अग्नि पुराण तीन सौ इकहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 371 Chapter
अग्नि पुराण तीन सौ इकहत्तरवाँ अध्याय - नरकनिरूपणम्
अग्निरुवाच
उक्तानि यममार्गाणि वक्ष्येऽथ मरणे नृणां ।
ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः ।। १ ।।
शरीरमुपरुध्याऽथ कृत्स्नान्दोषान्रुणद्धि वै ।
छिनत्ति प्राणस्थानानि पुनर्मर्माणि चैव हि ।। २ ।।
शैत्यात् प्रकुपितो वायुश्छिद्रमन्विष्यते ततः ।
द्वे नेत्रे द्वौ तथा कर्णौ द्वौ तु नासापुटौ तथा ।। ३ ।।
ऊद्ध्वन्तु सप्त च्छिद्राणि अष्टमं वदनं तथा ।
एतैः प्राणो विनिर्याति प्रायशः शुभकर्मणं ।। ४ ।।
अधः पायुरुपस्थञ्च अनेनाशुभकारिणां ।
मूर्द्धानं योगिनो भित्त्वा जीवो यात्यथ चेच्छया ।। ५ ।।
अन्तकाले तु सम्प्राप्ते प्राणेऽपानमुपस्थिते ।
तमसा संवृते ज्ञाने संवृतेषु च मर्म्मसु ।। ६ ।।
स जीवो नाभ्यधिष्ठानश्चाल्यते मातरिश्वना ।
बाध्यमाणश्चानयते अष्टाङ्गाः प्राणवृत्तिकाः ।। ७ ।।
च्यवन्तं जायमानं वा प्रविशन्तञ्च योनिषु ।
प्रपश्यन्ति च तं सिद्धा देवा दिव्येन चक्षुषा ।। ८ ।।
गृह्णाति तत्क्षणाद् योगे शरीरञ्चातिवाहिकम् ।
आकाशवायुतेजांसि विग्रहादूद्र्ध्वगामिनः ।। ९ ।।
जलं मही च पञ्चत्वमापन्नः पुरुषः स्मृतः ।
आतिवाहिकदेहन्तु यमदूता नयन्ति तं ।। १० ।।
याम्यं मार्गं महाघोरं षड़शीतिसहस्रकम् ।
अन्नोदकं नीयमानो बान्धवैर्दत्तमश्नुते ।। ११ ।।
यमं दृष्ट्वा यमोक्तेन चित्रगुप्तेन चेरितान् ।
प्राप्नोति नरकान्रौद्रान्धर्मी शुभपथैर्दिवम् ।। १२ ।।
भुज्यन्ते पापिभिर्वक्ष्ये नरकांस्ताश्च यातनाः ।
अष्टाविंशतिरेवाधः क्षितेर्नरककोटयः ।। १३ ।।
सप्तमस्य तलस्यान्ते घोरे तमसि संस्थिताः ।
घोराख्या प्रथमा कोटिः सुघोरा तदधः स्थिता ।। १४ ।।
अतिघोरा महाघोरा घोररूपा च पञ्चमी ।
षष्ठी तरलताराख्या सप्तमी च भयानका ।। १५ ।।
भयोत्कटा कालरात्री महाचण्डा च चण्डया ।
कोलाहला प्रचण्डाख्या पद्मा नरकनायिका ।। १६ ।।
पद्मावती भीषणा च भीमा चैव करालिका ।
विकराला महावज्रा त्रिकोणा पञ्चकोणिका ।। १७ ।।
सुदीर्खघा वर्तुला सप्तभूमा चैव सुभूमिका ।
दीप्तमायाऽष्टाविंशतयः कोटयः पापिदुःशदाः ।। १८ ।।
अष्टाविंशतिकोटीनां पञ्च पञ्च च नायकाः ।
रौरवाद्याः शतञ्चैकं चत्वारिंशच्चतुष्टयं ।। १९ ।।
तामिश्रमन्घतामिश्रं महारौरवरौरवौ ।
असिपत्रं वनञ्चैव लोहभारं तथैव च ।। २० ।।
नरकं कालसूत्रञ्च महानरकमेव च ।
सञ्जीवनं महावीचि तपनं सम्प्रतापनं ।। २१ ।।
सङ्घातञ्च सकाकोलं कुद्मलं पूतिमृत्तिकं ।
लोहशङ्कुमृजीषञ्च प्रधानं शाल्मलीं नदीम् ।। २२ ।।
नरकान् विद्धि कोटीशनागान्वै घोरदर्शनान् ।
पात्यन्ते पापकर्म्माण एकैकस्मिन्बहुष्वपि ।। २३ ।।
मार्जारोलूकगोमायुगृध्रादिवदनाश्च ते ।
तैलद्रोण्यां नरं क्षिप्त्वा ज्वालयन्ति हुताशनं ।। २४ ।।
अम्बरीषेषु चैवान्यांस्ताम्रपात्रेषु चापरान् ।
अयःपात्रेषु चैवान्यान् बकहुवह्निकणेषु च ।। २५ ।।
शूलाग्रारोपिताश्चान्ये छिद्यन्ते नरकेऽपरे ।
ताड्यन्ते च कशाभिस्तु भोज्यन्ते चाप्ययोगुड़ान् ।। २६ ।।
यमदूतैर्नराः पांशून्विष्ठारक्तकफादिकान् ।
