श्री गणेश पुराण | लंबोदर अवतार,क्रोधासुर की उत्पत्ति वर्णन,Shri Ganesh Puran | Lambodar Avataar, Krodhaasur Kee Utpatti Varnan

श्रीगणेश-पुराण अष्टम खण्ड का पञ्चम अध्याय !

श्रीगणेश-पुराण अष्टम खण्ड का पञ्चम अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. लंबोदर अवतार
  2. क्रोधासुर की उत्पत्ति वर्णन
  3. क्रोधासुर का विजय-अभियान आरम्भ
  4. मायाकर का उत्कर्ष एवं संहार वर्णन

लंबोदर अवतार

सूतजी बोले- 'हे शौनक ! मैंने तुम्हें भगवान् गजानन द्वारा लोभासुर पर कृपा करने का यह वृत्तान्त सुनाया। अब उन्हीं प्रभु के लम्बोदरावतार का वर्णन करता हूँ -

"लम्बोदरावतारो वै क्रोधासुरनिवर्हणः ।
शक्तिब्रह्माखुगः सद् तत् धारक उच्यते ॥" 

'हे शौनक ! लम्बोदर नामक अवतार में प्रभु गणेश्वर ने क्रोधासुर का उन्मूलन किया था। यह अवतार ब्रह्म की सत्य स्वरूपा शक्ति का धारक कहा गया है। इसमें भी उनका वाहन मूषक ही रहा है। इसका उपाख्यान निम्न प्रकार है-

क्रोधासुर की उत्पत्ति वर्णन

एक बार की बात है- भगवान् विष्णु ने महामोहप्रद मोहिनी रूप धारण किया था । शिवजी उस मोहिनी रूप को देखकर मोहित हुए । उनके उस रूप को देखकर श्रीहरि ने मन-ही-मन हँसते हुए मोहिनी रूप का त्याग कर अपना यथार्थ रूप धारण कर लिया था। अपने इस प्रकार मोहित होने पर शिवजी को बड़ी खिन्नता हुई, क्योंकि उस कारण उनका शुक्र स्खलित हो गया था । शिवजी के उस अमोघ शुक्र से एक महाशक्ति सम्पन्न एवं अत्यन्त पराक्रमी असुर की उत्पत्ति हुई। वह घोर कृष्ण वर्ण वाला था तथा उसके नेत्र ताम्र वर्ण के एवं अत्यन्त चमकीले थे। उसका रूप अत्यन्त भयङ्कर था । वह उत्पन्न होते ही चलने लगा और शिवजी की प्रेरणा से दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास पहुँचा ।
असुर ने उनके चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया- 'प्रभो ! आप मुझे अपना शिष्यत्व प्रदान करें और आज्ञा दें कि मैं क्या करूँ ?

