श्री गणेश पुराण | महोदर अवतार का वर्णन,पार्वती जी की लीला,Shri Ganesh Puran | Mahodar Avatar Ka Varnan, Leela of Parvati Ji

श्रीगणेश-पुराण अष्टम खण्ड का तृतीय अध्याय !

श्री गणेश-पुराण अष्टम खण्ड का  तृतीय अध्याय ! नीचे दिए गए 2 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  • महोदरावतार का वर्णन
  • पार्वतीजी की लीला
  • मोहासुर द्वारा ब्रह्माण्ड विजय-वर्णन
  • मोहासुर की शरणागति
  • दुर्बुद्धि तथा ज्ञानारि दैत्यद्वय का विनाश वर्णन

महोदरावतार का वर्णन

सूतजी बोले- 'हे शौनक ! तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर अब मैं गणेशजी के 'महोदरावतार' की कथा कहता हूँ। उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो- 

"महोदर इति ख्यातो ज्ञानब्रह्म-प्रकाशकः । 
मोहासुरस्य शत्रुर्वै आखुवाहनगः स्मृत ॥"

'शैनक ! 'महोदर' नाम से विख्यात गणेशजी का अवतार ज्ञानब्रह्म का प्रकाश करने वाला है। उन मूषकवाहन को मोहासुर के वध करने वाला कहा जाता है।' प्राचीनकाल की बात है-तारक नाम का एक महा भयंकर एवं प्रबल पराक्रमी दैत्य हुआ था। उसने ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपश्चर्या की थी। उसके तप से प्रसन्न हुए ब्रह्माजी ने प्रकट होकर कहा- 'वत्स ! अभीष्ट वर माँगो ।' उसने प्रणाम कर निवेदन किया 'प्रभो! मैं तीनों लोकों का अधिपति हो जाऊँ और किसी से भी पराजित न होऊँ।' यह सुनकर ब्रह्माजी ने कह दिया-'ऐसा ही हो ।' अब तो दैत्य ने अपनी विस्तारवादी नीति अपनाई। धरती, स्वर्ग और पाताल का कोई भी भाग ऐसा न छोड़ा, जहाँ स्वाधीनता रही हो। समस्त जन-जीवन त्रस्त हो उठा और देवता, ऋषि-मुनि एवं सज्जनवृन्द पीड़ित हो उठे । धर्म-कर्म समाप्त हो गया ।
देवता उस असुर के भय से दुर्गम अरण्यादि स्थानों में छिपे-छिपे फिर रहे थे। मुनियों और ब्राह्मणों को भी यज्ञादि कर्म छिपकर ही करने होते थे। एक बार उन्होंने विचार किया कि भगवान् शङ्कर को इस विपत्ति से बचाने के लिए जगाना चाहिए ।

Shri Ganesh Puran | Ekadant Avataar,Maayaasur Dvaara Ekal Karana

बहुत जप, तप, होम, ध्यान, भजन, कीर्तनादि करने पर भी उनकी उपासना का कोई फल नहीं निकला। क्योंकि भगवान् शङ्कर उस समय समाधि में लीन थे, इसलिए वे देवताओं और मुनियों की आराधना की ओर ध्यान नहीं दे सके । साधना के सफल न होने की अवस्था में देवताओं आदि ने भगवती शिवा की आराधना की तो उन्होंने अत्यन्त रूपवती भीलनी का वेश बनाया । उस समय उनकी किशोरावस्था और मनमोहक लावण्य था। वे शिवजी के समक्ष जाकर सुगन्धित पुष्प एकत्र करती हुई कामारि के मन में अत्यन्त मोह उत्पन्न करने लगीं ।

