श्री गणेश पुराण | शिवा द्वारा महाशक्तियों का प्राकट्य वर्णन,Shree Ganesh-Puraan | Shiv Dvaara Mahaashaktiyon Ka Praakaty Varnan

श्री गणेश पुराण द्वितीय खण्ड का तृतीय अध्याय !

श्रीगणेश-पुराण द्वितीय खण्ड का तृतीय अध्याय ! नीचे दिए गए 3 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. शिवा द्वारा महाशक्तियों का प्राकट्य वर्णन
  2. शिवजी का युद्ध के लिए गणेश की ओर जाना
  3. गणेश्वर का मस्तक छेदन वर्णन

शिवा द्वारा महाशक्तियों का प्राकट्य वर्णन

महाशक्तिमयी शिवा ने सुना कि अकेले शिवानन्दन पर असंख्य वीरों ने शस्त्र प्रहार किए और वह बालक अकेला ही अविचल भाव से उन सबका सामना कर रहा है तो वे अत्यन्त कुद्ध हो उठीं। उन्होंने सोचा- 'एक छोटे से बालक पर ऐसा अत्याचार ? उस निष्ठावान् वीर-पुत्र की मुझे अवश्य ही सहायता करनी चाहिए ।' ऐसा निश्चय कर उन्होंने तुरन्त ही दो महाशक्तियों को प्रकट किया। उनमें से एक काजल के पर्वत जैसी विशालकाय भयंकर एवं खुले हुए मुख विवर वाली तथा दूसरी विद्युत के समान जाज्वल्यमयी थी। उनकी अनेक भुजाएँ थीं। शिवा ने उन्हें आज्ञा दी 'जाओ, द्वार पर गणेश की सहायता करो ।


महाशक्तियाँ चल पड़ीं। उस समय तक देवगणादि पुनः संगठित होकर पुनः आ डटे थे। यह देखकर दोनों शक्तियाँ सक्रिय हो गईं तथा प्रथम शक्ति देवगणादि द्वारा छोड़े गये आयुधों को अपने मुख में लेती और फिर उन सब पर भीषण अस्त्रों की वर्षा करने लगती। दूसरी शक्ति विपक्षियों पर प्रहार करती हुई उन्हें भयंकर यातना देती हुई त्रस्त करती । इस प्रकार दोनों महाशक्तियाँ अपने अमोघ प्रहारों और भयंकर कर्मों से अद्भुत लीला करने लगीं। किन्तु वे देवियाँ कभी प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष रहीं तथा पार्वतीनन्दन ने निरन्तर अकेले रहकर ही विपक्ष की असंख्य सेना को रौंद डाला। जैसे मंदराचल द्वारा समुद्र का मन्थन किया था, वैसे ही अकेले शिवापुत्र ने शिवजी की दुस्तर विशाल सेना का मन्थन कर डाला। अकेले बालक के हाथ से इन्द्रादि सब देवगण एवं शिवगण क्षत-विक्षत एवं अत्यन्त व्याकुल हो गये और परस्पर विचार करने लगे-

किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं न ज्ञायन्ते दिशो दश ।
" परिघं भ्रामयत्येष सव्यापसव्यमेव च ॥"

कहो ! क्या करना चाहिए ? किधर जायें ? दशों दिशाओं में से कोई भी तो नहीं दिखाई देती । और यह बालक भी इतना अद्भुत कर्मा है कि अपने परिघ को दाएँ-बाएँ दोनों ही ओर सरलता से घुमा रहा है। इस प्रकार किसी को भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। सभी भागने के लिए दिशा खोज रहे थे।
उस समय नारदादि ऋषिगण तथा अप्सराएँ आदि अपने हाथों में पुष्प और चन्दन लिये हुए उस अत्यन्त भयंकर युद्ध को देख रहे थे। वे सब भी आश्चर्य चकित थे कि ऐसा युद्ध कभी नहीं देखा । शिवापुत्र के समक्ष विपक्षी सेनाएँ अब अधिक न टिक सकीं। समस्त वीर अपने-अपने प्राण लेकर जिधर मार्ग मिला उधर ही भाग निकले । किन्तु, उस स्थिति में भी स्वामी कार्तिकेय रणक्षेत्र से न हटे। वे धैर्यपूर्वक युद्ध में डटे रहे। किन्तु उनके सभी आयुध कट-कट कर गिरते जा रहे थे। अन्त में अपने समस्त शस्त्रास्त्रों को निष्फल देखकर उन्होंने भी वहाँ खड़े रहना निरर्थक समझा और युद्ध-क्षेत्र से हट गये।
सभी आहत एवं भयभीत देवगण आदि भगवान् नीलकण्ठ की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम करते हुए बोले- 'त्रिलोचन ! सर्प विभूषण ! रक्षा कीजिए। अब तक अनेकानेक युद्ध हमने देखे, किन्तु ऐसा तो कहीं देखा न सुना कि अकेला बालक ही असंख्य देवगणों, प्रमथों और शिवगणों को पराजित कर दे। उसके महान् पराक्रम की तो थाह ही नहीं है। अब आप ही कोई उपाय कीजिए, जिससे उसपर विजय प्राप्त की जा सके।'

