पिता भवन भवानी दर्शन Pita Bhavan Bhavani Darshan
यह एक चौपाई है जो देवी भवानी की महिमा को व्यक्त करती है। इसमें कहा गया है कि जब पिताजी भवानी मंदिर गए, तो देवी ने उन्हें त्रास नहीं दिया। वे सम्मान के साथ एक मां की तरह स्वागत किये गए, लेकिन देवी भवानी ने उन्हें अपनी बहनों के साथ बहुत प्यार से संग देखा।पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥387
पिता - पिता
भवन - घर
जब - जब
गई - गई
भवानी - पार्वती (शिव की पत्नी)
दच्छ - दक्ष
त्रास - त्रास
काहुँ - किसी को
न - नहीं
सनमानी - सम्मान दिया
सादर - विनम्रता से
भलेहिं - मिली
माता - माँ
भगिनीं - बहनें
मिलीं - मिली
बहुत - बहुत
मुसुकाता - खुशी
इस दोहे में कहा गया है कि जब माता पार्वती पिता के घर गईं, तो दक्ष ने किसी को भी सम्मान नहीं दिया। वह विनम्रता से माँ से मिली, लेकिन बहनों को बहुत खुशी हुई।
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥ 388
यह दोहे भगवान तुलसीदास जी के हैं। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
दच्छ - दक्ष
न - नहीं
कछु - कुछ
पूछी - पूछा
कुसलाता - कुशल (हाल-चाल पूछनेवाला)
सतिहि - सीता (सती)
बिलोकि - देखकर
जरे - जला
सब - सभी
गाता - गाता है
सतीं - सती (सीता)
जाइ - जाकर
देखेउ - देखा
तब - तब
जागा - जागा (संभु ने अचानक जागा)
कतहुँ - कहीं
न - नहीं
दीख - दिखे
संभु - भगवान शिव
कर - किया
भागा - भागा
इस दोहे में कहा गया है कि दक्ष ने सीता से कुछ नहीं पूछा, लेकिन जब सीता को देखा, तो उसके आसपास सब कुछ जला दिया। जब संभु ने सीता को देखा, तो वे कहीं नहीं दिखे, वे भाग गए।
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥389
तब - जब
चित - चेतना
चढ़ेउ - चढ़ाई जाए
जो - जो
संकर - शिव (संभु)
कहेऊ - कहते हैं
प्रभु - प्रभु (भगवान)
अपमानु - अपमान
समुझि - समझकर
उर - ह्रदय
दहेऊ - जलाए
पाछिल - पिछला
दुखु - दुःख
न - नहीं
हृदयँ - हृदय
अस - है
ब्यापा - भरा हुआ
जस - जैसा
यह - यह
भयउ - डराता है
महा - बहुत
परितापा - पीड़ा
इस दोहे में कहा गया है कि जब शिव कहते हैं कि प्रभु को अपमान समझकर ह्रदय को जला दें, तो पिछला दुःख हृदय में नहीं बसता, जैसा कि यह भय बहुत पीड़ा देता है।
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥390
जद्यपि - यद्यपि
जग - दुनिया
दारुन - दुःखदायक
दुख - दुःख
नाना - अनेक
सब - सभी
तें - से
कठिन - कठिन
जाति - प्रकार
अवमाना - अपमानित
समुझि - समझकर
सो - वह
सतिहि - सीता
भयउ - डरती थी
अति - बहुत
क्रोधा - क्रोध
बहु - बहुत
बिधि - तरीके
जननीं - जननी (माँ)
कीन्ह - किया
प्रबोधा - समझाना
इस दोहे में कहा गया है कि जब दुनिया में अनेक दुःख होते हैं और सभी प्रकार का अपमान होता है, तो सीता वहाँ बहुत क्रोधित हो गई थी और बहुत तरीके से माँ को समझाने का प्रयास किया।
सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥391
"शिव के अपमान का सही तरीके से नहीं होना चाहिए, क्योंकि उनके हृदय में कभी भी विकार नहीं होता है।
जब सभी शत्रुओं को हटा दिया जाता है और सभी क्रोध का समापन हो जाता है, तब वह वचन कहते हैं जो सही हैं।"
यह श्लोक भगवान शिव की अद्वितीयता, प्रशांतता, और सत्यपरायणता को बताता है और उनके विशेष गुणों की महिमा की गई है।
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