अग्नि पुराण तीन सौ तिहत्तरवाँ अध्याय - Agni Purana 373 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ तिहत्तरवाँ अध्याय  - Agni Purana 373 Chapter

अग्नि पुराण तीन सौ तिहत्तरवाँ अध्याय - आसनप्राणायामप्रत्याहाराः


अग्निरुवाच

आसनं कमलाद्युक्तं तद्‌बद्‌ध्वा चिन्तयेत्परं ।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनामात्मनः ।। १ ।।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चेलाजिनकुशोत्तरं ।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।। २ ।।

उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।
समकायशिरग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।। ३ ।।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वन्दिशश्चानवलोकयन् ।
पार्ष्णिभ्यां वृषणौ रक्षंस्तथा प्रजननं पुनः ।। ४ ।।

उरुभ्यामुपरिस्थाप्य बाहू तिर्य्यक् प्रयत्नतः ।
दक्षिणं करपृष्ठञ्च न्यसेद्वामतलोपरि ।। ५ ।।

उन्नम्य शनकैर्वक्त्त्रं मुखं विष्टभ्य चाग्रतः ।
प्राणः स्वदेहजो वायुस्तस्यायामो निरोधनं ।। ६ ।।

नासिकापुटमङ्गुल्या पीड्यैव च परेण च ।
औदरं रेचयेद्वायुं रेचनाद्रेचकः स्मृतः ।। ७ ।।

बाह्येन वायुना देहं दृतिवत् पूरयेद्यथा ।
तथा पूर्णश्च सन्तिष्ठेत् पूरणात् पूरकः स्मृतः ।। ८ ।

न मुञ्चति न गृह्णाति वायुमन्तर्बहिः स्थितम् ।
सम्पूर्णकुम्भवत्तिष्ठेदचलः स तु कुम्भकः ।। ९ ।।

कन्यकः सकृदुद्‌घातः स वै द्वादशमात्रिकः ।
मध्यमश्च द्विरुद्‌घातश्चतुर्विंशतिमात्रिकः ।। १० ।।

उत्तमश्च त्रिरुद्‌घातः षट्‌त्रिंशत्तालमात्रिकः ।
स्वेदकम्पाभिघातानां जननश्चोत्तमोत्तमः ।। ११ ।।

अजितान्नारुहेद्‌भूमिं हिक्काश्वासादयस्तथा ।
जिते प्राणे स्वल्पदोषविण्मूत्रादि प्रजायते ।। १२ ।।

आरोग्यं शीघ्रगामित्वमुत्साहः स्वरसौष्ठवम् ।
बलवर्णप्रसादश्च सर्वदोषक्षयः फलं ।। १३ ।।

जपध्यानं विनागर्भः स गर्भस्तत्समन्वितः ।
इन्द्रियाणां जयार्थाय स गर्भं धारयेत्परं ।। १४ ।।

ज्ञानवैराग्ययुक्ताभ्यां प्राणायामवशेन च ।
इन्द्रियांश्च विनिर्जित्य सर्वमेव जितं भवेत् ।। १५ ।।

इन्द्रियाण्येव तत्सर्वं यत् स्वर्गनरकावुभौ ।
निगृहीतविसृष्टानि स्वर्गाय नरकाय च ।। १६ ।।

शरीरं रथमित्याहुरिन्द्रियाण्यस्य वाजिनः ।
मनश्च सारथिः प्रोक्तः प्राणायामः कशः स्मृतः ।। १७ ।।

ज्ञानवैराग्यरश्मिभ्यां सायया विधृतं मनः ।
शनैर्निश्चलतामेति प्राणायामैकसंहितम् ।। १८ ।।

जलबिन्दुं कुशाग्रेण मासे मासे पिबेत्तु यः ।
संवत्सरशतं साग्रं प्राणायामश्च तत्समः ।। १९ ।।

इन्द्रियाणि प्रसक्तानि प्रविश्य विषयोदधौ ।
आहृत्य यो निगृह्णाति प्रत्याहारः स उच्यते ।। २० ।।

उद्धरेदात्मनात्मानं मज्जमानं यथाम्भसि ।
भोगनद्यतिवेगेन ज्ञानवृक्षं समाश्रयेत् ।। २१ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये आसनप्राणायामप्रत्याहारा नाम त्रिसप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ तिहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे Agni Purana 373 Chapter In Hindi

तीन सौ तिहत्तरवाँ अध्याय - आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- मुने। पद्मासन आदि नाना प्रकारके 'आसन' बताये गये हैं। उनमेंसे कोई भी आसन बाँधकर परमात्माका चिन्तन करना चाहिये। पहले किसी पवित्र स्थानमें अपने बैठनेके लिये स्थिर आसन बिछावे, जो न अधिक ऊँचा हो और न अधिक नीचा। सबसे नीचे कुशका आसन हो, उसके ऊपर मृगचर्म और मृगचर्मके ऊपर वस्त्र बिछाया गया हो। उस आसनपर बैठकर मन और इन्द्रियोंकी चेष्टाओंको रोकते हुए चित्तको एकाग्र करे तथा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगाभ्यासमें संलग्न हो जाय। उस समय शरीर, मस्तक और गलेको अविचलभावसे एक सीधमें रखते हुए स्थिर बैठे। केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको देखे; अन्य दिशाओंकी ओर दृष्टिपात न करे। दोनों पैरोंकी एड़ियोंसे अण्डकोष और लिङ्गकी रक्षा करते हुए दोनों ऊरुओं (जाँघों) के ऊपर भुजाओंको यत्नपूर्वक तिरछी करके रखे तथा बायें हाथकी हथेलीपर दाहिने हाथके पृष्ठभागको स्थापित करे और मुँहको कुछ ऊँचा करके सामनेकी ओर स्थिर रखे। इस प्रकार बैठकर प्राणायाम करना चाहिये ॥ १-५ ॥