तप्तं मद्यं पाययन्ति पाटयन्ति पाटयन्ति पुनर्नरान् ।। २७ ।।
यन्त्रेषु पीडयन्ति स्म भक्ष्यन्ते वायसादिभिः ।
तैलेनोष्णेन सिच्यन्ते छिद्यन्ते नैकधा शिरः ।। २८ ।।
हा तातेति क्रन्दमानाः स्वकन्नन्दन्ति कर्म्म ते ।
महापातकजान्घोरान्नरकान्प्राप्य गर्हितान् ।। २९ ।।
कर्म्मक्षयात्प्रजायन्ते महापातकिनस्त्विह ।
मृगश्वशूकरोष्ट्राणां ब्रह्महा योनिमृच्छति ।। ३० ।।
खरपुक्कशम्लेच्छानां मद्यपः स्वर्णहार्य्यंपि ।
कृमिकीटपतङ्गत्वं गुरुगस्तृणगुल्मतां ।। ३१ ।।
ब्रह्महा क्षयरोगी स्यात् सुरापः श्यावदन्तकः ।
स्वर्णहारी तु कुनखी दुश्चर्म्मा गुरुतल्पगः ।। ३२ ।।
यो येन संस्पृशत्येषां स तल्लिह्गोऽभिजायते ।
अन्नहर्ता मायावी स्याम्मूको वागपहारकः ।। ३३ ।।
धान्यं हृत्वाऽतिरिक्ताङ्गः पिशुनः पूतिनासिकः ।
तैलहृत्तैलपायी स्यात् पूतिवक्त्रस्तु सूचकः ।। ३४ ।।
परस्य योषितं हृत्वा ब्रह्मस्वमपहृत्य च ।
अरण्ये निर्जने देशे जायते ब्रह्मराक्षसः ।। ३५ ।।
रत्नहारी हीनजातिर्गन्धान् छुछुन्दरी शुभान् ।
पत्रं शाकं शिखी हृत्वा मुखरो धान्यहारकः ।। ३६ ।।
अजः पशुंपयः काको यानमुष्ट्रः फलं कपिः ।
मधु दंशः फलं गृध्रो गृहकाक उपस्करं ।। ३७ ।।
श्वित्री वस्त्रं सारसञ्च झिल्ली लवणहारकः ।
उक्त आध्यात्मिकस्तापः शत्राद्यैराधिभौतिकः ।। ३८ ।।
ग्रहाग्निदेवपीड़ाद्यैराधिदैविक ईरितः ।
त्रिधा तापं हि संसारं ज्ञानयोगाद्विनाशयेत् ।।
कृच्छ्रैर्व्रतैश्च दानाद्यैर्विष्णुपूजादिभिर्नरः ।। ३९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नरकनिरूपणं नामैकसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौ इकहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 371 Chapter In Hindi
तीन सौ इकहत्तरवाँ अध्याय प्राणियोंकी मृत्यु, नरक तथा पापमूलक जन्मका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-मुने। मैं यमराजके मार्गकी पहले चर्चा कर चुका हूँ, इस समय मनुष्योंकी मृत्युके विषयमें कुछ निवेदन करूँगा। शरीरमें जब वातका वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणासे ऊष्मा अर्थात् पित्तका भी प्रकोप हो जाता है। वह पित्त सारे शरीरको रोककर सम्पूर्ण दोषोंको आवृत कर लेता है तथा प्राणोंके स्थान और मर्मोंका उच्छेद कर डालता है। फिर शीतसे वायुका प्रकोप होता है और वायु अपने निकलनेके लिये छिद्र ढूँढ़ने लगती है। दो नेत्र, दो कान, दो नासिका और एक ऊपरका ब्रह्मरन्ध्र- ये सात छिद्र हैं तथा आठवाँ छिद्र मुख है। शुभ कार्य करनेवाले मनुष्योंके प्राण प्रायः इन्हीं सात मागाँसे निकलते हैं। नीचे भी दो छिद्र हैं- गुदा और उपस्थ। पापियोंके प्राण इन्हीं छिद्रोंसे बाहर होते हैं, परंतु योगीके प्राण मस्तकका भेदन करके निकलते हैं और वह जीव इच्छानुसार लोकोंमें जाता है। अन्तकाल आनेपर प्राण अपानमें स्थित होता है। तमके द्वारा ज्ञान आवृत हो जाता है, मर्मस्थान आच्छादित हो जाते हैं। उस समय जीव वायुके द्वारा बाधित हो नाभिस्थानसे विचलित कर दिया जाता है; अतः वह आठ अङ्गोंवाली प्राणोंकी वृत्तियोंको लेकर शरीरसे बाहर हो जाता है। देहसे निकलते, अन्यत्र जन्म लेते अथवा