Shri Ganesh Puran | Lambodar Avataar, Krodhaasur Kee Utpatti Varnan

शुक्राचार्य ने पूछा- 'तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? किसने तुम्हें यहाँ भेजा है ?' किन्तु वह इन प्रश्नों का कुछ उत्तर न दे सका । केवल इतना ही कहा कि 'मैं कुछ नहीं जानता ।' दैत्यगुरु ने ध्यान लगाकर सब कुछ जान लिया । बोले- 'वत्स ! क्रोधावस्था में शिवजी का शुक्र स्खलित हो गया था, उसी से तेरी उत्पत्ति हुई है। इस कारण तेरा नाम क्रोधासुर रहना उचित है। तू भगवान् शङ्कर का पुत्र है, इसलिए परम प्रतापी होगा ।' आचार्य की बात सुनकर क्रोधासुर बहुत प्रसन्न हुआ । दैत्यगुरु ने उसके सभी संस्कार कर अधिक योग्य बनाया और फिर शम्बरासुर की
अत्यन्त सुन्दरी कन्या 'प्रीति' के साथ उसका विवाह कराया। ऐसी लावण्यमयी स्त्री पाकर क्रोधासुर के हर्ष का पारावार न रहा और वह सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगा ।
फिर उसके मन में हुआ कि 'इस प्रकार पड़े रहने से पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। पुरुष वही है जो अपने पुरुषार्थ को सफल करने में प्रयत्नशील रहे । इसलिए त्रैलोक्य-विजय के लिए प्रयास करना चाहिए।' ऐसा निश्चय कर उसने शुक्राचार्य के पास आकर कहा- 'आचार्य ! मेरी इच्छा ब्रह्माण्ड विजय करने की है, इसलिए आप मुझे उसका उपाय बताने की कृपा करें ।'
आचार्य ने कहा- 'वत्स ! तुम भगवान् भास्कर की प्रसन्नता के लिए 'घृणिः सूर्य आदित्य ॐ' मन्त्र का अनुष्ठान करो तो तुम्हारी कामना पूर्ण हो सकती है ।' क्रोधासुर ने शुक्राचार्य जी से अनुष्ठान की विधि पूछी और प्रणाम कर निर्जन वन में चला गया। वहाँ उसने स्नानादि से निवृत्त होकर एक पाँव से खड़े होकर सूर्य मन्त्र के जप का आरम्भ किया ।
वह दिव्य सहस्त्र वर्ष तक धूप, वर्षा, शीत, आदि सहता हुआ निराहार खड़ा रहा। उसकी दृष्टि आकाश की ओर लगी रही। मन में भगवान् भास्कर की भक्ति और जिह्वा पर उक्त सूर्य-मन्त्र था। उसकी उत्कट तप-साधना देखकर भगवान् सूर्य की गति में बाधा उपस्थित हुई इसलिए वे असुर के समक्ष आ उपस्थित हुए। असुर ने सुना, कोई गम्भीर स्वर में कह रहा है- 'वर माँगु ।' उसने आँखों को अँगुलियों से कुछ मीड़कर उनकी चकाचौंध दूर करने का प्रयत्न किया और सूर्यदेव के स्वरूप की एक झलक देखकर उनके चरणों में गिर पड़ा। फिर कुछ सँभलकर बोला- 'प्रभो ! आप समस्त विश्व को प्रकाश देने वाले एवं देवताओं के नायक हैं। हे नाथ ! मैं समस्त ब्रह्माण्ड को अपने वश में करना चाहता हूँ। आप मुझे समस्त चराचर विश्व का अधीश्वर बना दीजिए। मैं बल, पराक्रम, ऐश्वर्य आदि में अद्वितीय हो जाऊँ। मुझे कभी रोग एवं मृत्यु की भी बाधा उपस्थित न हो ।'
भगवान् भास्कर उसकी वर-याचना से कुछ भयभीत और आशंकित होते हुए बोले- 'तुम्हारी कामना पूर्ण हो।' इससे क्रोधासुर को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह सूर्यदेव के वहाँ से चले जाने पर अपने घर लौटा तथा आचार्य को वर प्राप्ति की बात सुनाई। उन्होंने उसे दैत्यराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया । उसके मित्रों और अनुयायियों को भी वर प्राप्ति के समाचार से बड़ी प्रसन्नता हुई । सब उसके आश्रय में आकर रहने लगे। वह भी अत्यन्त हर्षपूर्वक दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने लगा। उसके दो पुत्र हुए। एक का नाम 'हर्ष' और दूसरे का नाम 'शोक' हुआ ।