अपने शरीरके भीतर रहनेवाली वायुको 'प्राण' कहते हैं। उसे रोकनेका नाम है- 'आयाम'। अतः 'प्राणायाम' का अर्थ हुआ- 'प्राणवायुको रोकना'। उसकी विधि इस प्रकार है- अपनी अंगुलीसे नासिकाके एक छिद्रको दबाकर दूसरे छिद्रसे उदरस्थित वायुको बाहर निकाले। 'रेचन' अर्थात् बाहर निकालनेके कारण इस क्रियाको 'रेचक' कहते हैं। तत्पश्चात् चमड़ेकी धौंकनीके समान शरीरको बाहरी वायुसे भरे। भर जानेपर कुछ कालतक स्थिरभावसे बैठा रहे। बाहरसे वायुकी पूर्ति करनेके कारण इस क्रियाका नाम 'पूरक' है। वायु भर जानेके पश्चात् जब साधक न तो भीतरी वायुको छोड़ता है और न बाहरी वायुको ग्रहण ही करता है, अपितु भरे हुए घड़ेकी भाँति अविचल भावसे स्थिर रहता है, उस समय कुम्भवत् स्थिर होनेके कारण उसकी वह चेष्टा 'कुम्भक' कहलाती है। बारह मात्रा (पल) का एक 'उद्धात' होता है। इतनी देरतक वायुको रोकना कनिष्ठ श्रेणीका प्राणायाम है। दो उद्धात अर्थात् चौबीस मात्रातक किया जानेवाला कुम्भक मध्यम श्रेणीका माना गया है तथा तीन उद्धात यानी छत्तीस मात्रातकका कुम्भक उत्तम श्रेणीका प्राणायाम है। 

जिससे शरीरसे पसीने निकलने लगें, कँपकँपी छा जाय तथा अभिघात लगने लगे, वह प्राणायाम अत्यन्त उत्तम है। प्राणायामकी भूमिकाओंमेंसे जिसपर भलीभाँति अधिकार न हो जाय, उनपर सहसा आरोहण न करे, अर्थात् क्रमशः अभ्यास बढ़ाते हुए उत्तरोत्तर भूमिकाओंमें आरूढ़ होनेका यत्न करे। प्राणको जीत लेनेपर हिचकी और साँस आदिके रोग दूर हो जाते हैं तथा मल-मूत्रादिके दोष भी धीरे धीरे कम हो जाते हैं। नीरोग होना, तेज चलना, मनमें उत्साह होना, स्वरमें माधुर्य आना, बल बढ़ना, शरीरवर्णमें स्वच्छताका आना तथा सब प्रकारके दोषोंका नाश हो जाना-ये प्राणायामसे होनेवाले लाभ हैं। प्राणायाम दो तरहके होते हैं-' अगर्भ' और 'सगर्भ'। जप और ध्यानके बिना जो प्राणायाम किया जाता है, उसका नाम 'अगर्भ' है तथा जप और ध्यानके साथ किये जानेवाले प्राणायामको 'सगर्भ' कहते हैं। इन्द्रियोंपर विजय पानेके लिये सगर्भ प्राणायाम ही उत्तम होता है; उसीका अभ्यास करना चाहिये। ज्ञान और वैराग्यसे युक्त होकर प्राणायामके अभ्यास से इन्द्रियोंको जीत लेनेपर सबपर विजय प्राप्त हो जाती है। जिसे 'स्वर्ग' और 'नरक' कहते हैं, वह सब इन्द्रियाँ ही हैं। वे ही वशमें होनेपर स्वर्गमें पहुँचाती हैं और स्वतन्त्र छोड़ देनेपर नरकमें ले जाती हैं। शरीरको 'रथ' कहते हैं, इन्द्रियाँ ही उसके 'घोड़े' हैं, मनको 'सारथि' कहा गया है और प्राणायामको 'चाबुक' माना गया है। 

ज्ञान और वैराग्यकी बागडोरमें बँधे हुए मनरूपी घोड़ेको प्राणायामसे आबद्ध करके जब अच्छी तरह काबूमें कर लिया जाता है तो वह धीरे-धीरे स्थिर हो जाता है। जो मनुष्य सौ वर्षोंसे कुछ अधिक कालतक प्रतिमास कुशके अग्रभागसे जलकी एक बूँद लेकर उसे पीकर रह जाता है, उसकी वह तपस्या और प्राणायाम दोनों बराबर हैं। विषयोंके समुद्रमें प्रवेश करके वहाँ फैंसी हुई इन्द्रियोंको जो आहूत करके, अर्थात् लौटाकर अपने अधीन करता है, उसके इस प्रयत्नको 'प्रत्याहार' कहते हैं। जैसे जलमें डूबा हुआ मनुष्य उससे निकलनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार संसार- समुद्रमें डूबे हुए अपने-आपको स्वयं ही निकालनेका प्रयत्न करे। भोगरूपी नदीका वेग अत्यन्त बढ़ जानेपर उससे बचनेके लिये अत्यन्त सुदृढ़ ज्ञानरूपी वृक्षका आश्रय लेना चाहिये ॥ ६-२१ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहारका वर्णन' नामक तौन सी तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७३ ॥

click to read 👇

अग्नि पुराण अध्यायः ३६९ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७० ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७१ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३७२ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७३ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७४ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३७५ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७६ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७७ ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३७८ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३७९ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३८० ]

अग्नि पुराण अध्यायः ३८१ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३८२ ]  [ अग्नि पुराण अध्यायः ३८३ ]

टिप्पणियाँ