कबीर दास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी संत कबीर के दोहे 451 से 500 तक,A brief note on Kabir Das Saint Kabir's couplets 451 to 500

कबीर दास पर टिप्पणी संत कबीर के दोहे 451 से 500 तक

कबीर दास पर टिप्पणी 

कबीरदास या कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमार्गी उपशाखा के महानतम कवि थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनकी रचनाएँ सिक्खों के आदि ग्रंथ में सम्मिलित की गयी हैं।
कबीर दास भारत के एक महान संत होने के साथ-साथ एक रहस्यमय कवि भी थे। इस्लाम कबीर का अर्थ कुछ महान और बड़ा बताता है। कबीर पंत नामक धार्मिक समुदाय कबीर को संत मत संप्रदाय के निर्माता के रूप में परिभाषित करता है। यह समुदाय पूरे मध्य और उत्तर भारत में फैला हुआ है।  हालाँकि उन्होंने भारत की परंपराओं और संस्कृति को प्रभावित करने वाली कविताओं, पुस्तकों, ग्रंथों आदि की एक श्रृंखला लिखी। उनकी कुछ रचनाओं में कबीर ग्रंथावली, साखी ग्रंथ, अनुराग सागर, बीजक आदि शामिल हैं। उन्हें संत कहा जाता है क्योंकि वे आध्यात्मिक मार्ग में विश्वास करते हैं, जिसने उन्हें एक महान साधु बना दिया। साइट कहती थी कि सच्चाई उसी का साथ देती है जो सही रास्ते पर चलता है. लोग तभी सच्चे हो सकते हैं जब वे अहंकार से 'मैं' को हटा दें और दिव्य बने रहें। वह एक आध्यात्मिक आस्तिक थे जिन्होंने बचपन में गुरु रामानंद से प्रशिक्षण प्राप्त किया था। प्रारंभ में गुरु रामानंद ने उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया। फिर, एक दिन, कबीर गुरु रामानंद के पैरों के नीचे आ गए क्योंकि गुरु तालाब की सीढ़ियों पर मंत्र पढ़ रहे थे। गुरु को इस कृत्य के लिए दोषी महसूस हुआ, जिस पर कबीर ने उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए मना लिया। गुरु रामानंद उनके अनुरोध पर सहमत हो गए और आगे चलकर कबीर उनके पसंदीदा शिष्य बन गए।  आज, उनका घर छात्रों के रहने और कबीर के कार्यों के बारे में जानने और समाज पर उनके द्वारा छोड़े गए प्रभाव के बारे में जानने की सुविधा प्रदान करता है। उनका घर अब प्रसिद्ध कबीर मठ है, जहां कबीर पंथ समुदाय के संत कबीर के दोहे गाते हैं, अपने उपासकों को वास्तविक जीवन की शिक्षा देते हैं।
A brief note on Kabir Das Saint Kabir's couplets 451 to 500

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संत कबीर के दोहे 451 से 500 तक 

सुनिये सन्‍्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय । 
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 451 ॥ 
दोहे
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल । 
अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ॥ 452 ॥ 
दोहे
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय । 
कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय ॥ 453 ॥ 
दोहे
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट । 
कहैं कबीर क्‍यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 454 ॥ 
दोहे
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । 
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 455 ॥ 
दोहे
सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय । 
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 456 ॥ 
दोहे
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज । 
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 457 ॥ 
दोहे
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । 
तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्मण्ड ॥ 458 ॥ 
दोहे
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय । 
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ 459 ॥ 
दोहे
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय । 
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 460 ॥ 
दोहे
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव । 
कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 461 ॥ 
दोहे
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर । 
अब देवे को क्‍या रहा, यों कयि कहहिं कबीर ॥ 462 ॥ 
दोहे
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय । 
कहै कबीर क्‍या कीजिये, और मता मन जाय ॥ 463 ॥ 
दोहे
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान । 
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥ 464 ॥ 
दोहे
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय । 
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥ 465 ॥ 
दोहे
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । 
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 466 ॥ 
दोहे
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय । 
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥ 467 ॥ 
दोहे
डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय । 
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ ॥ 468 ॥ 
दोहे
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु । 
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 469 ॥ 
दोहे
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है । 
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 470 ॥ 
दोहे
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत । 
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 471॥ 
दोहे
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे ।
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 472 ॥ 
दोहे
जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । 
अनच्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 473 ॥ 
दोहे
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध । 
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 474 ॥ 
दोहे
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव । 
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 475 ॥ 
दोहे
आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय । 
दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय ॥ 476 ॥ 
दोहे
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । 
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 477 ॥ 
दोहे
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख । 
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ 478 ॥ 
दोहे
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल । 
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 479 ॥ 
दोहे
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव । 
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥ 480 ॥ 
दोहे
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय । 
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥ 481 ॥ 
दोहे
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार । 
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥ 482 ॥ 
दोहे
सद्गलुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं । 
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥ 483 ॥ 
दोहे
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार । 
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥ 484 ॥ 
दोहे
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय । 
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥ 485 ॥ 
दोहे
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय । 
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥ 486 ॥ 
दोहे
गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश । 
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥ 487 ॥ 
दोहे
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय । 
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥ 488 ॥ 
दोहे
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह । 
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 489 ॥ 
दोहे
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास । 
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 490 ॥ 
दोहे
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । 
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥491 ॥ 
दोहे
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । 
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 492 ॥ 
दोहे
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । 
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 493 ॥ 
दोहे
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । 
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 494 ॥ 
दोहे
गुरु बिचारा क्‍या करै, शब्द न लागै अंग । 
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 495 ॥ 
दोहे
गुरु बिचारा क्या करे, हृदय भया कठोर । 
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥496 ॥ 
दोहे
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । 
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 497 ॥ 
दोहे
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । 
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 498 ॥ 
दोहे
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । 
ताके सद्गुरु कहा करें, घनधसि कुल्हरन होय ॥499 ॥ 
दोहे
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । 
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 500 ॥

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