क्रोधासुर का विजय-अभियान आरम्भ

फिर उसने अपना विजय अभियान आरम्भ किया । असुरसेनाएँ प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ीं। धरती पर तो शीघ्र ही विजय प्राप्त हो गई तथा बहुत से राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। जो मारे गए या भाग गए या उनके राज्यों पर उसने अपने शासक नियुक्त कर दिए । इस प्रकार धरती पर अधिकार होने के बाद उसने इन्द्र की अमरावती पर आक्रमण कर दिया। वहाँ विजय प्राप्त होने पर उसने बैकुण्ठ और कैलाश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया। फिर उसने सूर्यलोक पर भी विजय प्राप्त करने की इच्छा से अपना दूत वहाँ भेजा। सूर्यदेव उसे स्वयं ही वर प्रदान कर चुके थे, इसलिए अब क्या कर सकते थे ? उन्होंने तुरन्त ही अपने लोक का त्याग कर दिया । इसके पश्चात् दुःखित हुए समस्त देवताओं ने लम्बोदर गणाध्यक्ष की उपासना आरम्भ की। उनकी परम भक्ति देखकर भगवान् गणेश्वर प्रकट होकर बोले- 'देवताओ ! क्या चाहते हो ?'
देवताओं ने क्रोधासुर के अत्याचार की बात बताकर उससे रक्षा की प्रार्थना की। तब भगवान् लम्बोदर ने उन्हें अभय प्रदान किया, जिससे देवता और ऋषि-मुनि आदि निश्चिन्त हो गए। तब आकाशवाणी द्वारा क्रोधासुर को विदित हुआ- 'भगवान् लम्बोदर ने देवताओं को अभय दे दिया है, वे समस्त असुरों का नाश कर देंगे।' दैत्यराज घबराया, उसने अमात्यों से परामर्श किया। साथी दैत्यों ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा- 'राजन् ! आप चिंता न करें। आप समस्त ब्रह्माण्ड के अधीश्वर हैं, एक बेचारा लम्बोदर ही क्या कर लेगा आपका ? हमें आज्ञा दीजिए कि हम उसे मार डालें अथवा पकड़कर आपके सम्मुख उपस्थित कर दें। उनके वचन सुनकर दैत्यराज बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अपनी विशाल सेना की तैयारी का आदेश दिया। उधर देवताओं के साथ लम्बोदर भगवान् की सेना आगे बढ़ी चली आ रही थी। गुप्तचरों ने उसकी सूचना दी तो दैत्यसेना ने राज्य की सीमा पर ही उसका सामना किया ।
५० क्रोधासुर स्वयं ही रणक्षेत्र में पहुँचा। उसने देखा कि सामने लम्बोदर खड़े हैं। उनका विचित्र वेश है- मूषक पर आरूढ़ हाथी का-सा मुख, तीन नेत्र और लम्बा उदर, नाभि में शेषनाग लपेटे हुए हैं। वह क्रोधपूर्वक बोला- 'यह क्या स्वाँग बना लाये हो ?' लम्बोदर बोले- 'अरे मूढ़ ! तुझे अभी ज्ञात हुआ जाता है कि इस स्वाँग का रहस्य क्या है !' दोनों ओर से घोर युद्ध के आरम्भ में तो दोनों ओर के वीर मारे जाने लगे थे, किन्तु बाद में असुरों का ही अधिक संहार होने लगा । क्रोधासुर के अत्यन्त महाबली सहायक जूभ्य, माल्यवान, रावण, कुम्भकरण, बलि एवं राहु आदि वीर मृतप्राय हुए धरती पर जा गिरे देखकर बहुत क्रोधित हुए और लम्बोदर से बोला- 'अरे मूर्ख जन्तु ! तू मुझ ब्राह्मण-विजेता से युद्ध करके जीत की आशा करता है? क्या तेरी बुद्धि नष्ट हो गई है ? देख, यदि तू अपनी कुशल चाहता है तो मेरी शरण को प्राप्त हो, अन्यथा तेरा लम्बा पेट एक ही बाण के प्रहार से विदीर्ण कर दूँगा ।'