नाना प्रकारको योनियोंमें प्रवेश करते समय जीवको सिद्ध पुरुष और देवता ही अपनी दिव्यदृष्टिसे देखते हैं। मृत्युके बाद जीव तुरंत ही आतिवाहिक शरीर धारण करता है। उसके त्यागे हुए शरीरसे आकाश, वायु और तेज-ये ऊपरके तीन तत्त्वोंमें मिल जाते हैं तथा जल और पृथ्वीके अंश नीचेके तत्त्वोंसे एकीभूत हो जाते हैं। यही पुरुषका 'पञ्चत्वको प्राप्त होना' माना गया है। मरे हुए जीवको यमदूत शीघ्र ही आतिवाहिक शरीरमें पहुँचाते हैं। यमलोकका मार्ग अत्यन्त भयंकर और छियासी हजार योजन लंबा है। उसपर ले जाया जानेवाला जीव अपने बन्धु-बान्धवोंके दिये हुए अन्न-जलका उपभोग करता है। यमराजसे मिलनेके पश्चात् उनके आदेशसे चित्रगुप्त जिन भयंकर नरकोंको बतलाते हैं, उन्होंको वह जीव प्राप्त होता है। यदि वह धर्मात्मा होता है, तो उत्तम मार्गीसे स्वर्गलोकको जाता है॥ १-१२॥
अब पापी जीव जिन नरकों और उनकी यातनाओंका उपभोग करते हैं, उनका वर्णन करता हूँ। इस पृथ्वीके नीचे नरककी अट्ठाईस ही श्रेणियाँ हैं। सातवें तलके अन्तमें घोर अन्धकारके भीतर उनकी स्थिति है। नरककी पहली कोटि 'घोरा 'के नामसे प्रसिद्ध है। उसके नीचे 'सुघोरा'की स्थिति है। तीसरी 'अतिघोरा', चौथी 'महाघोरा' और पाँचवीं 'घोररूपा' नामकी कोटि है। छठीका नाम 'तरलतारा' और सातवींका 'भयानका' है। आठवीं 'भयोत्कटा', नवीं 'कालरात्रि' दसवीं 'महावण्डा', ग्यारहवीं 'चण्डा', बारहवीं 'कोलाहला', तेरहवीं 'प्रचण्डा', चौदहवीं 'पद्मा' और पंद्रहवीं 'नरकनायिका' है। सोलहवीं 'पद्मावती', सत्रहवीं 'भीषणा', अठारहवीं 'भीमा', उन्नीसवीं 'करालिका', बीसवीं 'विकराला', इक्कीसवीं 'महावज्रा', बाईसवीं 'त्रिकोणा' और तेईसवीं 'पञ्चकोणिका' है। चौबीसवीं 'सुदीर्घा', पचीसवीं 'वर्तुला', छब्बीसवीं 'सप्तभूमा', सत्ताईसवीं 'सुभूमिका' और अड्डाईसवीं 'दीप्तमाया' है। इस प्रकार ये अट्ठाईस कोटियाँ पापियोंको दुःख देनेवाली हैं॥ १३-१८ ॥
नरकोंकी अट्ठाईस कोटियोंके पाँच-पाँच नायक हैं (तथा पाँच उनके भी नायक हैं)। वे 'रौरव' आदिके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन सबकी संख्या एक सौ पैंतालीस है- तामिस्र, अन्धतामित्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, लोहभार, कालसूत्रनरक, महानरक, संजीवन, महावीचि, तपन, सम्प्रतापन, संघात, काकोल, कुड्मल, पूतमृत्युक, लोहशड्कु, ऋजीष, प्रधान, शाल्मली वृक्ष और वैतरणी नदी आदि सभी नरकोंको 'कोटि-नायक' समझना चाहिये। ये बड़े भयंकर दिखायी देते हैं। पापी पुरुष इनमेंसे एक-एकमें तथा अनेकमें भी डाले जाते हैं। यातना देनेवाले यमदूतोंमें किसीका मुख बिलावके समान होता है तो किसीका उल्लूके समान, कोई गीदड़के समान मुखवाले हैं तो कोई गृध्र आदिके समान। वे मनुष्यको तेलके कड़ाहेमें डालकर उसके नीचे आग जला देते हैं। किन्हींको भाड़में, किन्हींको ताँबे या तपाये हुए लोहेके बर्तनोंमें तथा बहुतोंको आगकी चिनगारियोंमें डाल देते हैं। कितनोंको वे शूलीपर चढ़ा देते हैं। बहुत से पापियोंको नरकमें डालकर उनके टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। कितने ही कोड़ोंसे