मां उमा की महिमा

मां उमा की महिमा glory of mother uma

कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥ 403

यह दोहे भगवान तुलसीदास जी के हैं। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
कह - कहते हैं
मुनि - संत, महात्मा
बिहसि - हँसते हुए
गूढ़ - गम्भीर
मृदु - मीठी
बानी - बोली
सुता - हे पुत्री
तुम्हारि - तुम्हारी
सकल - सभी
गुन - गुण
खानी - खाती हैं
सुंदर - सुंदर
सहज - साधारण
सुसील - शीलवान
सयानी - बुद्धिमान
नाम - नाम
उमा - पार्वती
अंबिका - देवी
भवानी - देवी
इस दोहे में कहा गया है कि महात्मा सुखदाता भगवान शिव उनकी सुन्दर, सादगी से भरी, गम्भीर और मीठी बोली को सुनकर उनकी सभी गुणों की प्रशंसा करते हैं। वह सुंदर, सादगी से भरी, शीलवान और बुद्धिमान देवी अंबिका, भवानी हैं।

सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥ 404

यह दोहे भगवान तुलसीदास जी के हैं। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
सब - सभी
लच्छन - गुण, लक्षण
संपन्न - सम्पन्न
कुमारी - कन्या
होइहि - होती है
संतत - संतान
पियहि - प्रियतमा
पिआरी - प्यारी
सदा - हमेशा
अचल - स्थिर, अचल
एहि - यह
कर - करती
अहिवाता - अभ्यस्त, सीखा हुआ
एहि - यह
तें - तक
जसु - जैसा
पैहहिं - पाती हैं
पितु - पिता
माता - माँ
इस दोहे में कहा गया है कि सभी गुणों से सम्पन्न कन्या संतान के लिए प्रिय होती है। वह हमेशा स्थिर होकर इस तरह के लक्षणों से शिक्षित होती है, जिससे वह पिता और माँ को प्राप्त होती है।

होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा॥405

यह दोहे भगवान तुलसीदास जी के हैं। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
होइहि - होती है
पूज्य - पूजनीय
सकल - सभी
जग - जगत, दुनिया
माहीं - में
एहि - यह
सेवत - सेवा करती
कछु - कुछ
दुर्लभ - दुर्लभ, मुश्किल
नाहीं - नहीं
कर - करते
नामु - नाम (भगवान का नाम)
सुमिरि - ध्यान में रखकर
संसारा - संसार
त्रिय - तीनों
चढ़हहिँ - चढ़ते हैं
पतिब्रत - पतिव्रता
असिधारा - अनुसरण करती हैं
इस दोहे में कहा गया है कि जो व्यक्ति जगत में पूजनीय होता है और जो भगवान का नाम संसार में सेवा करता है, वह कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। त्रियों लोकों में पतिव्रता अनुसरण करती हैं और भगवान का नाम संसार में ध्यान में रखती हैं।

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥ 406

यह दोहे भगवान तुलसीदास जी के हैं। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
सैल - पति, सुलच्छन - पत्नी
सुता - पुत्री
तुम्हारी - आपकी
सुनहु - सुनो
जे - जो
अब - अब
अवगुन - दोष, अच्छा नहीं
दुइ चारी - दो-चार
अगुन - दोषहीन
अमान - अमानवीय, निर्मानवी
मातु - माँ
पितु - पिता
हीना - विहीन, अवचेतन
उदासीन - उदास, बेपरवाह
सब - सभी
संसय - संदेह
छीना - दूर कर दिया
इस दोहे में कहा गया है कि पति, पत्नी और पुत्री, आपके लिए सुनिश्चित करें कि अब कोई भी दोष न बचा हो। दोषरहित, निर्मानवीय, माँ-पिता से विहीन, बेपरवाह और सभी संदेह दूर कर दिए गए हैं।

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥ 407

यह श्लोक तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है और इसका अर्थ है:
"जोगी अपने बालों को जटिल बनाता है, अपने मन को अकाम (इच्छा रहित) रखता है, अपने शरीर को नग्न रखता है और अपने विशेष वेशभूषा से अमंगल (अशुभ) दिखता है।
ऐसे स्वामी को मैं यह कहता हूँ कि इस रूप में मिलिए, परंतु इसी हाथ की रेखा से यह पता चलता है कि वह परी का हाथ नहीं है।"
यह श्लोक मनुष्य को ध्यान में रहने, इच्छा रहित होने और सार्मथ्यपूर्ण बने रहने की महत्ता को बताता है, और अभिज्ञान की महत्ता को भी उजागर करता है।

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