भगवान् लम्बोदर ने उसकी बात सुनकर अट्टहास किया और फिर बोले- 'दुष्ट दैत्य ! तू इस प्रकार की बकवाद करता हुआ मरने की इच्छा क्यों करता है ? मैं तो तेरे जैसे असुरों को ही खोजता फिरता हूँ और तुझे मारने के लिए ही यहाँ आया हूँ। तूने आदित्य से वर प्राप्त करके बड़े अधर्म कार्य किए हैं। मूर्ख ! मैं तो समस्त प्राणियों के शरीर में निवास करने वाला अनिर्वचनीय परमात्मा हूँ, तू मुझे किस प्रकार जीत सकता है ?' क्रोधासुर बोला- 'परमात्मा तो अजन्मा और अगोचर है, उन्हें तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और सिद्धगण भी करोड़ जन्म तपस्या करके भी नहीं देख पाते, फिर तुम यहाँ सबके देखते हुए ही खड़े हो । तब तुम परमात्मा कैसे हुए ?'
लम्बोदर ने उसे समझाया- 'असुरराज ! यही तो वह रहस्य है जिसे जान लेने पर अनजाना कुछ भी नहीं रहता। देख, मेरे वामांग में भ्रान्ति स्वरूपा सिद्धि विद्यमान है। संसारभर के सभी प्राणी इसी सिद्धि की प्राप्ति के भ्रम में पड़े हुए भटकते रहते हैं। किन्तु सहज में इसकी प्राप्ति किसी को नहीं होती। और मेरे दक्षिणांग में भ्रान्ति को धारण करने वाली बुद्धि विराजमान है। यह चित्त स्वरूपा है, इसके पाँच भेद हैं। इसमें पञ्च भ्रान्तियाँ निहित हैं। मैं इन दोनों सिद्धि का ही स्वामी हूँ। अनेक प्रकार के रूपों वाला यह संसार और ब्रह्म सदैव मेरे ही उदर में स्थित रहते हैं। इसीलिए ज्ञानीजन मुझे 'लम्बोदर' कहते हैं ।' यह समस्त संसार मेरे ही उदर से उत्पन्न होता है, मेरे ही द्वारा पालितं होता और अन्त में मेरे ही उदर में लीन हो जाता है। मैं इस विश्व के आश्रय रूप से निरन्तर क्रीड़ा करता रहता हूँ। समस्त ब्रह्माण्ड में जब जो कुछ भी होता है, वह सब मेरी ही इच्छा से होता है।
मुझे ब्रह्मा जानते हैं, देवगुरु बृहस्पति और दैत्यगुरु शुक्राचार्य भी मुझे भली प्रकार जानते हैं। वस्तुतः मेरे लिए देवता और दैत्य दोनों ही समान हैं। मैं न तो दैत्यों को मारना चाहता हूँ, न देवताओं को ही। सभी को अपने-अपने धर्म में स्थित देखने की इच्छा रखता हूँ और मेरी इच्छा का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। इसलिए तुम अपना श्रेय चाहते हो तो मेरी शरण में आओ, अन्यथा तुम्हारे वध को कोई भी रोक नहीं सकता ।' क्रोधासुर की समस्त शंकाओं का समाधान हो गया और तब वह ही उनके चरणारविन्दों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। यह देखकर कृपालु लम्बोदर प्रसन्न हो गये और उन्होंने दैत्यराज को कृपापूर्ण दृष्टि से देखा । उसने भी गद्गद कण्ठ से उनकी स्तुति की और सुदृढ़ भक्ति याचना करता हुआ बोला- 'प्रभु ! मुझ अज्ञानी एवं क्रोधान्ध मूर्ख को क्षमा कर दीजिए ।'
लम्बोदर प्रभु ने कहा- 'दैत्यराज ! अब तू क्रोध-मोहादि से कभी भी अभिभूत नहीं हो । तू भगवान् शङ्कर के अंश से उत्पन्न होने के कारण भी कम महिमा वाला नहीं है। तेरे हृदय में तेरी सुदृढ़ भक्ति सदैव बनी रहेगी । अब तू देवताओं, मनुष्यों आदि के राज्यादि को उन्हें लौटा दे और अपने ही वैभव में सन्तोष करने वाला हो। तेरी प्रीति अधर्म में कभी भी न हो तथा पृथ्वी को छोड़कर पाताल में निवास कर ।' क्रोधासुर ने भगवान् लम्बोदर की आज्ञा का तुरन्त पालन किया और वह उसी समय उन्हें प्रणाम कर पाताल लोक को चला गया । यह देखकर सभी देवता ऋषि-मुनि आदि लम्बोदर का स्तवन करने लगे ।