पीटे जाते हैं और कितनोंको तपाये हुए लोहेके गोले खिलाये जाते हैं। बहुत-से यमदूत उनको धूलि, विष्ठा, रक्त और कफ आदि भोजन कराते तथा तपायी हुई मदिरा पिलाते हैं। बहुत-से जीवोंको वे आरेसे चीर डालते हैं। कुछ लोगोंको कोल्हूमें पेरते हैं। कितनोंको कौवे आदि नोच-नोचकर खाते हैं। किन्हीं किन्हींके ऊपर गरम तेल छिड़का जाता है तथा कितने ही जीवोंके मस्तकके अनेकों टुकड़े किये जाते हैं। उस समय पापी जीव 'अरे बाप रे' कहकर चिल्लाते हैं और हाहाकार मचाते हुए अपने पापकर्मोंकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार बड़े-बड़े पातकोंके फलस्वरूप भयंकर एवं निन्दित नरकोंका कष्ट भोगकर कर्म क्षीण होनेके पश्चात् वे महापापी जीव पुनः इस मर्त्यलोकमें जन्म लेते हैं॥ १९-२९॥
ब्रह्महत्यारा पुरुष मृग, कुत्ते, सूअर और ऊँटोंकी योनिमें जाता है। मदिरा पीनेवाला गदहे, चाण्डाल तथा म्लेच्छोंमें जन्म पाता है। सोना चुरानेवाले कीड़े-मकोड़े और पतिंगे होते हैं तथा गुरुपत्नीसे गमन करनेवाला मनुष्य तृण एवं लताओंमें जन्म ग्रहण करता है। ब्रह्महत्यारा राजयक्ष्माका रोगी होता है, शराबीके दाँत काले हो जाते हैं, सोना चुरानेवालेका नख खराब होता है तथा गुरुपत्नीगामीके चमड़े दूषित होते हैं (अर्थात् वह कोढ़ी हो जाता है)। जो जिस पापसे सम्पर्क रखता है, वह उसीका कोई चिह्न लेकर जन्म ग्रहण करता है। अन्न चुरानेवाला मायावी होता है। वाणी (कविता आदि) को चोरी करनेवाला गूँगा होता है। धान्यका अपहरण करनेवाला जब जन्म ग्रहण करता है, तब उसका कोई अङ्ग अधिक होता है, चुगुलखोरकी नासिकासे बदबू आती है, तेल चुरानेवाला पुरुष तेल पीनेवाला कीड़ा होता है तथा जो इधरकी बातें उधर लगाया करता है, उसके मुँहसे दुर्गन्ध आती है। दूसरोंकी स्त्री तथा ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला पुरुष निर्जन वनमें ब्रह्मराक्षस होता है। रत्न चुरानेवाला नीच जातिमें जन्म लेता है। उत्तम गन्धकी चोरी करनेवाला छबूंदर होता है। शाक-पात चुरानेवाला मुर्गा तथा अनाजकी चोरी करनेवाला चूहा होता है। पशुका अपहरण करनेवाला बकरा, दूध चुरानेवाला कौवा, सवारीकी चोरी करनेवाला ऊँट तथा फल चुराकर खानेवाला बन्दर होता है। शहदकी चोरी करनेवाला डाँस, फल चुरानेवाला गृध्र तथा घरका सामान हड़प लेनेवाला गृहकाक होता है। वस्त्र हड़पनेवाला कोढ़ी, चोरी-चोरी रसका स्वाद लेनेवाला कुत्ता और नमक चुरानेवाला झींगुर होता है ॥ ३०-३७॥
यह 'आधिदैविक ताप' का वर्णन किया गया है। शस्त्र आदिसे कष्टकी प्राप्ति होना 'आधिभौतिक ताप' है तथा ग्रह, अग्नि और देवता आदिसे जो कष्ट होता है, वह 'आधिदैविक ताप' बतलाया गया है। इस प्रकार यह संसार तीन प्रकारके दुःखोंसे भरा हुआ है। मनुष्यको चाहिये कि ज्ञानयोगसे, कठोर व्रतोंसे, दान आदि पुण्योंसे तथा विष्णुकी पूजा आदिसे इस दुःखमय संसारका निवारण करे ॥ ३८-४० ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नरकादि-निरूपण' नामक तीन सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३७१ ॥
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