राजा first king of ayodhya

महर्षि वशिष्ठ ने राजा जनक और उनके लघु भ्राता कुशध्वज के सम्मुख राजा दशरथ की कुल परंपरा का परिचय देते हुए कहा कि ब्रह्माजी की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त है-ये स्वयंभू हैं, नित्य, शाश्वत और अविनाशी हैं। उनसे मरीचि की उत्पत्ति हुई। मरीचि से कश्यप, कश्यप से विवस्वान, विवस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। मनु पहले प्रजापति थे जिनसे इक्ष्वाकु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इन इक्ष्वाकु को ही अयोध्या के प्रथम राजा के रूप में समझा गया।
इक्ष्वाकु के बाद कमशः कुक्षि, विकुक्षि, वाण, अनरण्य, पृथु, त्रिशंकु, धुंधुमार, युवनाश्व, मांधाता, सुसंधि, ध्रुवसंधि, भरत, असित, असित की विधवा कालिंदी से सगर, असमंज, अंशुमान, दिलीप, भगीरथ, कुकुत्स्थ, रघु, प्रवृद्ध ( ये शाप से राक्षस हो गए थे, बाद में ये ही कल्माषपाद के नाम से प्रसिद्ध हुए थे ), शंखण, सुदर्शन अग्निवर्ण, शीघ्रग, मरु, प्रशुश्रक, अंबरीष, नहुष, ययाति, नाभाग तथा अज हुए। अज से ही दशरथ का जन्म हुआ। राम और लक्ष्मण इन्हीं दशरथ के पुत्र हैं।

सीता का जन्म  Sita's birth

एक बार रावण,जो दसग्रीव के नाम से भी जाना जाता था,हिमालय के वन में घूम रहा था। तभी उसने ब्रह्मर्षि कुशध्वज की अत्यंत सुंदर पुत्री वेदवती को ऋषिप्रोक्त विधि से तपस्या में संलग्न देखा। उसे देख कर वह काममोहित हो गया। उसने वेदवती से उसकी तपस्या करने का कारण पूछा। जब उसने बताया कि उसके पिता तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु से उसका विवाह करना चाहते थे किंतु बलाभिमानी दैत्यराज शंभु द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। अतः उसने अपने पिता के मनोरथ को पूरा करने के लिए भगवान नारायण को पति के रूप में पाने की प्रतिज्ञा की है, इसीलिए वह यह महान तप कर रही है। यह सब जान लेने पर भी रावण ने उसे अपनी पत्नी बनाने का प्रलोभन कई बार दिया किंतु वह व्यर्थ गया। जब वह नहीं मानी, तब रावण ने अपने हाथों सेउसके केश पकड़ लिए। इस पर कोधाभिभूत हो वेदवती ने अपने हाथों से अपने केशों को मस्तक से अलग कर दिया। फिर जल कर मरने के लिए उतावली हो, अग्नि की स्थापना करके उस निशाचर को दग्ध करती हुई-सी बोली, 'तुझ पापात्मा ने इस वन में मेरा अपमान किया है, इसलिए मैं तेरे वध के लिए फिर उत्पन्न होऊँगी। यदि मैंने कुछ भी सत्कर्म, दान और होम किए हों तो अगले जन्म मैं सती-साध्वी अयोनिजा कन्या के रूप में प्रकट होऊँ तथा किसी धर्मात्मा पिता की पुत्री बनूँ।' और अग्नि में प्रवेश कर अपने जीवन का अंत कर लिया।
तदन्तर दूसरे जन्म में वह कन्या पुनः एक कमल से प्रकट हुई। लेकिन उस राक्षस ने वहाँ से उस कन्या को प्राप्त कर लिया तथा अपने घर ले गया। उसने मंत्री को वह कन्या दिखाई। बालक-बालिका के लक्षणों को जानने वाले उस मंत्री ने कन्या को अच्छी तरह देखकर रावण को बताया, 'यह सुंदर कन्या यदि घर में रही तो आपकी मृत्यु का कारण होगी।' इस पर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। तत्पश्चात् वह कन्या समुद्र में बहती हुई राजा जनक के यज्ञमंडप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। एक दिन जब राजा जनक स्वयं हाथ में हल लेकर यज्ञ के योग्य क्षेत्र को जोत रहे थे, तभी वह कन्या भूमि से प्रकट हुई। राजा जनक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसके सारे अंगों में धूल लिपटी हुई थी। उस अवस्था में उसे देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन दिनों उनके कोई संतान नहीं थी, इसलिए स्नेहवश राजा जनक ने उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया और उसे पुण्यकर्मपरायणा बड़ी रानी को सौंप दिया जिन्होंने मातृ समुचित सौहार्द से उसका लालन-पालन किया। क्योंकि वह कन्या हल के अग्र भाग से खींची गई रेखा (सीता) से प्रकट हुई थी, इसलिए उसका नाम सीता रखा गया।