मायाकर का उत्कर्ष एवं संहार वर्णन

सूतजी बोले- 'हे शौनक ! भगवान् लम्बोदर की एक प्रसिद्ध कथा और भी है। तुम्हारी भक्ति देखकर उसे भी कहता हूँ। देखो, प्राचीनकाल की बात है-लोकपितामह चतुरानन सत्यलोक में बैठे हुए प्रभु ध्यान में लीन हो रहे थे, तभी उनके निःश्वास से एक पुरुष का प्राकट्य हुआ । उस पुरुष ने ब्रह्माजी के समक्ष आकर प्रणाम किया और उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए स्तुति करने लगा ।' चतुर्मुख का ध्यान भंग हो गया। उस पुरुष को सामने खड़े होकर स्तुति करते देखकर बोले- 'वत्स ! तुम कौन हो और किस अभिप्राय से मेरे समक्ष उपस्थित हुए हो ?'
उस पुरुष ने विनम्रता से निवेदन किया कि 'मैं आपके निःश्वास से प्रकट आपका पुत्र हूँ। आप मेरा नाम रखिये और रहने के लिए स्थान प्रदान कीजिए ।' यह सुनकर ब्रह्माजी बोले- 'वत्स! तेरे देखने मात्र से ही माया की वृद्धि होती है इसलिए तेरा नाम 'मायाकर' रहना उचित है। हे महामते ! तेरी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी तथा तेरी गति में कहीं भी अवरोध नहीं होगा । तू सदैव स्वस्थ रहता हुआ सभी को अपने वश में करने में समर्थ होगा !' चतुरानन से ऐसा वर पाकर मायाकर को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह उन्हें प्रणाम कर विश्व भ्रमण के लिए चल पड़ा। उसके वर प्रबल होने की बात जानकर विप्रचित्ति नामक एक अत्यन्त बली दैत्य ने उनको प्रणाम किया और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली तथा उसे दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास ले गया । आचार्य ने उसे वर प्राप्त जानकर दैत्यराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया । फिर विप्रचित्ति ने उसे सब प्रकार से सन्तुष्ट कर भौतिक भोगो के आकर्षण में फँसाने का प्रयत्न किया। दैत्यराज मायाकर कुछ काल तो वैसे ही विषय-सुखों में लिप्त रहा। तदुपरान्त उसने पृथ्वी के सभी राजाओं को अपने वश में कर लिया। फिर वह पाताल पर जा चढ़ा । वहाँ घोर युद्ध के पश्चात् नागों ने भी हार स्वीकार कर ली। अपनी पराजय से शेषनाग बहुत व्याकुल हुए। उन्होंने विघ्नराज भगवान् लम्बोदर की उपासना की । भक्ति से प्रसन्न हुए लम्बोदर प्रकट हुए। शेषनाग ने उनके चरणों में प्रणाम करके प्रार्थना की 'प्रभो! मायाकर ने हमारा राज्य छीन लिया है। अब समस्त नाग बेघर हुए मारे-मारे फिर रहे हैं।'
लम्बोदर ने उनकी प्रार्थना सुनकर आश्वासन दिया- 'नागराज ! चिन्ता न करो, मैं तुम्हारे अभीष्ट पूर्ण करने के लिए मायाकर को मार डालूँगा ।'सूतजी बोले- 'हे शौनक ! कालान्तर में उन सर्वान्तर्यामी प्रभु ने शेषनाग के पुत्र रूप में अवतार प्रकट होकर मायाकर से घोर युद्ध किया और अन्त में उसकी माया का विच्छेद करके उसे मार डाला। इससे समस्त नाग समाज आनन्दित होकर उनका जय-जयकार करने लगा। संसारभर में सुख-शान्ति छा गई ।

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