अग्नि पुराण - तिहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 73 Chapter !

अग्नि पुराण - तिहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 73 Chapter !

अग्नि पुराण तिहत्तरवाँ अध्याय सूर्यपूजाकी विधि का वर्णन !सूर्यपूजाविधिः !

अग्नि पुराण - तिहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 73 Chapter !

अग्नि पुराण - तिहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 73 Chapter !

ईश्वर उवाच
वक्ष्ये सूर्यार्चनं स्कन्द कराङ्गन्यासपूर्वकं ।
अहं तेजोमयः सूर्य इति ध्यात्वार्घ्यमर्चयेत् ॥००१॥

पूरयेद्रक्तवर्णेन ललाटाकृष्टविन्दुना ।
तं सम्पूज्य रवेरङ्गैः कृत्वा रक्षावगुण्ठनं ॥००२॥

सम्प्रोक्ष्य तज्जलैर् द्रव्यं पूर्वास्यो भानुमर्चयेत् ।
ॐ अं हृद्वीजादि1 सर्वत्र पूजनं दण्डिपिङ्गलौ ॥००३॥

द्वारि दक्षे वामपार्श्वे ईशाने अं गणाय च ।
अग्नौ गुरुं पीठमध्ये प्रभूतं चासनं यजेत् ॥००४॥

अग्न्यादौ विमलं सारमाराध्यं परमं सुखं ।
सितरक्तपीतनीलवर्णान् सिंहनिभान् यजेत् ॥००५॥

पद्ममध्ये रां च दीप्तां रीं सूक्ष्मां रं जयां
रूं भद्रां रें विभूतीश् च विमलां रैममोघया ॥००६॥

रों रौं विद्युता शक्तिं पूर्वाद्याः सर्वतोमुखाः ।
रं मध्ये अर्कासनं स्यात् सूर्यमूर्तिं षडक्षरं ॥००७॥

ॐ हं खं खोल्कयेति यजेदावाह्य भास्करं ।
ललाटाकृष्टमञ्जल्यां ध्यात्वा रक्तं न्यसेद्रविं ॥००८॥

ह्रां ह्रीं सः1 सूर्याय नमो मुद्रयावाहनादिकं ।
विधाय प्रीतये विम्बमुद्रां गन्धादिकं ददेत् ॥००९॥

पद्ममुद्रां बिल्वमुद्रां प्रदर्श्याग्नौ हृदीरितं ।
ॐ आं हृदयाय नमः अर्काय शिरसे तथा ॥०१०॥

भूर्भुवः स्वः सुरेशाय शिखायै2 नैरृते यजेत् ।
हुं कवचाय3 वायव्ये हां नेत्रायेति4 मध्यतः ॥०११॥

वः अस्त्रायेति पूर्वादौ ततो मुद्राः प्रदर्शयेत् ।
धेनुमुद्रा हृदादीनां गोविषाणा च नेत्रयोः ॥०१२॥

अस्त्रस्य त्रासनी योज्या ग्रहणां च नमस्क्रिया ।
सों सोमं बुं बुधं वृञ्च जीवं भं भार्गवं यजेत् ॥०१३॥

दले पूर्वादिके ऽग्न्यादौ अं भौमं शं शनैश् चरं ।
रं राहुं कें केतवे च गन्धाद्यैश् च खखोल्कया ॥०१४॥

मूलं जप्त्वार्घ्यपात्राम्बु दत्वा सूर्याय संस्तुतिः ।
नत्वा पराङ्मुखञ्चार्कं5 क्षमस्वेति ततो वदेत् ॥०१५॥

शराणुना फडन्तेन समाहत्याणुसंहृतिं ।
हृत्पद्मे शिवसूर्येतिसंहारिण्योपसंस्कृतिं1 ॥०१६॥

योजयेत्तेजश् चण्डाय रविनिर्माल्यमर्पयेत् ।
अभ्यर्च्यैशे2 जपाद्ध्यानाद्धोमात्सर्वं रवेर्भवेत् ॥०१७॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये देवादिप्रतिष्ठापुस्तकप्रतिष्ठाकथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः।

अग्नि पुराण - तिहत्तरवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 73 Chapter!-In Hindi

