रामकथा: रघुकुल प्रशंसा Ramkatha: Raghukul praise
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥ 351
श्लोक का अर्थ:-
"हे रघुकुलश्रेष्ठ! तुम्हें सती मानकर मैंने भगवान शिव की पूजा की है। भगवान शिव ने मेरी समस्त भयों को दूर कर दिया है। मैंने तुम्हारी परीक्षा नहीं ली है, हे गोस्वामी! बस तुम्हारे सम्मुख ही मैंने नमस्कार किया है।"
इस श्लोक में तुलसीदासजी रामभक्ति के महत्व को बता रहे हैं और यह दिखा रहे हैं कि भगवान की पूजा में समर्पण से सभी भयों का नाश हो सकता है। इसके आलावा, भक्ति में अनान्यता और समर्पण का महत्व भी बताया गया है।
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥ 352
यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमती राधारानी के दिव्य लीला से संबंधित है और इसे जयदेव गोस्वामी के "गीत गोविन्द" से लिया गया है। यह एक प्रेम भरा श्लोक है जो भक्ति और देवों के साथ एकीकृति की भावना को व्यक्त करता है।
श्लोक का अर्थ:-
"जो तुमने कहा है, वह न कभी झूठा होता है और मेरा मन उसी में लीन हो जाता है। तब मैं शंकर की ध्यान रूप में तुम्हें देखता हूँ, जिसने सती (शक्ति) के साथ मिलकर सारे चरित्र की रचना की है।"
इस श्लोक में, जयदेव गोस्वामी भक्ति और प्रेम के माध्यम से भगवान के साथ एकीकृति की भावना को व्यक्त कर रहे हैं। यहां भक्ति के माध्यम से भगवान के साथ एक संबंध स्थापित करने का महत्वपूर्ण संदेश है, जिससे आत्मा भगवान के साथ एक हो जाती है।
बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥353
श्लोक का अर्थ:-
"बहुत बार, भगवान राम के कारण श्रुति-स्मृति रहित रावण ने झूठ बोला है, जो उसे सती मंदोदरी ने प्रेरित किया है। हरि की इच्छा हमेशा बलवान होती है और बुद्धिमान संभु उसे हृदय में विचारते हैं।"
इस श्लोक में सती मंदोदरी ने रावण को उसके झूठों की चेतावनी दी है और उसे भगवान राम के प्रति सच्ची श्रद्धा और आत्मसमर्पण की आवश्यकता बताई है। इसमें भक्ति और सत्य के महत्व का समर्थन है, जो भगवान की इच्छा को समझने और अनुसरण करने में सहायक हैं।
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥ 354
यह श्लोक तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है और इसमें सती, सीता और भगवान शिव के संबंध में बताया गया है। इसमें भक्ति और प्रेम के माध्यम से दिव्य भावनाएं व्यक्त की जाती हैं।
श्लोक का अर्थ:-
"सती ने सीता के रूप में विषेश भूषण पहना, जिससे शिवजी ने भी विषादित हो गए। अब मैं सती बनकर प्रेम से भगवान शिव की पूजा करता हूँ, इससे भक्ति का मार्ग होता है और अनीति (अधर्म) का नाश होता है।"
इस श्लोक में भक्ति और प्रेम के माध्यम से भगवान की पूजा करने का महत्वपूर्ण संदेश है। सती ने सीता के रूप में बिशेष रूप से भगवान राम की पूजा की, जिससे शिवजी को विषाद हुआ। इसके बाद वह सती बनकर भगवान शिव की पूजा करते हैं और इससे उनका भक्ति में समर्पण होता है और अनैतिकता दूर हो जाती है।
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥ 355
श्लोक का अर्थ:-
"परम पुनीत नहीं जाता वह, जो प्रेम में अपने को बड़ा पापी मानता है। महेश (भगवान शिव) कुछ भी प्रगट नहीं करते हैं, लेकिन हृदय में उनका बड़ा संताप है।"
यह श्लोक भक्ति में अभिवृद्धि की माध्यम से पुन्य की महत्वपूर्णता और भक्ति में सच्चे प्रेम की आवश्यकता को बताता है। रावण ने तो परम पुनीत का अभ्यास छोड़कर अपने प्रेम में पापी होने का आरोप लगाया है, जिससे उसके हृदय में संताप बना रहता है। यह श्लोक भक्ति में निष्ठा के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को साझा करता है।
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