पार्वतीजी की लीला

उमानाथ की समाधि भङ्ग हो गई। उन्होंने बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करने वाली उस लावण्यमयी भीलनी को ज्योंही मोहाभिभूत दृष्टि से देखा त्योंही वह अदृश्य हो गई। उस अवस्था में भगवान् शङ्कर के द्वारा अत्युग्र महापुरुष रूप में जिस मोह की उत्पत्ति हुई वह अत्यन्त सुन्दर था । शिवजी की स्मृति जाग्रत् हुई। वे समझ गये कि यह सब पार्वती की ही लीला है, जो उन्होंने कामदेव के आश्रय से की है। इसलिए उन्होंने अत्यन्त क्रोधपूर्वक उस भयकारी कामदेव को शाप देकर उसकी देह को तुरन्त ही दग्ध कर दिया । कामदेव अत्यन्त व्याकुल हुआ। शरीर के दग्ध होने पर वह शाप- मुक्त होने का उपाय सोचने लगा। फिर वह निश्चल भाव से महोदर की आराधना करने लगा। उसकी तपस्या से महोदर प्रकट होते हुए बोले- 'कामदेव ! वर माँगो ।'
कामदेव ने भगवान् महोदर को अपने सामने देखा तो तुरन्त उनके चरणारविन्द में गिर गया और फिर हाथ जोड़कर गद्गद कण्ठ से उनका स्तवन करता हुआ बोला- 'प्रभो ! मुझे भगवान् शङ्कर ने शापित कर दिया है, जिससे मैं दग्ध हो गया हूँ। कृपा कर आप मुझे नीरोगता प्रदान कीजिए, जिससे मेरा कष्ट दूर हो जाय ।' महोदर ने उससे कहा- 'वत्स ! शिव के शाप को अन्यथा करना तो असम्भव है। फिर भी मैं तुम्हारे सुख के लिए अन्य शरीर प्राप्त करा सकता हूँ। तुम वहाँ आनन्दपूर्वक रह सकते हो ।'

"यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते । 
गानं मधुरसश्चैव मृदुलाण्डज-शब्दकः ॥२॥

उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादयः । 
सङ्गने विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम् ॥३॥

वायुर्मृदुः सुवासश्च वस्त्राण्यपि नवानि वै । 
भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया ॥४॥

तैर्युतः शङ्करादींश्च जेष्यति त्वं पुरा तथा । 
मनोभूः स्मृति भूरेवं त्वन्नामानि भवन्तु वै ॥"

