विष्णु पुराण तृतीय अंश का 9 अध्याय संस्कृत और हिंदी में;-
नवाँ अध्याय ब्रह्मचर्य आदि आश्रमोंका वर्णन !
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और्व उवाच
बालः कृतोपनयनो वेदाहरणतत्परः ।
गुरुगेहे वसेद्धूप ब्रह्मचारी समाहितः ॥ १
शौचाचारव्रतं तत्र कार्य शुश्रूषणं गुरोः ।
व्रतानि चरता ग्राह्यो वेदश्च कृतबुद्धिना ॥ २
उभे सन्ध्ये रविं भूप तथैवाग्निं समाहितः ।
उपतिष्ठेत्तदा कुर्याद्गुरोरप्यभिवादनम् ॥ ३
स्थिते तिष्ठेद्ब्रजेद्याते नीचैरासीत चासति ।
शिष्यो गुरोर्नृपश्रेष्ठ प्रतिकूलं न सञ्चरेत् ॥ ४
तेनैवोक्तं पठेद्वेदं नान्यचित्तः पुरस्स्थितः ।
अनुज्ञातश्च भिक्षान्नमश्नीयाद्गुरुणा ततः ॥ ५
अवगाहेदपः पूर्वमाचार्येणावगाहिताः ।
समिञ्जलादिकं चास्य कल्यं कल्यमुपानयेत् ॥ ६
गृहीतग्राह्यवेदश्च ततोऽनुज्ञामवाप्य च।
गार्हस्थ्यमाविशेत्प्राज्ञो निष्पन्नगुरुनिष्कृतिः ॥ ७
विधिनावाप्तदारस्तु धनं प्राप्य स्वकर्मणा।
गृहस्थकार्यमखिलं कुर्याद्भूपाल शक्तितः ॥ ८
निवापेन पितॄनर्चन्यज्ञैर्देवांस्तथातिथीन् ।
अन्नैर्मुनींश्च स्वाध्यायैरपत्येन प्रजापतिम् ॥ ९
भूतानि बलिभिश्चैव वात्सल्येनाखिलं जगत्।
प्राप्नोति लोकान्पुरुषो निजकर्मसमार्जितान् ॥ १०
और्व बोले- हे भूपते ! बालकको चाहिये कि उपनयन-संस्कारके अनन्तर वेदाध्ययनमें तत्पर होकर ब्रह्मचर्यका अवलम्बन कर, सावधानतापूर्वक गुरुगृहमें निवास करे वहाँ रहकर उसे शौच और आचार-व्रतका पालन करते हुए गुरुकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये तथा व्रतादिका आचरण करते हुए स्थिर-बुद्धिसे वेदाध्ययन करना चाहिये हे राजन् ! प्रातः काल और सायंकाल] दोनों सन्ध्याओंमें एकाग्र होकर सूर्य और अग्निकी उपासना करे तथा गुरुका अभिवादन करे गुरुके खड़े होनेपर खड़ा हो जाय, चलनेपर पीछे-पीछे चलने लगे तथा बैठ जानेपर नीचे बैठ जाय। हे नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार कभी गुरुके विरुद्ध कोई आचरण न करे गुरुजीके कहनेपर ही उनके सामने बैठकर एकाग्रचित्तसे वेदाध्ययन करे और उनकी आज्ञा होनेपर ही भिक्षान्न भोजन करे जलमें प्रथम आचार्यके स्नान कर चुकनेपर फिर स्वयं स्नान करे तथा प्रतिदिन प्रातः काल गुरुजीके लिये समिधा, जल, कुश और पुष्पादि लाकर जुटा दे इस प्रकार अपना अभिमत वेदपाठ समाप्त कर चुकनेपर बुद्धिमान् शिष्य गुरुजीकी आज्ञासे उन्हें गुरु-दक्षिणा देकर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करे हे राजन् ! फिर विधिपूर्वक पाणिग्रहण कर अपनी वर्णानुकूल वृत्तिसे द्रव्योपार्जन करता हुआ सामर्थ्यानुसार समस्त गृहकार्य करता रहे पिण्ड-दानादिसे पितृगणकी, यज्ञादिसे देवताओंकी, अन्नदानसे अतिथियोंकी, स्वाध्यायसे ऋषियोंकी, पुत्रोत्पत्तिसे प्रजापतिकी, बलियों (अन्नभाग) से भूतगणकी तथा वात्सल्यभावसे सम्पूर्ण जगत्की पूजा करते हुए पुरुष अपने कर्मोंद्वारा मिले हुए उत्तमोत्तम लोकोंको प्राप्त कर लेता है॥ १ - १०॥
भिक्षाभुजश्च ये केचित्परिव्राद्ब्रह्मचारिणः ।
तेऽप्यत्रैव प्रतिष्ठन्ते गार्हस्थ्यं तेन वै परम् ॥ ११
वेदाहरणकार्याय तीर्थस्नानाय च प्रभो।
अटन्ति वसुधां विप्राः पृथिवीदर्शनाय च ॥ १२
अनिकेता ह्यनाहारा यत्र सायंगृहाश्च ये।
तेषां गृहस्थः सर्वेषां प्रतिष्ठा योनिरेव च ॥ १३
तेषां स्वागतदानादि वक्तव्यं मधुरं नृप।
गृहागतानां दद्याच्च शयनासनभोजनम् ॥ १४
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते ।
स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥ १५
