संत कबीर दास के 50 दोहे और संत कबीर का दर्शन एवं काव्य ,50 couplets of Sant Kabir Das and philosophy and poetry of Sant Kabir
संत कबीर दास के 50 दोहे और संत कबीर का दर्शन एवं काव्य
- संत कबीर का दर्शन एवं काव्य
कबीर दास पहले भारतीय कवि और संत हैं जिन्होंने धर्मों के लिए एक सार्वभौमिक मार्ग बताकर हिंदू धर्म और इस्लाम का समन्वय किया। तब हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर उनके दर्शन का अनुसरण किया। उनका मानना है कि हम जिस भी रिश्ते में रहते हैं, उसमें दो सिद्धांत होते हैं, यानी परमात्मा और जीवात्मा। साइट ने सुझाव दिया कि मोक्ष रिश्ते के इन दिव्य सिद्धांतों को एकजुट करने की प्रक्रिया है। हालाँकि, कबीर का बीजक उनके आध्यात्मिक पथ के दर्शन को दर्शाता है। उन्होंने भक्ति और सूफी विचारों और ईश्वर में एकता पर अपना भरोसा दिखाया। कवि अक्सर अपने तथ्यात्मक गुरु का अनुसरण करते हुए अपनी कविताओं की रचना स्पष्ट एवं संक्षिप्त शैली में करते थे। कविताएँ श्लोक और साखी थीं। कविताओं ने कबीर पंथियों को उनकी विचारधाराओं पर चलने का एक और रास्ता दिया।
50 couplets of Sant Kabir Das and philosophy and poetry of Sant Kabir |
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- कबीर किस लिए प्रसिद्ध है
कबीर दास (1398-1518) 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उनके लेखन ने हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया, और उनके छंद सिख धर्म के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब, संत गरीब दास के सतगुरु ग्रंथ साहिब और कबीर सागर में पाए जाते हैं।
- संत कबीर के गुरु का क्या नाम था
संत कबीर ने अपना आध्यात्मिक प्रशिक्षण रामानंद नामक गुरु से प्राप्त किया। कबीर 15वीं सदी के रहस्यवादी, कवि और संत थे।
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संत कबीर दास के 50 दोहे 601 से 650 तक
बँधा पानी निर्मला, जो टूक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 601 ॥
दोहे
एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 602 ॥
दोहे
जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 603 ॥
दोहे
उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 604 ॥
दोहे
तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 605 ॥
दोहे
तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 606 ॥
दोहे
ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 607 ॥
दोहे
आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 608 ॥
दोहे
जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 609 ॥
दोहे
कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 610 ॥
दोहे
सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 611 ॥
दोहे
सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 612 ॥
दोहे
संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 613 ॥
दोहे
मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन््त ॥ 614 ॥
दोहे
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 615 ॥
दोहे
सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 616 ॥
दोहे
आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 617 ॥
दोहे
आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 618 ॥
दोहे
यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 619 ॥
दोहे
कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 620 ॥
दोहे
साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 621 ॥
दोहे
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 622 ॥
दोहे
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 623 ॥
दोहे
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 624 ॥
दोहे
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 625 ॥
दोहे
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 626 ॥
दोहे
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि' जाय ।
कबीर जल और सनन््तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 627 ॥
दोहे
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 628 ॥
दोहे
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 629 ॥
दोहे
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 630 ॥
दोहे
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 631 ॥
दोहे
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 632 ॥
दोहे
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 633 ॥
दोहे
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 634 ॥
दोहे
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । है
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 635 ॥
दोहे
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 636 ॥
दोहे
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 637 ॥
दोहे
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 638 ॥
दोहे
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 639 ॥
दोहे
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 640 ॥
दोहे
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 641॥
दोहे
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 642॥
दोहे
'फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 643 ॥
दोहे
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 644 ॥
दोहे
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 645 ॥
दोहे
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 646 ॥
दोहे
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 647 ॥
दोहे
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँग भीख ॥ 648 ॥
दोहे
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 649 ॥
दोहे
माँगन-मरण समान है, तोहि दरई मैं सीख ।
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 650 ॥
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