संकर और राम hybrid and ram
मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥340
इस दोहे में श्रीराम के प्रति भक्ति और आत्मज्ञान की अनिवार्यता को बताया गया है। यह कहता है कि संसार में जब तक आत्मज्ञान नहीं होता, तब तक मनुष्य को आत्मा की असीम अज्ञानता में दुख सहना पड़ता है। जब तक हम अपनी आत्मा को नहीं जानते, तब तक हमारा जीवन अधूरा रहता है।
इस दोहे में श्रीराम को निज अग्यानु राम कहा गया है, जिससे साधक को अपनी अन्तरात्मा का पहचानने का पथ मिलता है। दोहा यह भी कहता है कि दिल में बहुत अधिक दाह (तपता हुआ वातावरण) है, जिससे साधक को अपने आत्मा की प्राप्ति के लिए उत्साहित होना चाहिए।
इस दोहे का सारांश है कि आत्मज्ञान और भगवान के प्रति श्रद्धा के माध्यम से ही मनुष्य अपने जीवन को सच्चे मकसद की दिशा में प्रवृत्त हो सकता है।
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥ 341
इस दोहे में कहा गया है कि जब तक हम भगवान राम के साथ सच्ची भक्ति में रहते हैं, हम सतीं (सत्य) को पा सकते हैं और दुखों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसमें भगवान की प्रगटि (दिव्य स्वरूप की प्रकटि) की चर्चा है, जो साधक को आत्मा की साक्षात्कार में मदद करती है।
दोहा का अर्थ है कि जब साधक भगवान राम के साथ रहता है और उसके साथ है, तो उसे जीवन में सत्य का अनुभव होता है और उसे दुखों का सामना करने की क्षमता मिलती है। साधक भगवान के साथी बनकर आगे बढ़ता है और उसका जीवन श्रीराम की सहायता सहित पूरा होता है।
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥342
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जब भक्त फिर से अपनी चित्ती और विचार में भगवान राम को प्राप्त करता है, तो वह सिया सुंदर (माता सीता और भगवान राम) के साथ अच्छे भगवेष में देखता है।
दोहा में आगे बढ़ते हुए कहा गया है कि जहां चित्त रहता है, वहीं पर भगवान राम आसीन हैं, और वहां सिद्ध, मुनी, और प्रबीना (ज्ञानी) सभी भगवान की सेवा कर रहे हैं। यह दोहा भक्ति और आत्मा के साक्षात्कार की महत्त्वपूर्णता पर ध्यान केंद्रित है।
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥ 343
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि शिव और विष्णु को बहुत रूपों में देखा जा सकता है, लेकिन उनकी अमित प्रभा (अनन्त ज्ञान, शक्ति, और अनुग्रह) एक ही है। इस दोहे में भक्ति भाव से शिव और विष्णु की सेवा करने का सुझाव दिया गया है।
दोहा में भगवान के पादों की सेवा करने का महत्त्व भी बताया गया है, और यह कहा गया है कि भक्त जो भी रूप, बेश, और विधियों में देवताओं को देखता है, सभी वही भगवान के विभिन्न रूपों में हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी देवताएं एक ही परमात्मा के विभिन्न रूप हैं।
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥ 344
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जब भगवान को देखा जाता है, तो उनकी अनन्त अमृत स्वरूप दृष्टि से उनकी अनूप सुंदरता को देखा जा सकता है। जैसा कि सूरज को देखने के लिए अजादिरूप से आंधी बाधित नहीं होती, ठंडक और उष्णता के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता है, वैसे ही भगवान का दर्शन करने वाले व्यक्ति को भगवान का स्वरूप अनुरूप होता है।
इस दोहे से यह सिद्ध होता है कि भगवान का स्वरूप अनन्त है और वह सभी देवताओं के अद्वितीय स्वरूप में हैं। यह भक्ति भाव के माध्यम से उनके अद्वितीयता को समझने की बात करता है।
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