'हे कामदेव ! हे महामते ! तुम यौवना स्त्री, सुवासित पुष्प, मधुर गायन, मकरन्द रस तथा पक्षियों के मधुर कलश में निवास करो। उद्यान (बाग-बगीचे), बसन्त ऋतु एवं चन्दनादि भी तुम्हारे निवास स्थान हैं। विषयी व्यक्तियों की सङ्गति, गुह्याङ्गों का प्रदर्शन, मन्द पवन, सुन्दर घर, नवीन वस्त्राभूषण यह सब मैंने तुम्हारे शरीर रूप में रचे हैं। तुम इन शरीरों से युक्त होकर पूर्ववत् ही शङ्करादि देवताओं पर विजय प्राप्त कर लोगे । इस प्रकार तुम्हारे 'मनोभूः' एवं 'स्मृतिभूः' नाम होंगे ।' कामदेव ने हाथ जोड़कर निवेदन किया- 'प्रभो ! यह तो सब अव्यक्त शरीर हुए, किन्तु व्यक्त-शरीर की प्राप्ति का भी कुछ उपाय करने की कृपा करें ।'
महोदर बोले- 'अच्छा, अनङ्ग ! तू द्वापरयुग में व्यक्त शरीर भी प्राप्त करेगा । द्वापरयुग में परमात्मा श्रीकृष्ण का पृथ्वी पर अवतार होगा, तब तुम उनके पुत्र प्रद्युम्न होगे ।' कामदेव प्रसन्न हो गया। उसने महोदर भगवान् को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा कर पुनः स्तुति की, तदन्तर भगवान् महोदर अन्तर्धान हो गए । इधर शिवपुत्र षड़ानन ने भी भगवान् गणेश्वर की उपासना की थी। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवपुत्र षड़ानन को दर्शन दिए और कहा- 'वत्स ! वर माँग लो।' स्वामी कार्तिकेय बोले- 'प्रभो! मुझे आपकी कृपा के अतिरिक्त और क्या चाहिए । मुझे आप अपनी भक्ति प्रदान कीजिए ।' गणेश्वर बोले- 'वत्स ! मेरी अनन्य भक्ति तो रहेगी ही। मैं तुझे एक वर और देता हूँ-तू अत्यन्त दुराधर्ष तारकासुर के संहार में ही समर्थ होगा।' यह वर देकर भगवान् गणाध्यक्ष वहीं अन्तर्धान हो गये। उधर कुमार कार्तिकेय अपने घर पधारे ।
सूतजी बोले- 'शौनक ! ऐसे-ऐसे अनेकानेक अद्भुत चरित्र हैं उन देवाधिदेव महोदर गणपति के जिन्हें सुनकर भक्तों को परमानन्द की और अभक्तों को भय की प्राप्ति होती है।'शौनक ने जिज्ञासा की- 'फिर क्या हुआ, भगवन् ! क्या वह त्रैलोक्य विजयी तारकासुर कुमार कार्तिकेय के द्वारा मारा गया अथवा किसी अन्य के द्वारा ?' सूतजी ने कहा- 'महोदर भगवान् ने कार्तिकेय को ही उसे मारने का वर दिया था तो वह अन्य किसी के द्वारा कैसे मारा जाता ? जब देवताओं को ज्ञात हुआ कि भगवान् गणेश्वर ने कुमार को वर प्रदान किया है तो सब एकत्र होकर उनके पास पहुँचे और तारक को मारने की प्रार्थना करने लगे । तब कुमार ने शिव-शिवा की आज्ञा ली और शिवगणों की सेना साथ लेकर रणांगण में आ डटे। दोनों ओर की सेनायें भीषण संग्राम में लगी थीं। दोनों पक्ष अपनी-अपनी विजय के लिए जी-तोड़ प्रयत्न कर रहे थे, अन्त में कुमार की सेना प्रबल सिद्ध हुई और कुमार के हाथों से तारकासुर मारा गया । इससे देवगण प्रबल हो गए। उन्होंने तुरन्त ही स्वर्ग का राज हथिया लिया ।'
शौनक ने पुनः पूछा- 'हे सूतजी! भगवान् शङ्कर के मोहित होने से जिस महान् पुरुष मोह की उत्पत्ति हुई थी, उसकी कथा तो वहीं रह गई। प्रभो ! उस पुरुष ने कब, क्या किया, यह मुझे बताइए ।' सूतजी बोले- 'शौनक ! वह भगवान् भास्कर की कृपा से बहुत प्रबल असुर हुआ था । उसे दैत्यगुरु ने अपना शिष्य बनाया और सूर्य की उपासना का आदेश दिया। उसने एकान्त अरण्य प्रान्त में जाकर निराहार रहते हुए एक हजार दिव्य वर्षों तक तपश्चर्या की थी ।
उसका घोर तप देखकर भगवान् सूर्य को कृपा करनी पड़ी। उन्होंने सन्तुष्ट होकर दर्शन दिए और वर माँगने को कहा। मोहासुर ने उनके चरणारविन्दों में प्रणाम कर पूजन किया और फिर स्तुति करते हुए निवेदन किया- 'प्रभो ! मुझे सर्वत्र विजय प्राप्त हो और मैं त्रिलोक का अधीश्वर बन जाऊँ । साथ ही मुझे कोई रोग न हो ।'भास्कर 'एवमस्तु' कहकर अन्तर्धान हो गए। मोहासुर अत्यन्त प्रसन्न होकर घर लौटा और शुक्राचार्य को वर प्राप्ति की बात सुनाई। तब उन्होंने उस असुरराज को दैत्याधिपति के पद पर अभिषिक्त किया। फिर दैत्य- प्रवर प्रमादासुर ने अपनी पुत्री मदिरा का उसके साथ विवाह कर दिया ।