अवज्ञानमहंकारो दम्भश्चैव गृहे सतः ।
परितापोपघातौ च पारुष्यं च न शस्यते ॥ १६
यस्तु सम्यक्करोत्येवं गृहस्थः परमं विधिम् ।
सर्वबन्धविनिर्मुक्तो लोकानाप्नोत्यनुत्तमान् ॥ १७
वयः परिणतो राजन्कृतकृत्यो गृहाश्रमी।
पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा ॥ १८
पर्णमूलफलाहारः केशश्मश्रुजटाधरः ।
भूमिशायी भवेत्तत्र मुनिस्सर्वातिथिर्नृप ॥ १९
चर्मकाशकुशैः कुर्यात्परिधानोत्तरीयके ।
तद्वत्त्रिषवणं स्नानं शस्तमस्य नरेश्वर । २०
देवताभ्यर्चनं होमस्सर्वाभ्यागतपूजनम् ।
भिक्षा बलिप्रदानं च शस्तमस्य नरेश्वर । २१
वन्यस्नेहेन गात्राणामभ्यंगश्चास्य शस्यते ।
तपश्च तस्य राजेन्द्र शीतोष्णादिसहिष्णुता ॥ २२
यस्त्वेतां नियतश्चर्यां वानप्रस्थश्चरेन्मुनिः ।
स दहत्यग्निवद्दोषाञ्जयेल्लोकांश्च शाश्वतान् ॥ २३
चतुर्थश्चाश्रमो भिक्षोः प्रोच्यते यो मनीषिभिः ।
तस्य स्वरूपं गदतो मम श्रोतुं नृपार्हसि ॥ २४
पुत्रद्रव्यकलत्रेषु त्यक्तस्नेहो नराधिप।
चतुर्थमाश्रमस्थानं गच्छेन्निर्भूतमत्सरः ॥ २५
जो केवल भिक्षावृत्तिसे ही रहनेवाले परिव्राजक और ब्रह्मचारी आदि हैं उनका आश्रय भी गृहस्थाश्रम ही है, अतः यह सर्वश्रेष्ठ है हे राजन् ! विप्रगण वेदाध्ययन, तीर्थस्नान और देश-दर्शनके लिये पृथिवी- पर्यटन किया करते हैं उनमेंसे जिनका कोई निश्चित गृह अथवा भोजन प्रबन्ध नहीं होता और जो जहाँ सायंकाल हो जाता है वहीं ठहर जाते हैं, उन सबका आधार और मूल गृहस्थाश्रम ही है हे राजन् ! ऐसे लोग जब घर आवें तो उनका कुशल प्रश्न और मधुर वचनोंसे स्वागत करे तथा शय्या, आसन और भोजनके द्वारा उनका यथाशक्ति सत्कार करे जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है उसे अपने समस्त दुष्कर्म देकर वह (अतिथि) उसके पुण्यकर्मोंको स्वयं ले जाता है गृहस्थके लिये अतिथिके प्रति अपमान, अहंकार और दम्भका आचरण करना, उसे देकर पछताना, उसपर प्रहार करना अथवा उससे कटुभाषण करना उचित नहीं है इस प्रकार जो गृहस्थ अपने परम धर्मका पूर्णतया पालन करता है वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर अत्युत्तम लोकोंको प्राप्त कर लेता है हे राजन् ! इस प्रकार गृहस्थोचित कार्य करते- करते जिसकी अवस्था ढल गयी हो उस गृहस्थको उचित है कि स्त्रीको पुत्रोंके प्रति सौंपकर अथवा अपने साथ लेकर वनको चला जाय वहाँ पत्र, मूल, फल आदिका आहार करता हुआ, लोम, श्मश्रु (दाढ़ी-मूंछ)और जटाओंको धारण कर पृथिवीपर शयन करे और मुनिवृत्तिका अवलम्बन कर सब प्रकार अतिथिकी सेवा करे उसे चर्म, काश और कुशाओंसे अपना बिछौना तथा ओढ़नेका वस्त्र बनाना चाहिये। हे नरेश्वर! उस मुनिके लिये त्रिकाल-स्नानका विधान है इसी प्रकार देवपूजन, होम, सब अतिथियोंका सत्कार, भिक्षा और बलिवैश्वदेव भी उसके विहित कर्म हैं हे राजेन्द्र ! वन्य तैलादिको शरीरमें मलना और शीतोष्णका सहन करते हुए तपस्यामें लगे रहना उसके प्रशस्त कर्म हैं जो वानप्रस्थ मुनि इन नियत कर्मोंका आचरण करता है वह अपने समस्त दोषोंको अग्निके समान भस्म कर देता है और नित्य-लोकोंको प्राप्त कर लेता है हे नृप ! पण्डितगण जिस चतुर्थ आश्रमको भिक्षु- आश्रम कहते हैं अब मैं उसके स्वरूपका वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो हे नरेन्द्र ! तृतीय आश्रमके अनन्तर पुत्र, द्रव्य और स्त्री आदिके स्नेहको सर्वथा त्यागकर तथा मात्सर्यको छोड़कर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करे ॥ ११ - २५ ॥
त्रैवर्गिकांस्त्यजेत्सर्वानारम्भानवनीपते !
