शिव भक्ति की महिमा glory of shiva bhakti
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥418
सुरसरि - समुद्र
जल - पानी
कृत - किया हुआ
बारुनि - वारुण (जल के देवता)
जाना - जानता है
कबहुँ - कभी नहीं
न - नहीं
संत - साधु
करहिं - करते हैं
तेहि - वही
पाना - पाते हैं
सुरसरि - समुद्र
मिलें - मिलता है
सो - वह
पावन - पवित्र
जैसें - जैसा
ईस - इस (साधुता)
अनीसहि - अनुसार
अंतरु - भीतर
तैसें - वैसा
इस दोहे में कहा गया है कि समुद्र का पानी वारुण देवता को भी जानता है, लेकिन कभी संत वही जानकर भी पाते नहीं। समुद्र से मिलने वाला पानी वैसा ही पवित्र होता है जैसे साधुता का अनुसार भीतरी शुद्धि होती है।
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥419
संभु - भगवान शिव
सहज - स्वाभाविक
समरथ - सर्वशक्तिमान
भगवाना - परमात्मा
एहि - यह
बिबाहँ - विवाह
सब - सभी
बिधि - प्रकार
कल्याना - मंगल
दुराराध्य - दुर्लभ
पै - पानी
अहहिं - अब
महेसू - भगवान शिव
आसुतोष - संतोष
पुनि - फिर
किएँ - करते हैं
कलेसू - उपकार
इस दोहे में कहा गया है कि भगवान शिव के विवाह से सभी प्रकार का मंगल होता है और वे दुर्लभ होने के कारण भी फिर संतुष्ट होते हैं।
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥420
जौं - जो
तपु - तपस्या
करै - करती है
कुमारि - कन्या (पार्वती)
तुम्हारी - आपकी
भाविउ - सोचते हैं
मेटि - मिटा देता है
सकहिं - सकता है
त्रिपुरारी - शिव
जद्यपि - यद्यपि
बर - भूत
अनेक - अनेक
जग - लोकों में
माहीं - हैं
एहि - इसमें
कहँ - कहते हैं
सिव - शिव
तजि - छोड़कर
दूसर - अन्य
नाहीं - नहीं
इस दोहे में कहा गया है कि जब भी कोई कन्या (पार्वती) आपकी तपस्या करती है, तो भगवान शिव ही उनकी सोच मिटा सकते हैं। यद्यपि भूत अनेक जगों में होते हैं, लेकिन कहते हैं कि शिव को छोड़कर अन्य कोई नहीं होता।
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥421
बर - भक्त
दायक - दाता
प्रनतारति - शरणागत
भंजन - संसार का भंजन (निराकरण)
कृपासिंधु - कृपा का समुद्र
सेवक - सेवक
मन - मन
रंजन - हरषित करने वाला
इच्छित - वांछित
फल - फल
बिनु - बिना
सिव - शिव
अवराधें - अवरोध करते हैं
लहिअ - प्राप्त करते हैं
न - नहीं
कोटि - करोड़ों
जोग - तपस्या
जप - मन्त्रजप
साधें - करते हैं
इस दोहे में कहा गया है कि भक्त जो शरणागत हैं, वे भगवान के दास हैं और उनके मन को भगवान की कृपा समुद्र से भरकर हर्षित करती है। शिव के बिना वांछित फल प्राप्त नहीं होता, चाहे वे कितनी भी तपस्या या मन्त्रजप करें।
अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥422
"नारद ने भगवान हरि का स्मरण करते हुए गिरिजा (पार्वती) को आशीर्वाद दिया।
अब तुम इस महान कल्याण को प्राप्त करो, इसमें कोई संदेह नहीं है, गिरीश (शिव) को त्यागो।"
यह श्लोक भक्ति और साधना के माध्यम से परमात्मा की कृपा की प्राप्ति की महत्ता को बताता है और समर्थ भगवान शिव की आराधना के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति को प्रेरित करता है।
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