मोहासुर द्वारा ब्रह्माण्ड विजय-वर्णन

तदुपरान्त उसने दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया । समस्त देवता, मनुष्य, नाग, यक्ष, किन्नर आदि पर विजय प्राप्त कर वह त्रैलोक्याधिपति बन बैठा । उसके क्रूर शासन में देवता एवं मुनि आदि अत्यन्त पीड़ित हो उठे । धर्म-कर्म का लोप हो गया। ब्राह्मणों की जीविका का साधन भी समाप्त हो गया । देवता उसके भय से वन-पर्वतों में छिपे फिर रहे थे । निरीह प्रजा उसके अत्याचारों से त्रस्त हो उठी थी। सभी ने सोचा कि अब क्या किया जाय ? इस असुर के उत्पीड़न से किस प्रकार छुटकारा मिले ? ऐसी चिन्ता करते हुए देवताओं और ऋषियों से भगवान् भास्कर ने ही प्रकट होकर कहा- 'मूषकवाहन महोदर की आराधना करो तुम सब । वे ही प्रभु तुम्हारे सङ्कट दूर करेंगे ।'
सूर्य की बात सुनकर देवगणादि ने महोदर भगवान् की प्रसन्नता के लिए घोर तप किया जिससे प्रसन्न हुए गणेश्वर ने प्रकट होकर उनसे पूछा- 'क्या चाहते हो ?' सर्वेश्वर एवं समर्थ प्रभु को अपने समक्ष प्रकट हुए देखकर वे सब अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उनके चरणों में प्रणाम कर गद्गद कण्ठ से बोले- 'प्रभो ! हमसब मोहासुर के उत्पीड़न से संत्रस्त हो रहे हैं, आप हमारी रक्षा कीजिए ।'

मोहासुर की शरणागति

महोदर ने प्रसन्न होकर अभयदान दिया- 'देवताओ ! मुनियो ! तुम सब चिन्ता का त्याग करो। मैं संसार के हितार्थ उस प्रबल दैत्य मोहासुर का संहार कर दूँगा । तुम सब लोग उसके साथ युद्ध करने के लिए आगे बढ़ो ।'
देवर्षि नारद ने मोहासुर को जा बताया कि 'भगवान् महोदर ने तुम्हारे वध का विचार किया है। जब तक तुम्हारा कोई अनिष्ट न हो तब तक उनकी शरण लेने में तुम्हारा कल्याण है।' उक्त परामर्श देकर नारदजी चले गए। मोहासुर ने अपने राजपुरोहित शुक्राचार्य से इस विषय में परामर्श किया तो वे बोले- 'दैत्यराज ! भगवान् महोदर ही इस समस्त विश्व के कर्त्ता और लय करने वाले हैं। समस्त देवताओं और दैत्यों को भी उन्होंने उत्पन्न किया है। वे प्रभु काल के भी महाकाल हैं। उनके लिए अपना पराया कोई नहीं है। इसलिए तुम निर्भय होकर उनकी शरण में जाओ तो वे तुम्हें भी अपना लेंगे। अतः तुम अपनी श्रेय कामना से उनको प्रसन्न करके कृपा प्राप्त कर लो।' तभी महोदर के दूत रूप से भगवान् विष्णु वहाँ पधारे। दैत्यराज ने उन्हें सम्मान सहित आसन दिया और बोला- 'कहिए प्रभो ! आप यहाँ किस प्रयोजन से पधारे हैं ?'
विष्णु बोले- 'हे मोहासुर ! मैं महोदर का दूत हूँ। उन्होंने यह संदेश दिया है कि यदि तुम देवताओं, मुनियों, ब्राह्मणों एवं समस्त धार्मिक स्त्री-पुरुषों के सुख में व्यवधान उपस्थित न करने का वचन देते हुए उन दयामय प्रभु की शरण ले लो तो वे तुम्हें क्षमा कर देंगे। अन्यथा रणक्षेत्र में तुम्हारा वध अवश्यम्भावी है ।' मोहासुर का मोह और गर्व भंग हो गया। उसके चित्त में ज्ञान का प्रकाश हुआ और तब वह भगवान् विष्णु से बोला- 'हे देवदूत ! आप उन भगवान् से जाकर निवेदन करिए कि मैं उनकी शरण ले रहा हूँ। वे मेरे नगर में सादर पधार कर अपने अभिनन्दन का अवसर प्रदान करें । विष्णु ने 'साधु ! साधु !' कहकर उसकी प्रशंसा की और महोदर के पास लौट गए। महोदर ने उनके द्वारा मोहासुर का सन्देश सुना तो उसके नगर में पधारे । दैत्यराज ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक षोड़शोपचार से पूजन कर स्तुति की और उनकी सभी आज्ञाओं का पालन करने का वचन दिया । फिर उसने सुदृढ़ भक्ति की याचना की। महोदर ने उसे इच्छित प्रदान किया और अन्तर्धान हो गए। मोहासुर ने सभी आज्ञाओं का पालन कर संसार भर में सुख-शान्ति स्थापित कर दी ।

