रामचरितमानस राम भक्ति और प्रेम "Ramcharitmanas Ram devotion and love
नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥367
यह भी तुलसीदास जी का दोहा है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
नित - हर समय
नव - नई
सोचु - सोचता हूं
सतीं - सती रामायण (सीता)
उर - हृदय
भारा - भार
कब - कभी
जैहउँ - जाऊँ
दुख - दुःख
सागर - समुद्र
पारा - पार
मैं - मैंने
जो - जो
कीन्ह - किया
रघुपति - रघुकुल के पति (श्रीराम)
अपमाना - अपमान
पुनि - फिर
पतिबचनु - पति के वचन
मृषा - झूठा
करि - करके
जाना - माना
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हमें हमेशा नई और सात्त्विक सोच को अपने हृदय में रखना चाहिए, जिससे कि हम कभी भी दुःख के समुद्र को पार कर सकें। उन्होंने यहाँ सीता महात्मा के उत्तम उदाहरण के माध्यम से बताया है कि वे श्रीराम के अपमान को किया, परन्तु फिर भी पति के वचनों को झूठा मानकर चली गईं।
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही368
यह दोहा भी तुलसीदास जी का है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
सो - वही
फलु - फल (परिणाम)
मोहि - मुझे
बिधाताँ - विधाता (भगवान)
दीन्हा - दिया
जो - जो
कछु - कुछ
उचित - उचित
रहा - रहा
सोइ - वही
कीन्हा - किया
अब - अब
बिधि - भाग्य
अस - है
बूझिअ - समझा जा सके
नहिं - नहीं
तोही - फिर भी
संकर - शिव
बिमुख - विमुख (अनादर में)
जिआवसि - जीवन
मोही - मुझे
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि भगवान ने मुझे वही फल दिया है जो मेरे लिए उचित था। अब मैं समझता हूं कि जो भाग्य मुझे मिला है, वही सही है। अगर मैं उसमें समझने की क्षमता नहीं रखता, तो शिव जी मुझे अपनी अनादर में जीवन व्यतीत करने के लिए विमुख बना देंगे।
कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥369
यह दोहा भगवान तुलसीदास जी का है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
कहि - कहूं
न - नहीं
जाई - जाना जा सके
कछु - कुछ
हृदय - हृदय (दिल)
गलानी - छुपाना
मन - मन
महुँ - में
रामहि - राम को
सुमिर - स्मरण करता
सयानी - बुद्धिमान
जौं - जब
प्रभु - प्रभु (भगवान)
दीनदयालु - दीनों के दयालु (दयालु और दीनों के प्रिय)
कहावा - कहते हैं
आरति - आरती
हरन - हरि (भगवान)
बेद - वेद
जसु - जिसकी
गावा - गाते हैं
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि अपने हृदय में कुछ भी छुपाने का प्रयास न करें, बल्कि मन से राम का स्मरण करना है। भगवान को जब दीनता और दयालुता का प्रिय कहते हैं, तो उनकी आरती गाने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उनकी आरती वेदों की जय गाने में है।
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥370
यह दोहा तुलसीदास जी का है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
तौ - तो
मैं - मैं
बिनय - विनती
करउँ - करता हूं
कर - कृपा
जोरी - जुटाता हूं
छूटउ - मुक्ति पाऊं
बेगि - जल्दी
देह - शरीर
यह - यह
मोरी - मेरा
जौं - जो
मोरे - मेरे
सिव - सिवाय
चरन - पादुका
सनेहू - प्रेम
मन - मन
क्रम - चरण
बचन - वचन
सत्य - सत्य
ब्रतु - व्रत (प्रतिज्ञा)
एहू - यह
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि मैं विनती करता हूं और कृपा की जोरी जुटाता हूं ताकि मुझे जल्दी ही मेरे शरीर से मुक्ति प्राप्त हो सके। मेरे मन में सिवाय भगवान के पादुका के प्रेम के अन्य कोई भाव नहीं हैं, और मेरे मन, चरण और वचन सच्चे व्रत हैं।
तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहि बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥ 371
यह श्लोक भी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है और इसका अर्थ है:
तू सब कुछ श्रद्धाभक्ति से सुनता है, प्रभु, और मैं वह तुझे जल्दी ही प्राप्त करना चाहता हूँ।
जिस रूप में मरना है, वह अवस्था बिना किसी प्रयास के ही दुःखों की स्थिति को परिभाषित करती है। इसमें कोई श्रम नहीं है, और यह बिपत्तियों को दूर करती है।
यह श्लोक भक्ति और साधना के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति की महत्ता को बताता है, और यह भी दिखाता है कि मृत्यु भी भगवान की अनुमति के बिना नहीं हो सकती है।
टिप्पणियाँ