महादेवजी कहते हैं- स्कन्द ! अब मैं करन्यास | और अङ्गन्यासपूर्वक सूर्यदेवताके पूजनकी विधि बताऊँगा। 'मैं तेजोमय सूर्य हूँ' - ऐसा चिन्तन करके अर्ध्य-पूजन करे। लाल रंगके चन्दन या रोलीसे मिश्रित जलको ललाटके निकटतक ले जाकर उसके द्वारा अर्घ्यपात्रको पूर्ण करे। उसका गन्धादिसे पूजन करके सूर्यके अङ्गोंद्वारा रक्षावगुण्ठन करे। तत्पश्चात् जलसे पूजा सामग्रीका प्रोक्षण करके पूर्वाभिमुख हो सूर्यदेवकी पूजा करे। 'ॐ आं हृदयाय नमः ।' इस प्रकार आदिमें स्वर-बीज लगाकर सिर आदि अन्य सब अङ्गोंमें भी न्यास करे। पूजा-गृहके द्वारदेशमें दक्षिणकी ओर 'दण्डी' का और वामभागमें 'पिङ्गल' का पूजन करे। ईशानकोणमें 'गं गणपतये नमः।' इस मन्त्रसे 'गणेश' की और अग्निकोणमें गुरुकी पूजा करे। पीठके मध्यभागमें कमलाकार आसनका चिन्तन एवं पूजन करे। पीठके अग्नि आदि चारों कोणोंमें क्रमशः विमल, सार, आराध्य तथा परम सुखकी और मध्यभागमें प्रभूतासनकी पूजा करे। उपर्युक्त प्रभूत आदि चारोंके वर्ण क्रमशः श्वेत, लाल, पीले और नीले हैं तथा उनकी आकृति सिंहके समान है। इन सबकी पूजा करनी चाहिये ॥ १-५॥
पीठस्थ कमलके भीतर 'रां दीप्तायै नमः ।' इस मन्त्रद्वारा दीप्ताकी, 'रीं सूक्ष्मायै नमः ।' इस मन्त्रसे सूक्ष्माकी, 'रूं जयायै नमः ।' इससे जयाकी, 'रें भद्रायै नमः।' इससे भद्राकी, 'रैं विभूतये नमः।' इससे विभूतिकी, 'रों विमलायै नमः।' इससे विमलाकी, 'रौं अमोघायै नमः।' इससे अमोधाकी तथा 'रं विद्युतायै नमः ।' इससे विद्युताकी पूर्व आदि आठों दिशाओंमें पूजा करे और मध्य- भागमें 'रः सर्वतोमुख्यै नमः।' इस मन्त्रसे नवीं पीठशक्ति सर्वतोमुखीकी आराधना करे। तत्पश्चात् 'ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय योगपीठात्मने नमः।' इस मन्त्रके द्वारा सूर्यदेवके आसन (पीठ)- का पूजन करे। तदनन्तर 'खखोल्काय नमः।' इस षडक्षर मन्त्रके आरम्भमें 'ॐ हं खं' जोड़कर नौ अक्षरोंसे युक्त ('ॐ हं खं खखोल्काय नमः।'-इस) मन्त्रद्वारा सूर्यदेवके विग्रहका आवाहन करे। इस प्रकार आवाहन करके भगवान् सूर्यकी पूजा करनी चाहिये ॥ ६-७ ॥
अञ्जलिमें लिये हुए जलको ललाटके निकटतक ले जाकर रक्त वर्णवाले सूर्यदेवका ध्यान करके उन्हें भावनाद्वारा अपने सामने स्थापित करे। फिर 'हां ह्रीं सः सूर्याय नमः।' ऐसा कहकर उक्त जलसे सूर्यदेवको अर्घ्य दे। इसके बाद 'बिम्बमुद्रा " | दिखाते हुए आवाहन आदि उपचार अर्पित करे। तदनन्तर सूर्यदेवकी प्रीतिके लिये गन्ध (चन्दन रोली) आदि समर्पित करे। तत्पश्चात् 'पद्ममुद्रा और 'बिम्बमुद्रा' दिखाकर अग्नि आदि कोणोंमें हृदय आदि अङ्गोंकी पूजा करे। अग्निकोणमें 'ॐ आं हृदयाय नमः ।' इस मन्त्रसे हृदयकी, नैऋत्यकोणमें 'ॐ भूः अर्काय शिरसे स्वाहा।' इससे सिरकी, वायव्यकोणमें 'ॐ भुवः सुरेशाय शिखायै वषट्।' इससे शिखाकी, ईशानकोणमें 'ॐ स्वः कवचाय हुम्।' इससे कवचकी, इष्टदेव और उपासकके बीचमें 'ॐ हां नेत्रत्रयाय वौषट्।' से नेत्रकी तथा देवताके पश्चिमभागमें 'वः अस्त्राय फट्।' इस मन्त्रसे अस्त्रकी पूजा करे। इसके बाद पूर्वादि दिशाओंमें मुद्राओंका प्रदर्शन करे ॥ ॥८-११॥ 
