अग्नि पुराण - सतहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 77 Chapter !

अग्नि पुराण - सतहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 77 Chapter !


अग्नि पुराण सतहत्तरवाँ अध्याय - कपिला-पूजन आदिको विधि का वर्णन !कपिलादिपूजाविधनं !

अग्नि पुराण - सतहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 77 Chapter !

अग्नि पुराण - सतहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 77 Chapter !

ईश्वर उवाच
कपिलापूजनं वक्ष्ये एभिर्मन्त्रैर् यजेच्च गां ।
ॐ कपिले नन्दे नमः ॐ कपिले भद्रिके नमः ॥००१॥

ॐ कपिले सुशीले नमः कपिले सुरभिप्रभे ।
ॐ कपिले सुमनसे नमः ॐ भुक्तिमुक्तिप्रदे नमः ॥००२॥

सौरभेयि जगन्मातर्देवानाममृतप्रदे ।
गृहाण वरदे ग्रासमीप्सितार्थञ्च देहि मे ॥००३॥

वन्दितासि वसिष्ठेन विश्वामित्रेण धीमता ।
कपिले हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतं ॥००४॥

गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च ।
गावो मे हृदये चापि गवां मध्ये वसाम्यहं ॥००५॥

दत्तं गृह्णन्तु मे ग्रासं जप्त्वा स्यां निर्मलः शिवः ।
प्रार्च्य विद्यापुस्तकानि गुरुपादौ नमेन्नरः ॥००६॥

यजेत् स्नात्वा तु मध्याह्ने अष्टपुष्पिकया शिवं ।
पीठमूर्तिशिवाङ्गानां पूजा स्यादष्टपुष्पिका ॥००७॥

मध्याह्ने भोजनागारे सुलिप्ते पाकमानयेत् ।
ततो मृत्युञ्जयेनैव वौषडन्तेन सप्तधा ॥००८॥

जप्तैः सदर्भशङ्खस्थैः सिञ्चेत्तं वारिविन्दुभिः ।
सर्वपाकाग्रमुद्धृत्य शिवाय विनिवेदयेत् ॥००९॥

अथार्धं चुल्लिकाहोमे विधानायोपकल्पयेत्3 ।
विशोध्य विधिना चुल्लीं तद्वह्निं पूरकाहुतिं ॥०१०॥

हुत्वा नाभ्यग्निना चैकं ततो रेचकवायुना ।
वह्निवीजं समादाय कादिस्थानगतिक्रमात् ॥०११॥

शिवाग्निस्त्वमिति ध्यात्वा चुल्लिकाग्नौ निवेशयेत् ।
ॐ हां अग्नये नमो वै हां सोमाय वै नमः ॥०१२॥

सूर्याय वृहस्पतये प्रजानां पतये नमः ।
सर्वेभ्यश् चैव देवेभ्यः सर्वविश्वेभ्य एव च ॥०१३॥

हामग्नये खिष्टिकृते पूर्वादावर्चयेदिमान् ।
स्वाहान्तामाहुतिं दत्वा क्षमयित्वा विसर्जयेत् ॥०१४॥

चुल्ल्या दक्षिणबाहौ च यजेद्धर्माय वै नमः ।
वामबाहावधर्माय काञ्जिकादिकभाण्डके ॥०१५॥

रसपरिवर्तमानाय वरुणाय जलाग्नये1 ।
विघ्नराजो गृहद्वारे पेषण्यां सुभगे नमः ॥०१६॥

ॐ रौद्रिके नमो गिरिके नमश् चओलूखले यजेत् ।
बलप्रियायायुधाय नमस्ते मुषले यजेत् ॥०१७॥

सम्मार्जन्यां देवतोक्ते कामाय शयनीयके ।
मध्यस्तम्भे च स्कन्दाय दत्वा वास्तुबलिं ततः ॥०१८॥

भुञ्जीत पात्रे सौवर्णे पद्मिन्यादिदलादिके ।
आचार्यः साधकःपुत्र समयी मौनमास्थितः ॥०१९॥

वटाश्वत्थार्कवाताविसर्जभल्लातकांस्त्यजेत् ।
अपोशानं पुरादाय प्राणाद्यैः प्रणवान्वितैः ॥०२०॥

स्वाहान्तेनाहुतीः पञ्च दत्वादीप्योदरानलं ।
नागः कूर्मो ऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ॥०२१॥

एतेभ्य उपवायुभ्यः स्वाहापोषानवारिणा ।
भक्तादिकं निवेद्याय पिवेच्छेषोदकं नरः ॥०२२॥

अमृतोपस्तरणमसि प्राणाहुतीस्ततो ददेत् ।
प्राणाय स्वाहापानाय समानाय ततस् तथा ॥०२३॥

उदानाय च व्यानाय भुक्त्वा चुल्लकमाचरेत् ।
अमृतापिश्चानमसीति शरीरे ऽन्नादिवायवः ॥०२४॥

इत्य् आदिमहापुराणे आग्नेये वास्तुपूजाकथनं नाम सप्तसप्ततितमो ऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - सतहत्तरवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 77 Chapter!-In Hindi

