संकर और राम

संकर और राम hybrid and ram

मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥340

यह श्लोक तुलसीदास जी के एक प्रसिद्ध रचना "रामचरितमानस" से है। यह दोहा भगवान राम की अद्वितीयता और आत्मज्ञान की महत्ता पर आधारित है।
इस दोहे में श्रीराम के प्रति भक्ति और आत्मज्ञान की अनिवार्यता को बताया गया है। यह कहता है कि संसार में जब तक आत्मज्ञान नहीं होता, तब तक मनुष्य को आत्मा की असीम अज्ञानता में दुख सहना पड़ता है। जब तक हम अपनी आत्मा को नहीं जानते, तब तक हमारा जीवन अधूरा रहता है।
इस दोहे में श्रीराम को निज अग्यानु राम कहा गया है, जिससे साधक को अपनी अन्तरात्मा का पहचानने का पथ मिलता है। दोहा यह भी कहता है कि दिल में बहुत अधिक दाह (तपता हुआ वातावरण) है, जिससे साधक को अपने आत्मा की प्राप्ति के लिए उत्साहित होना चाहिए।
इस दोहे का सारांश है कि आत्मज्ञान और भगवान के प्रति श्रद्धा के माध्यम से ही मनुष्य अपने जीवन को सच्चे मकसद की दिशा में प्रवृत्त हो सकता है।

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥ 341

यह भी एक दोहा है तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से, जो भगवान राम के महत्त्वपूर्ण गुणों और भक्ति के महत्त्व को बताता है।
इस दोहे में कहा गया है कि जब तक हम भगवान राम के साथ सच्ची भक्ति में रहते हैं, हम सतीं (सत्य) को पा सकते हैं और दुखों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसमें भगवान की प्रगटि (दिव्य स्वरूप की प्रकटि) की चर्चा है, जो साधक को आत्मा की साक्षात्कार में मदद करती है।
दोहा का अर्थ है कि जब साधक भगवान राम के साथ रहता है और उसके साथ है, तो उसे जीवन में सत्य का अनुभव होता है और उसे दुखों का सामना करने की क्षमता मिलती है। साधक भगवान के साथी बनकर आगे बढ़ता है और उसका जीवन श्रीराम की सहायता सहित पूरा होता है।

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥342

यह भी एक दोहा है जो "रामचरितमानस" से है, और इसमें भगवान राम के दर्शन और उनके साथीत्व की महिमा का वर्णन है।
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जब भक्त फिर से अपनी चित्ती और विचार में भगवान राम को प्राप्त करता है, तो वह सिया सुंदर (माता सीता और भगवान राम) के साथ अच्छे भगवेष में देखता है।
दोहा में आगे बढ़ते हुए कहा गया है कि जहां चित्त रहता है, वहीं पर भगवान राम आसीन हैं, और वहां सिद्ध, मुनी, और प्रबीना (ज्ञानी) सभी भगवान की सेवा कर रहे हैं। यह दोहा भक्ति और आत्मा के साक्षात्कार की महत्त्वपूर्णता पर ध्यान केंद्रित है।

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥ 343

यह दोहा भगवान विष्णु और शिव की अद्वितीयता को बताता है और भक्ति के माध्यम से इन दोनों के सेवा का महत्त्व बताता है। यह भी "रामचरितमानस" से है:
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि शिव और विष्णु को बहुत रूपों में देखा जा सकता है, लेकिन उनकी अमित प्रभा (अनन्त ज्ञान, शक्ति, और अनुग्रह) एक ही है। इस दोहे में भक्ति भाव से शिव और विष्णु की सेवा करने का सुझाव दिया गया है।
दोहा में भगवान के पादों की सेवा करने का महत्त्व भी बताया गया है, और यह कहा गया है कि भक्त जो भी रूप, बेश, और विधियों में देवताओं को देखता है, सभी वही भगवान के विभिन्न रूपों में हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सभी देवताएं एक ही परमात्मा के विभिन्न रूप हैं।

सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥ 344

यह दोहा भगवान रामचरितमानस से है और इसमें भगवान की अनन्त विभूतियों का वर्णन है।
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जब भगवान को देखा जाता है, तो उनकी अनन्त अमृत स्वरूप दृष्टि से उनकी अनूप सुंदरता को देखा जा सकता है। जैसा कि सूरज को देखने के लिए अजादिरूप से आंधी बाधित नहीं होती, ठंडक और उष्णता के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता है, वैसे ही भगवान का दर्शन करने वाले व्यक्ति को भगवान का स्वरूप अनुरूप होता है।
इस दोहे से यह सिद्ध होता है कि भगवान का स्वरूप अनन्त है और वह सभी देवताओं के अद्वितीय स्वरूप में हैं। यह भक्ति भाव के माध्यम से उनके अद्वितीयता को समझने की बात करता है।

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