लव और कुश का जन्म Birth of Luv and Kush

सीता जहाँ रो रही थीं, वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर ऋषियों के कुछ बच्चे खेल रहे थे। वे उन्हें रोता देख अपने आश्रम की ओर दौड़े और तपस्यारत वाल्मीकि को उनके बारे में सूचना दी, 'भगवन्! गंगातट पर किन्हीं महात्मा नरेश की पत्नी हैं, जो साक्षात् लक्ष्मी के समान जान पड़ती हैं। इन्हें हम लोगों ने पहले कभी नहीं देखा था। वे मोह के कारण विकृत मुख होकर रो रही हैं। ये साध्वी अपने लिए कोई रक्षक ढूँढ रही हैं। अतः आप इनकी रक्षा करें।' ऋषि ने अपने तपोबल से प्राप्त दिव्य दृष्टि से सब बातें जान लीं। जानकर वे उस स्थान पर दौड़े हुए आए, जहाँ सीता विद्यमान थीं। वहाँ पहुँचकर उन्होंने सीता की अनाथ-सी अवस्था को देखा और अपने तेज से उनको प्रसन्न करते हुए कहा, 'महाभागे! तुम्हारा सारा वृतांत मैंने ठीक-ठीक जान लिया है। मैं तपस्या से प्राप्त दिव्यदृष्टि से जानता हूँ कि तुम निष्पाप हो। अब तुम निश्चिंत हो जाओ। इस समय तुम मेरे पास हो। मेरे आश्रम के पास ही कुछ तापसी स्त्रियाँ रहती हैं, जो तपस्या में संलग्न हैं। वे अपनी बच्ची के समान तुम्हारा पालन करेंगी।' मुनि के ऐसा कहने पर सीता उनके पीछे-पीछे चल दीं। मुनि ने उन्हें आश्रम में मुनि-पत्नियों को सौंपते हुए बताया, 'ये परम बुद्धिमान राजा राम की धर्मपत्नी सीता यहाँ आई हैं। सती सीता दशरथ की पुत्रवधु और जनक की पुत्री हैं। निष्पाप होने पर भी पति ने इनका परित्याग कर दिया है। मुझे ही इनका लालन-पालन करना है।अतः आप सब लोग इन पर अत्यंत स्नेह-दृष्टि रखें।' कुछ समय बाद सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिसका समाचार मुनिकुमारों ने वाल्मीकि को जाकर दिया और उन पुत्रों की भूतों और राक्षसों से रक्षा की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। ऋषि वाल्मीकि ने एक कुशाओं का मुट्ठा और उनके लव लेकर रक्षा-विधि का उपदेश देते हुए कहा, 'वृद्धा स्त्रियों को चाहिए कि इन दोनों बालकों में जो पहले उत्पन्न हुआ है, उसका मंत्रों द्वारा संस्कार किए हुए इन कुशों से मार्जन करें। ऐसा करने पर उस बालक का नाम कुश होगा और उनमें जो छोटा है, लव से मार्जन करने पर उसका नाम लव होगा।' इसप्रकार जुड़वाँ हुए दोनों बालकों ने कमशः कुश और लव नाम धारण किए। उस समय शत्रुघ्न वहाँ उपस्थित थे। वे राम द्वारा दिए गए कार्य को पूरा करने के लिए जाते हुए रास्ते में वाल्मीकि के आश्रम में रुके थे। उनके कानों में राम और सीता के नाम, गोत्र के उच्चारण की ध्वनि पड़ी, साथ ही सीता के दो पुत्रों के होने का संवाद भी प्राप्त हुआ। तब वे सीता के पास जाकर उनसे मिले। उसके बाद ऋषि की आज्ञा से वे आगे जाने के लिए चल दिए।

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