कबीर दास के दोहे (Sant Kabir Das Ji),Kabeer Daas Ke Dohe

कबीर दास के दोहे (Sant Kabir Das Ji)

  • कबीर के महान कार्य 
सूफ़ी कवि ने दोहा और गीत सहित 72 पुस्तकें लिखीं। उनके कुछ महत्वपूर्ण संग्रहों में कबीर बीजक, पवित्र आगम, वसंत, मंगल, सुखनिधान, सबदस, साखियाँ और रेख्ता शामिल हैं।  उन्होंने जीवन के मूल्यों को दर्शाते हुए अपने दोहे निर्भीकता और स्वाभाविकता से लिखे। इसके अलावा, उन्होंने अपने दोहे और दोहों में दुनिया के भाव को शामिल किया जो किसी भी तुलना से परे है।
 (Sant Kabir Das Ji),Kabeer Daas Ke Dohe

कबीर दास के दोहे 651 से 700 तक 

उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । 
अधिक हीिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 651 ॥ 
दोहे
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । 
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 652 ॥ 
दोहे
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । 
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 653 ॥ 
दोहे
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । 
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 654 ॥ 
दोहे
अनमाँगा तो अति भला, माँगे लिया नहिं दोष । 
उदर समाता माँगि ले, निश्चय पावै योष ॥ 655 ॥ 
दोहे
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । 
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 656 ॥ 
दोहे
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । 
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 657 ॥ 
दोहे
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । 
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 658 ॥ 
दोहे
मन दिया कहूँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 659 ॥ 
दोहे
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । 
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 660 ॥ 
दोहे
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । 
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 661॥ 
दोहे
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । 
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 662 ॥ 
दोहे
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । 
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 663 ॥ 
दोहे
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । 
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 664 ॥ 
दोहे
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । 
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 665 ॥ 
दोहे
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । 
काची सरसों पेरिके, खरी भया न तेल ॥ 666 ॥ 
दोहे
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । 
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 667 ॥ 
दोहे
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । 
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 668 ॥ 
दोहे
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । 
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 669 ॥ 
दोहे
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । 
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 670॥ 
दोहे
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । 
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 671 ॥ 
दोहे
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । 
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 672 ॥ 
दोहे
जीवन जीवन रात मद्‌, अविचल रहै न कोय । 
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 673 ॥ 
दोहे
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । 
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 674 ॥ 
दोहे
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । 
ऐसे संग छछुन्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 675 ॥ 
दोहे
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । 
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 676 ॥ 
दोहे
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । 
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 677 ॥ 
दोहे
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । 
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 678 ॥ 
दोहे
तरूवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । 
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 679 ॥ 
दोहे
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । 
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 680 ॥ 
दोहे
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । 
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 681॥ 
दोहे
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । 
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 682 ॥ 
दोहे
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । 
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 683 ॥ 
दोहे
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । 
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 684 ॥ 
दोहे
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । 
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 685 ॥ 
दोहे
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । 
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 686 ॥
दोहे
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । 
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 687 ॥
दोहे
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । 
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 688 ॥
दोहे
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । 
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 689 
दोहे
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । 
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवे सो खाय ॥ 690 ॥
दोहे
दया हृदय में राखिये तूं क्यों निरद्य होय। 
सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ॥691॥
दोहे
भाव भाव में सिद्धि है भाव भाव में भेद । 
जो मानो तो देव है नहीं तो भींत क लेव ॥692॥
दोहे
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । 
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥693॥
दोहे
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । 
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 694 ॥
दोहे
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । 
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 695॥
दोहे
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । 
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 696 ॥
दोहे
आशा करे बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । 
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 697॥ 
दोहे
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । 
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 698॥
दोहे
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । 
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 699 ॥
दोहे
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, कया नियरै क्या दूर । 
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 700

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