दुर्बुद्धि तथा ज्ञानारि दैत्यद्वय का विनाश वर्णन

सूतजी बोले- 'शौनक ! हे वत्स ! तुमने भगवान् महोदर की महिमा से युक्त यह अद्भुत कथा सुनी, अब तुम्हें एक और उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् महोदर की कीर्ति निहित है। उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो-'एक बार दुर्बुद्धि नामक एक दैत्य बहुत प्रबल हो उठा था । अत्याचारों से पीड़ित देवताओं ने भगवान् गजमुख से निवेदन किया कि उनकी रक्षा की जाय । भगवान् ने कृपापूर्वक उन्हें अभय प्रदान किया और दैत्यराज दुर्बुद्धि को मार डाला। उस दैत्य का पुत्र ज्ञानारि भी बड़ा हठी और पराक्रमी था । अपने पिता के मरने पर उसने गजमुख से प्रतिशोध लेने का निश्चय किया । उसकी प्रार्थना सुनकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने उसे भगवान् त्रिलोचन को प्रसन्न करने का परामर्श दिया और साथ ही पंचाक्षरी मन्त्र 'नमः शिवाय' की शिक्षा दी। ज्ञानारि निर्जन वन में जाकर उस मन्त्र से अनुष्ठानपूर्वक तपस्या करने लगा। उसके कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर प्रकट हुए, जिनके दर्शन करके अत्यन्त हर्षित हुए असुर ने सर्वत्र विजय और निर्भयता का वर प्राप्त कर लिया ।
वर देकर भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये और असुर प्रसन्न होकर घर लौटा। फिर उसने विशाल असुरसेना एकत्र कर सब लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। अब उसके निरंकुश शासन का सर्वत्र आरम्भ हुआ। उसने सभी कर्मों पर रोक लगा दी और छल, अनीति, अनाचार, असत्य, अधर्म, हिंसा, अपहरण आदि की छूट दे दी। उसके अत्याचारों से धरती काँप उठी । धरती ने देवताओं के पास जाकर रक्षा की प्रार्थना की। इधर देवता और ऋषि-मुनि भी विवश, असहाय, अनाश्रय एवं भयभीत हो रहे थे । उन्होंने भगवान् विष्णु के पास जाकर कहा- 'प्रभो ! ज्ञानारि के अत्याचारों से पीड़ित हुई धरती आपसे रक्षा प्रार्थना करने के लिए आई है। हे नाथ! उसकी निरंकुशता से हम भी अत्यन्त त्रसित हो रहे हैं। आप हमसब पर कृपा कीजिए ।' भगवान् विष्णु बोले- 'देवताओ ! गणेश्वर की उपासना से यह तुम्हारा दुःख शीघ्र दूर हो सकता है। उनके दशाक्षरी मन्त्र 'गं क्षिप्रप्रसादनाय नमः' का जप करते हुए उन्हीं महोदर भगवान् को प्रसन्न करो ।'
