होली की कहानी श्रीकृष्ण ने सुनाई थी युधिष्ठिर को, Holi Kee Kahaanee Shree Krshn Ne Sunaee Thee Yudhishthir Ko

होली की कहानी श्रीकृष्ण ने सुनाई थी युधिष्ठिर को

होली का इतिहास प्राचीन काल के विभिन्न कथाओं और परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इसके पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं 

होली की परंपराएँ

वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत में आधे पक्के अनाज को यज्ञ में दान किया जाता था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय महीनो के अनुसार इसके बाद चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। एक अन्य कथा के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत में भगवन विष्णु जी ने धूलि का वंदन किया था। इसलिए होली के इस त्यौहार को धुलेंडी के नाम से भी मनाया जाता है। धुलेंडी होली के अगले दिन मनाया जाता है जिसमें लोग एक दूसरे पर धुल और कीचड़ लगाते हैं और इसे धूल स्नान कहा जाता है।

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होली की कहानी

होली से कई किस्से और कहानियां जुड़ी हुईं हैं। आप किसी भी व्यक्ति से पूछेंगे, तो सभी के पास होली की कोई न कोई कहानी मिल ही जाएगी। होली की कहानियों में राधा-कृष्ण का प्रेम, कामदेव -रति के पुनर्मिलन, भक्त प्रह्लाद और होलिका की कहानियां बहुत प्रसिद्ध हैं। इन कहानियों के बारे में ज्यादातर लोग जानते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि होली से जुड़ी एक कहानी श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में युधिष्ठिर को भी सुनाई थी  आइए, जानते हैं श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को कौन-सी कहानी बताई थी।
Holi Kee Kahaanee Shree Krshn Ne Sunaee Thee Yudhishthir Ko
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होली की कहानी श्रीकृष्ण ने सुनाई थी युधिष्ठिर को

एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से होली की शुरुआत की कहानी के विषय में प्रश्न किया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि सतयुग में कैसे एक राक्षसी के वध पर पहली बार होली का त्यौहार मनाया गया। भविष्य पुराण की इस कथा के मुताबिक, युधिष्ठिर ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा कि हर साल फाल्गुन की पूर्णिमा तिथि पर त्यौहार मनाते हुए होलिका क्यों जलाते हैं और इस उत्सव की शुरुआत कैसे हुई? इस सवाल को सुनकर श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर होली की कहानी बतानी शुरू की। युधिष्ठिर की जिज्ञासा को शांत करते हुए श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि होली की शुरुआत पहली बार सतयुग में हुई थी। उस समय रघु नाम के एक राजा हुआ करते थे लेकिन वो ढोंढा नाम की एक राक्षसी से बेहद परेशान थे। ढोंढा राक्षसी बहुत ताकतवर थी। वह छोटे बच्चों को मारकर खा जाती थी। सबसे बड़ी समस्या थी उसे मिला हुआ वरदान। उस राक्षसी को भगवान शिव का वरदान मिला हुआ था कि उसे कोई देवता या इंसान मार नहीं सकता, कोई अस्त्र-शस्त्र मार नहीं सकता और ना ही उसकी मृत्यु ठंड, गर्मी और वर्षा ऋतु में हो सकती है। शिव जी ने उसे मनचाहा वरदान तो दे दिया था लेकिन उसे खेलते हुए और उत्सव मनाते हुए बच्चों से सावधान रहने को कहा था। केवल वही उसकी मृत्यु का कारण बन सकते थे। ढोंढा शिव जी के वरदान से बहुत ताकतवर हो गई और इस कारण उसका आतंक और भी बढ़ गया। 
उसका वध कोई राजा-महराजा तो क्या, कोई देवी-देवता तक नहीं कर पा रहे थे। वह बच्चों को लेकर भी बखौफ थी क्योंकि वे उसका मनपसंद भोजन थे। वे बच्चों को देखते ही मारकर खा जाती थी। राजा रघु और उनकी प्रजा इस राक्षसी से बेहद परेशान थे और आतंक के साए में जी रह थे। उन्होंने अपने राज्य के एक विद्वान् से उससे छुटकारा पाने का उपाय पूछा। उस विद्वान् ने बताया कि शिव जी के वरदान से वह ताकतवर है लेकिन उत्सव मनाते हुए बच्चों की मदद से हम उसे मार सकते हैं। उन्होंने कहा कि फाल्गुन पूर्णिमा पर न गर्मी होती है, न ठंड और न ही वर्षा ऋतु होती है। इसी तिथि पर बच्चों की मदद से ढोंढा राक्षसी का वध किया जा सकता है। राजा रघु ने फाल्गुन पूर्णिमा पर अपने राज्य के बच्चों को इकट्ठा किया और उन्हें सारी योजनायें समझाईं। उन्होंने उन्हें खेलने के लिए उन्हें रंग-गुलाल दिया। राजा के सेवकों ने सभी बच्चों को सूखी घास और लकड़ी के टुकड़े दिए। बच्चों ने घास और लकड़ी का ढेर लगाकर, रक्षा मंत्रों का जप करते हुए उसमें आग लगा दी। सभी बच्चे आग के चारों ओर परिक्रमा करते हुए शोर मचा रहे थे। बच्चों की उत्साहित आवाज के कारण ढोंढा राक्षसी की ताकत खत्म हो गई और फिर सभी बच्चों ने मिलकर उसे मार दिया। कहते हैं कि तभी से लोग फाल्गुन पूर्णिमा पर लकड़ी-घास जलाते हैं, इसकी परिक्रमा करते हैं और रंग-गुलाल खेलते हैं।

कामदेव और रति

यह कथा भगवान शिव के पुत्र कामदेव और उनकी पत्नी रति से जुड़ी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब भगवान शिव ध्यान में लीन थे और उसी समय उनके पुत्र कामदेव ने उनका ध्यान भंग कर दिया। इससे क्रोधित होकर भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया। इसके बाद रति की प्रार्थना पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। ऐसे में यह घटना वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक माना गया।

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