अग्नि पुराण दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 226 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 226 Chapter !

अग्नि पुराण 226 अध्याय 'सामादि उपायोंका कथन'

पुष्कर उवाच

स्वमेव कर्म दैवाख्यं विद्धि देहान्तराजितं ।
तस्मात् पौरुषमेवेह श्रेष्ठमाहुर्मनीषिणः ।। १ ।।

प्रतिकूलं तथा दैवं पौरुषेण विहन्यते ।
सात्त्विकात् कर्म्मणः पूर्वात् सिद्धिः स्यात्पौरुषं विना ।। २ ।।

पौरुषं दैवसम्पत्त्या काले फलति भार्गव ।
दैवं पुरुषकारश्च द्वयं पुंसः फलावहं ।। ३ ।।

कृषेर्वृष्टिसमायोगात् काले स्युः फलसिद्धयः ।
सधर्म्मं पौरुषं कुर्यान्नालसो न च दैववान् ।। ४ ।।

सामादिभिरुपायैस्तु सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमाः ।
साम चोपप्रदानञ्च चभेददण्डौ तथापरौ ।। ५ ।।

मायोपेक्षेन्द्रजालञ्च उपायाः सप्त ताञ्च्छृणु ।
द्विविधं काथितं साम तथ्यञ्चातत्यमेव च ।। ६ ।।

तत्राप्यतथ्यं साधूनामाक्रोशायैव जायते ।
महाकुलीना ह्यृजवो धर्मनित्या जितेन्द्रियाः ।। ७ ।।

सामसाध्या अतथ्यैश्च गृह्यन्ते राक्षसा अपि ।
तथा तदुपकाराणां कृतानाञ्चैव वर्णनं ।। ८ ।।

परस्परन्तु ये द्विष्टाः क्रुद्धभीतावमानिताः ।
तेषाम्भेदं प्रयुञ्जीत परमं दर्शंयेद्भयं ।। ९ ।।

आत्मीयान् दर्शयेदाशां येन दोषेण बिभ्यति ।
परास्तेनैव ते भेद्या रक्ष्यो वै ज्ञातिभेदकः ।। १० ।।

सामन्तकोषो वाह्यस्तु मन्त्रामात्यात्मजादिकः ।
अन्तःकोषञ्चोपशाम्यं कुर्वन् शत्रोश्च तं जयेत् ।। ११ ।।

उपायश्रेष्ठं दानं स्याद्दानादुभयलोकभाक् ।
न सोऽस्ति नाम दानेन वशगो यो न जायते ।। १२ ।।

दानवानेव शक्नोति संहतान् भेदितुं परान् ।
त्रयासाध्यं साधयेत्तं दण्डेन च कृतेन च ।। १३ ।।

दण्डे सर्वं स्थितं दण्डो नाशयेद् दुष्प्रणीकृतः ।
अदण्ड्यान् दण्डयन्नस्येद्दण्ड्यान् राजाप्यदण्डयन् ।। १४ ।।

देवदैत्योरगनराः सिद्धा भूताः पतत्रिणः ।
उत्क्रमेयुः स्वमर्यादां यदि दण्डान् न पालयेत् ।। १५ ।।

यस्माददान्तान् दमयत्यदण्ड्यान्दण्डयत्यपि ।
दमनाद्दम्डनाच्चैव तस्माद्दण्डं विदुर्बुधाः ।। १६ ।।

तेजसा दुर्न्निरीक्ष्यो हि राजा भास्करवत्ततः।
लोकप्रसादं गच्छेत दर्शनाच्चन्द्रवत्ततः ।। १७ ।।

जगद्व्याप्नोति वै चारैरतो राजा समीरणः ।
दोषनिग्रहकारित्वाद्राजा वैवस्वतः प्रभुः ।। १८ ।।

यदा दहति दुर्बुद्धिं तदा भवति पावकः ।
यदा दानं द्विजातिभ्या दद्यात् तस्माद्धनेश्वरः ।। १९ ।।

धनधाराप्रवर्षित्वाद्देवादौ वरुणः स्मृतः ।
क्षमया धारयंल्लोकान् पार्यिवः पार्थिवो भवेत् ।। २० ।।

उत्साहमन्त्रशक्त्याद्यै रक्षेद्यस्माद्धरिस्ततः ।।

इत्यादिमहा पुराणे आग्नेये सामाद्युपायो नाम षड्विशत्वधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

अग्नि पुराण - दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 226 Chapter !-In Hindi

दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पुरुषार्थकी प्रशंसा; साम आदि उपायोंका प्रयोग तथा राजा की विविध देवरूपता का प्रतिपादन !

पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी। दूसरे शरीरसे उपार्जित किये हुए अपने ही कर्मका नाम 'दैव' समझिये। इसलिये मेधावी पुरुष पुरुषार्थको ही श्रेष्ठ बतलाते हैं। दैव प्रतिकूल हो तो उसका पुरुषार्थसे निवारण किया जा सकता है तथा पहलेके सात्त्विक कर्मसे पुरुषार्थके बिना भी सिद्धि प्राप्त हो सकती है। भृगुनन्दन। पुरुषार्थ ही दैवकी सहायतासे समयपर फल देता है। दैव और पुरुषार्थ ये दोनों मनुष्यको फल देनेवाले हैं। पुरुषार्थद्वारा की हुई कृषिसे वर्षाका योग प्राप्त होनेपर समयानुसार फलकी प्राप्ति होती है। अतः धर्मानुष्ठानपूर्वक पुरुषार्थ करे; आलसी न बने और दैवका भरोसा करके बैठा न रहे ॥ १-४॥

साम आदि उपायोंसे आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध होते हैं। साम, दान, भेद, दण्ड, माया, उपेक्षा और इन्द्रजाल ये सात उपाय बतलाये गये हैं। इनका परिचय सुनिये। तथ्य और अतथ्य-दो प्रकारका 'साम' कहा गया है। उनमें 'अतथ्य साम' साधु पुरुषोंके लिये कलंकका ही कारण होता है। अच्छे कुलमें उत्पन्न, सरल, धर्मपरायण और जितेन्द्रिय पुरुष सामसे ही वशमें होते हैं। अतथ्य सामके द्वारा तो राक्षस भी वशीभूत हो जाते हैं। उनके किये हुए उपकारोंका वर्णन भी उन्हें वशमें करनेका अच्छा उपाय है। जो लोग आपसमें द्वेष रखनेवाले तथा कुपित, भयभीत एवं अपमानित हैं, उनमें भेदनीतिका प्रयोग करे और उन्हें अत्यन्त भय दिखावे। अपनी ओरसे उन्हें आशा दिखावे तथा जिस दोषसे वे दूसरे लोग डरते हों, उसीको प्रकट करके उनमें भेद डाले। शत्रुके कुटुम्बमें भेद डालनेवाले पुरुषकी रक्षा करनी चाहिये। सामन्तका क्रोध बाहरी कोप है तथा मन्त्री, अमात्य और पुत्र आदिका क्रोध भीतरी क्रोधके अन्तर्गत है; अतः पहले भीतरी कोपको शान्त करके सामन्त आदि शत्रुओं के बाह्य कोपको जीतनेका प्रयत्न करे ॥ ५-११॥

सभी उपायोंमें 'दान' श्रेष्ठ माना गया है। दानसे इस लोक और परलोक दोनोंमें सफलता प्राप्त होती है। ऐसा कोई भी नहीं है, जो दानसे वशमें न हो जाता हो। दानी मनुष्य ही परस्पर सुसंगठित रहनेवाले लोगोंमें भी भेद डाल सकता है। साम, दान और भेद-इन तीनोंसे जो कार्य न सिद्ध हो सके, उसे 'दण्ड 'के द्वारा सिद्ध करना चाहिये। दण्डमें सब कुछ स्थित है। दण्डका अनुचित प्रयोग अपना ही नाश कर डालता है। जो दण्डके योग्य नहीं हैं, उनको दण्ड देनेवाला, तथा जो दण्डनीय हैं, उनको दण्ड न देनेवाला राजा नष्ट हो जाता है। यदि राजा दण्डके द्वारा सबकी रक्षा न करे तो देवता, दैत्य, नाग, मनुष्य, सिद्ध, भूत और पक्षी ये सभी अपनी मर्यादाका उल्लङ्घन कर जायें। चूँकि यह उद्दण्ड पुरुषोंका दमन करता और अदण्डनीय पुरुषोंको दण्ड देता है, इसलिये दमन और दण्डके कारण विद्वान् पुरुष इसे 'दण्ड' कहते हैं ॥ १२-१६ ॥

जब राजा अपने तेजसे इस प्रकार तप रहा हो कि उसकी ओर देखना कठिन हो जाय, तब वह 'सूर्यवत्' होता है। जब वह दर्शन देनेमात्रसे जगत्‌को प्रसन्न करता है, तब 'चन्द्रतुल्य' माना जाता है। राजा अपने गुप्तचरोंके द्वारा समस्त संसारमें व्याप्त रहता है, इसलिये वह 'वायुरूप' है तथा दोष देखकर दण्ड देनेके कारण 'सर्वसमर्थ यमराज' के समान माना गया है। जिस समय वह खोटी बुद्धिवाले दुष्टजनको अपने कोपसे दग्ध करता है, उस समय साक्षात् 'अग्निदेव'का रूप होता है तथा जब ब्राह्मणोंको दान देता है, उस समय उस दानके कारण वह धनाध्यक्ष 'कुबेर तुल्य' हो जाता है। देवता आदिके निमित्त घृत आदि हविष्यकी घनी धारा बरसानेके कारण वह 'वरुण' माना गया है। भूपाल अपने' क्षमा' नामक गुणसे जब सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करता है, उस समय 'पृथ्वीका स्वरूप' जान पड़ता है तथा उत्साह, मन्त्र और प्रभुशक्ति आदिके द्वारा वह सबका पालन करता है, इसलिये साक्षात् 'भगवान् विष्णु' का स्वरूप है॥ १७-२० ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'सामादि उपायोंका कथन' नामक दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२६॥

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