देवताओं ने विष्णु के उपदेश से महोदर की आराधना आरम्भ की, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने विष्णुप्रिया लक्ष्मी जी को स्वप्न देकर कहा- 'तुमने पहिले पुत्र की इच्छा की थी, उसे पूर्ण करने के लिए मैं ही तुम्हारे पुत्र रूप से प्रकट होऊँगा ।' सिन्धुतनया ने प्रसन्नता व्यक्त की और निद्रा भंग होने पर उन्होंने अपनी शय्या पर एक अलौकिक शिशु को लेटा हुआ देखा । हरिप्रिया ने उसे तुरन्त अपने अङ्क में उठा लिया और प्यार करने लगीं। उन्होंने उसी समय पूर्ण आनन्द का अनुभव किया था, इसलिए बालक का नाम भी 'पूर्णानन्द' ही रखा ।
उधर महोदैत्य ज्ञानारि के भी पुत्र हुआ था, जिसका नाम उसने सुबोध रखा । वस्तुतः सुबोध यथा नाम तथा गुण ही हुआ। उनके मन में पूर्णानन्द महोदर के लिए अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति का भाव था। वह निरन्तर उन्हीं का स्मरण ध्यान और नाम जप करता रहता। वह अपने पिता के सामने भी भगवान् महोदर का गुणगान किया करता। उसके पिता ज्ञानारि को यह बात सहन नहीं हुई । ज्ञानारि ने पुत्र को बहुत समझाया कि महोदर में कुछ भी सामर्थ्य नहीं है और न ही वह जगदीश्वर ही हैं, जगदीश्वर तो मैं हूँ जो समस्त विश्व पर शासन करता हूँ। इसलिए उसका नाम-स्मरणादि व्यर्थ ही है।' किन्तु सुबोध ने उसकी बात नहीं मानी।
जब ज्ञानारि ने देखा कि उसका पुत्र किसी प्रकार मानता ही नहीं, तो अत्यन्त क्रोधित होकर बोला- 'अरे दुष्ट ! बता, तेरा वह पूर्णानन्द महोदर कहाँ है ? मैं उसे वहीं जाकर मार डालूँगा ।' सुबोध बोला- 'उन अन्तर्यामी एवं सर्व समर्थ प्रभु को मारना तो दूर, कोई छू भी नहीं सकता। देखो, वे धरती, आकाश, जल, थल, वन, पर्वत, समुद्र, वृक्ष, लता, वल्लरी, पवन, सरोवर, सरिता, अणु, परमाणु आदि सभी में व्याप्त हैं। जितने भी चराचर जीव हैं, उन सभी में प्रभु का निवास है । यहाँ तक कि मुझमें और आपमें भी वे मूषकवाहन महोदर सदैव विद्यमान रहते हैं। ज्ञानारि ने लाल नेत्रों से घूरते हुए कहा- 'यदि तेरा महोदर सर्वत्र है तो दिखाई क्यों नहीं देता ? यदि वह सामने आये तो मैं उसे इसी समय मार डालूँगा ।' तभी एक भयंकर ध्वनि के साथ मूषक वाहन गजमुख प्रकट हो गए । ज्ञानारि यह निश्चय भी न कर पाया कि यह कौन है? कहाँ से आया है ? तभी महोदर ने उसे मार डाला। उसके मरते ही समस्त संसार में सुख-शान्ति स्थापित हो गई ।

टिप्पणियाँ