मित्रादिषु समो मैत्रस्समस्तेष्वेव जन्तुषु ॥ २६
जरायुजाण्डजादीनां वाङ्मनः कायकर्मभिः ।
युक्तः कुर्वीत न द्रोहं सर्वसङ्गांश्च वर्जयेत् ॥ २७
एकरात्रस्थितिक्रमे पञ्चरात्रस्थितिः पुरे।
तथा तिष्ठेद्यथाप्रीतिर्द्वषो वा नास्य जायते ॥ २८
प्राणयात्रानिमित्तं च व्यंगारे भुक्तवज्ञ्जने।
काले प्रशस्तवर्णानां भिक्षार्थं पर्यटेद् गृहान् ॥ २९
कामः क्रोधस्तथा दर्पमोहलोभादयश्च ये।
तांस्तु सर्वान्परित्यज्य परिव्राड् निर्ममो भवेत् ॥ ३०
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यश्चरते मुनिः ।
तस्यापि सर्वभूतेभ्यो न भयं विद्यते क्वचित् ॥ ३१
कृत्वाग्निहोत्रं स्वशरीरसंस्थं शारीरमग्निं स्वमुखे जुहोति ।
विप्रस्तु भैक्ष्योपहितैर्हविर्भि-श्चिताग्निकानां व्रजति स्म लोकान् ॥ ३२
मोक्षाश्रमं यश्चरते यथोक्तं शुचिस्सुखं कल्पितबुद्धियुक्तः ।
अनिन्धनं ज्योतिरिव प्रशान्तःस ब्रह्मलोकं श्रयते द्विजातिः ॥ ३३
हे पृथिवीपते ! भिक्षुको उचित है कि अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गसम्बन्धी समस्त कर्मोंको छोड़ दे, शत्रु-मित्रादिमें समान भाव रखे और सभी जीवोंका सुहृद् हो निरन्तर समाहित रहकर जरायुज, अण्डज और स्वदेज आदि समस्त जीवोंसे मन, वाणी अथवा कर्मद्वारा कभी द्रोह न करे तथा सब प्रकारकी आसक्तियोंको त्याग दे ग्राममें एक रात और पुरमें पाँच रात्रितक रहे तथा इतने दिन भी तो इस प्रकार रहे जिससे किसीसे प्रेम अथवा द्वेष न हो जिस समय घरोंमें अग्नि शान्त हो जाय और लोग भोजन कर चुकें उस समय प्राणरक्षाके लिये उत्तम वर्णोंमें भिक्षाके लिये जाय परिव्रा जक को चाहिये कि काम, क्रोध तथा दर्प, लोभ और मोह आदि समस्त दुर्गुणोंको छोड़कर ममताशून्य होकर रहे जो मुनि समस्त प्राणियोंको अभयदान देकर विचरता है; उसको भी किसीसे कभी कोई भय नहीं होता जो ब्राह्मण चतुर्थ आश्रममें अपने शरीरमें स्थित प्राणादिसहित जठराग्निके उद्देश्यसे अपने मुखमें भिक्षान्नरूप हविसे हवन करता है, वह ऐसा अग्निहोत्र करके अग्निहोत्रियोंके लोकोंको प्राप्त हो जाता है जो ब्राह्मण [ब्रह्मसे भिन्न सभी मिथ्या है, सम्पूर्ण जगत् भगवान्का ही संकल्प है-ऐसे] बुद्धियोगसे युक्त होकर, यथाविधि आचरण करता हुआ इस मोक्षाश्रमका पवित्रता और सुखपूर्वक आचरण करता है, वह निरिन्धन अग्निके समान शान्त होता है और अन्तमें ब्रह्मलोक प्राप्त करता है॥ २६ - ३३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
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