हृदय, सिर, शिखा और कवच - इनके लिये पूर्वादि दिशाओंमें धेनुमुद्राका प्रदर्शन करे। नेत्रोंके लिये गोशृङ्गकी मुद्रा दिखाये। अस्त्रके लिये त्रासनीमुद्राकी योजना करे। तत्पश्चात् ग्रहोंको नमस्कार और उनका पूजन करे। 'ॐ सों सोमाय नमः।' इस मन्त्रसे पूर्वमें चन्द्रमाकी, 'ॐ बुं बुधाय नमः।' इस मन्त्रसे दक्षिणमें बुधकी, 'ॐ बृं बृहस्पतये नमः' इस मन्त्रसे पश्चिममें बृहस्पतिकी और 'ॐ भं भार्गवाय नमः ।' इस मन्त्रसे उत्तरमें शुक्रकी पूजा करे। इस तरह पूर्वादि दिशाओंमें चन्द्रमा आदि ग्रहोंकी पूजा करके, अग्नि आदि कोणोंमें शेष ग्रहोंका पूजन करे। यथा 'ॐ भौं भौमाय नमः ।' इस मन्त्रसे अग्निकोणमें मङ्गलकी, 'ॐ शं शनैश्चराय नमः।' इस मन्त्रसे नैऋत्यकोणमें शनैश्चरकी, 'ॐ रां राहवे नमः' इस मन्त्रसे वायव्यकोणमें राहुकी तथा 'ॐ कें केतवे नमः ।' इस मन्त्रसे ईशानकोणमें केतुकी गन्ध आदि उपचारोंसे पूजा करे। खखोल्की (भगवान् सूर्य) के साथ इन सब ग्रहोंका पूजन करना चाहिये ॥ १२-१४॥
मूलमन्त्रका जप करके, अर्घ्यपात्रमें जल लेकर सूर्यको समर्पित करनेके पश्चात् उनकी स्तुति करे। इस तरह स्तुतिके पश्चात् सामने मुँह किये खड़े हुए सूर्यदेवको नमस्कार करके कहे - 'प्रभो ! मेरे अपराधों और त्रुटियोंको आप क्षमा करें।' इसके बाद 'अस्त्राय फट्।' इस मन्त्रसे अणुसंहारका समाहरण करके 'शिव! सूर्य ! (कल्याणमय सूर्यदेव!) '-ऐसा कहते हुए संहारिणी- शक्ति या मुद्राके द्वारा सूर्यदेवके उपसंहृत तेजको अपने हृदय-कमलमें स्थापित कर दे तथा सूर्यदेवका निर्माल्य उनके पार्षद चण्डको अर्पित कर दे। इस प्रकार जगदीश्वर सूर्यका पूजन करके उनके जप, ध्यान और होम करनेसे साधकका सारा मनोरथ सिद्ध होता है ॥ १५-१७ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ' सूर्यपूजाकी विधिका वर्णन' नामक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७३ ॥
पद्याकारौ करौ कृत्वा प्रतिश्लिष्टे तु मध्यमे। अङ्गुल्यौ धारयेत्तस्मिन् विम्बमुद्रेति सोच्यते ॥
हस्तौ तु सम्मुखौ कृत्वा संनतप्रोन्नताङ्गुली। तलान्तर्मिलिताङ्गुष्ठौ मुद्वैषा पद्मसंज्ञिता ॥ 
मन्त्रमहार्णवमें हृदयादि अङ्गोंके पूजनका क्रम इस प्रकार दिया गया है-
अग्निकोणे - ॐ सत्यतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा हृदयाय नमः हृदयश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। निर्ऋतिकोणे-ॐ
ब्रह्मतेजो ज्वालामणे हूं फट् स्वाहा शिरसे स्वाहा शिरः श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। वायव्ये ॐ विष्णुतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा
शिखायै वषट् शिखाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ऐशान्येॐ रुद्रतेजोज्वालामणे हूं फट् स्वाहा कवचाय हूं कवचश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। पूज्य-पूजकयोर्मध्ये ॐ अग्नितेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् नेत्रश्श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । देवतापश्चिमे - ॐ सर्वतेजोज्वालामणे हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट् अस्त्रश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। यहाँ मूलकी व्याख्यामें भी इसी क्रमसे संगति लगाते हुए अर्थ किया गया है।
'शारदातिलक' के अनुसार सूर्यका दशाक्षर मूलमन्त्र इस प्रकार है-'ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य्य आदित्य श्रीं।' इति दशाक्षरो मन्त्रः । किंतु इस ग्रन्थमें ॐ हं खं' इन बीजोंके साथ 'खखोल्काय नमः।' इस षडक्षर मन्त्रका उल्लेख है। अतः इसीको यहाँ मूल मन्त्र समझना चाहिये।
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