शिवजी का युद्ध के लिए गणेश की ओर जाना

भगवान् शंकर ने देवताओं और अपने गणों की आर्त्त पुकार सुनी तो क्रोध में भर गये। उनके नेत्र लाल हो गये, भौंहें चढ़ गयीं और भुजाएँ फड़क उठीं। वे तुरन्त ही गणेश की ओर चल दिए। यह देखकर समस्त देवता और शिवगण भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। देवताओं ने शिवजी को युद्ध के लिए तत्पर देखा तो उनके पावन चरणों में प्रणाम करके पुनः युद्ध में कूद पड़े। इस बार भगवान् विष्णु भी गणेशजी के सम्मुख जा पहुँचे। युद्ध आरम्भ हुआ तो गणपति के दण्ड-प्रहार से व्याकुल होकर युद्ध से हट गए। शिवजी ने देखा कि भगवान् श्रीहरि को भी पराजय का मुख देखना पड़ा और देवराज इन्द्र पहिले ही साहस छोड़ चुके हैं, तो वे सोचने लगे कि इस बालक पर कैसे विजय प्राप्त की जाये ? धर्मयुद्ध द्वारा तो इसका वश में आना कठिन ही है। इसलिए इसके साथ कोई चाल चलनी पड़ेगी। यदि यह मारा जा सकता है तो केवल छल से ही, अन्य कोई उपाय सम्भव नहीं है।
ऐसा निश्चय कर शिवजी अपनी विशाल सेना के मध्य जा खड़े हुए। उनके संकेत से भगवान् विष्णु भी वहीं आ गये। संगीत का वातावरण बना, जिसमें शिवगणों ने नृत्य आरम्भ कर दिया। तभी विष्णु बोले- 'नीलकण्ठ ! आप यह तो मानते ही हैं कि इसे छल किये बिना मारना सम्भव नहीं है तो मैं इसे मोहित किये देता हूँ। बस, तभी आप इसका वध कर देना ।' शिवजी ने विष्णु का सुझाव स्वीकार कर लिया। त्रिलोकीनाथ श्रीहरि के विचार को पार्वतीजी की दोनों महाशक्तियों ने जान लिया और वे गणेशजी को अपना पराक्रम प्रदान कर वहीं अन्तर्धान हो गईं। इधर भगवान् विष्णु शिवजी का स्मरण करते हुए गणेशजी को मोहित करने लगे।
तभी शिवजी ने अपने हाथ में त्रिशूल उठाया और प्रहार करने को हुए। तभी गणेशजी ने अपनी महिमामयी माता पार्वती जी का स्मरण कर शक्ति प्रहार किया। वह शक्ति प्रबल वेग से जाकर लगी, जिससे उनके हाथ से त्रिशूल छूटकर दूर धरती पर जा पड़ा। अपने त्रिशूल की यह दुर्दशा देखकर दशभुज शिवजी अत्यन्त क्रोध में भर गये। उन्होंने अपना धनुष सँभालने का प्रयत्न किया, जब तक शरसंधान का प्रयत्न किया गया, तब तक तो गणेशजी ने अपने परिघ का तीव्र प्रहार किया। इस प्रकार उनका वह धनुष भी दूर जा गिरा।

गणेश्वर का मस्तक छेदन वर्णन

इस प्रहार में उनके एक ओर से पाँच हाथ आहत हो चुके थे, इसलिए अन्य पाँच हाथों में उन्होंने पाँच त्रिशूल सँभाले । किन्तु उनके प्रहार से पूर्व ही गणपति के परिघ प्रहार द्वारा वे निष्फल हो गये। इससे शिवजी बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा- 'इस बालक ने जब मेरी ही ऐसी दशा कर दी तो अन्य देवताओं और गणों की तो बात ही क्या है ?' शिवजी इस प्रकार विचार करते हुए खड़े थे। इसी समय गणेशजी ने अपने परिघ प्रहार से देवताओं और शिवगणों को पुनः विचलित कर दिया। इस कारण शिवजी के समीप रहकर युद्ध के लिए प्रस्तुत देवसेना और शिवसेना अपने-अपने प्राण लेकर विभिन्न दिशाओं में भागने लगी।

"विष्णुस्तं च गणं दृष्ट्वा धन्योऽयमिति चाब्रवीत् ।
महाबलो महावीरो महाशूरो रणप्रियः ॥"

गणेशजी को उस प्रकार से अत्यन्त उग्र और अजेय देखकर भगवान् विष्णु कह उठे-'यह बालक धन्य है ! अत्यन्त शूर-वीर महाबली और युद्ध-प्रिय है। इसकी समता कोई भी देवता, दैत्य, राक्षस, गन्धर्वादि नहीं कर सकता। तीनों लोकों में यह अनुपम तेज, रूप, शौर्य एवं गुणों से सम्पन्न है।' भगवान् विष्णु इस प्रकार कह ही रहे थे कि गणेशजी ने अपना परिघ उठाकर उनपर प्रहार किया, जिससे कुपित हुए श्रीहरि ने अपने चक्र को प्रेरित कर परिघ के दो खण्ड कर दिये। तब गणेश ने टूटे हुए परिघ को उठाकर विष्णु पर प्रहार किया, किन्तु गरुड़ ने उनका वह प्रहार निष्फल कर दिया ।
अब विष्णु ने गणेश पर प्रहार किया तो उन्होंने भी उनके प्रहार को विफल करके अपनी माता प्रदत्त दिव्य छड़ी से प्रहार किया। किन्तु वह भी गरुड़ ने व्यर्थ कर दिया। इस प्रकार अवसर का लाभ उठाने के लिए शिवजी ने गणेश पर अपने तीव्रतम त्रिशूल का प्रहार किया। उस समय गणेशजी उनकी ओर से असावधान थे, इसलिए प्रहार को बचा न सके । त्रिशूल उनके कण्ठ पर जाकर लगा, जिससे उनका मस्तक कटकर जा गिरा । गणेश का मस्तक कटते ही देवता हर्षित हो गये। शिवगण भी उल्लास में झूम उठे । भगवान् शंकर का जय-जयकार होने लगा। धरती पर वाद्यों के साथ नृत्य-संगीत चलने लगा ।

श्रीगणेश-पुराण द्वितीय खण्ड के अध्याय

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चतुर्थ अध्याय ] [ पञ्चम अध्याय ]

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