घरकी कपिला गाय, चूल्हा, चक्की, ओखली, मूसल, झाड़ और खंभे आदिका पूजन एवं प्राणाग्निहोत्रकी विधि
भगवान् महेश्वर कहते हैं- स्कन्द ! अब कपिलापूजनके विषयमें कहूँगा। निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे गोमाताका पूजन करे -'ॐ कपिले नन्दे नमः। ॐ कपिले भद्रिके नमः। ॐ कपिले सुशीले नमः। ॐ कपिले सुरभिप्रभे नमः। ॐ कपिले सुमनसे नमः। ॐ कपिले भुक्तिमुक्तिप्रदे नमः ।' इस प्रकार गोमातासे प्रार्थना करे- 'देवताओंको अमृत प्रदान करनेवाली, वरदायिनी, जगन्माता इन मन्त्रोंका भावार्थ इस प्रकार है- आनन्ददायिनी, कल्याणकारिणी, उत्तम स्वभाववाली, सुरभिकी-सी मनोहर कान्तिवाली, शुद्ध हृदयवाली तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली कपिले! तुम्हें बार-बार नमस्कार है।
सौरभेयि ! यह ग्रास ग्रहण करो और मुझे मनोवाञ्छित वस्तु दो। कपिले! ब्रह्मर्षि वसिष्ठ तथा बुद्धिमान् विश्वामित्रने भी तुम्हारी वन्दना की है। मैंने जो दुष्कर्म किया हो, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो। गौएँ सदा मेरे आगे रहें, गौएँ मेरे पीछे भी रहें, गौएँ मेरे हृदयमें निवास करें और मैं सदा गौओंके बीच निवास करूँ। गोमातः ! मेरे दिये हुए इस ग्रासको ग्रहण करो।'
गोमाताके पास इस प्रकार बारंबार प्रार्थना करनेवाला पुरुष निर्मल (पापरहित) एवं शिव स्वरूप हो जाता है। विद्या पढ़नेवाले मनुष्यको चाहिये कि प्रतिदिन अपने विद्या-ग्रन्थोंका पूजन करके गुरुके चरणोंमें प्रणाम करे। गृहस्थ पुरुष नित्य मध्याह्नकालमें स्नान करके अष्टपुष्पिका (आठ फूलोंवाली) पूजाकी विधिसे भगवान् शिवका पूजन करे। योगपीठ, उसपर स्थापित शिवकी मूर्ति तथा भगवान् शिवके जानु, पैर, हाथ, उर, सिर, वाक्, दृष्टि और बुद्धि-इन आठ अङ्गोंकी पूजा ही 'अष्टपुष्पिका पूजा' कहलाती है (आठ अङ्ग ही आठ फूल हैं)। मध्याह्नकालमें सुन्दर रीतिसे लिपे-पुते हुए रसोईघरमें पका पकाया भोजन ले आवे। फिर - 'त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।।' वौषट् ॥ (शु० यजु० ३।६०) इस प्रकार अन्तमें 'वौषट्' पदसे युक्त मृत्युञ्जय मन्त्रका सात बार जप करके कुशयुक्त शङ्खमें रखे हुए जलकी बूँदोंसे उस अन्नको सींचे। तत्पश्चात् सारी रसोईसे अग्राशन निकालकर भगवान् शिवको निवेदन करे ॥ १-९ ॥
इसके बाद आधे अन्नको चुल्लिका होमका कार्य सम्पन्न करनेके लिये रखे। विधिपूर्वक चूल्हेकी शुद्धि करके उसकी आगमें पूरक प्राणायामपूर्वक एक आहुति दे। फिर नाभिगत अग्नि- जठरानलके उद्देश्यसे एक आहुति देकर रेचक प्राणायामपूर्वक भीतरसे निकलती हुई वायुके साथ अग्निबीज (रं) को लेकर क्रमशः 'क' आदि अक्षरोंके उच्चारणस्थान कण्ठ आदिके मार्गसे बाहर करके 'तुम शिवस्वरूप अग्नि हो' ऐसा चिन्तन करते हुए उसे चूल्हेकी आगमें भावनाद्वारा समाविष्ट कर दे। इसके बाद चूल्हेकी पूर्वादि दिशाओंमें 'ॐ हां अग्नये नमः। ॐ हां सोमाय नमः। ॐ हां सूर्याय नमः। ॐ हां बृहस्पतये नमः। ॐ हां प्रजापतये नमः। ॐ हां सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। ॐ हां सर्वविश्वेभ्यो नमः । ॐ हां अग्नये स्विष्टकृते नमः।' - इन आठ मन्त्रोंद्वारा अग्नि आदि आठ देवताओंकी पूजा करे। फिर इन मन्त्रोंक अन्तमें 'स्वाहा' पद जोड़कर एक- एक आहुति दे और अपराधोंके लिये क्षमा माँगकर उन सबका विसर्जन कर दे॥ १०-१४॥
चूल्हेके दाहिने बगलमें 'धर्माय नमः।' इस मन्त्रसे धर्मकी तथा बायें बगलमें 'अधर्माय नमः।' इस मन्त्रसे अधर्मकी पूजा करे। फिर काँजी आदि रखनेके जो पात्र हों, उनमें तथा जलके आश्रयभूत घट आदिमें 'रसपरिवर्तमानाय वरुणाय नमः ।' इस मन्त्रसे वरुणकी पूजा करे। रसोईघरके द्वारपर 'विघ्नराजाय नमः।' से विघ्नराजकी तथा 'सुभगायै नमः ।' से चक्कीमें सुभगाकी पूजा करे ॥ १५-१६ ॥
ओखलीमें 'ॐ रौद्रिके गिरिके नमः ।' इस मन्त्रसे रौद्रिका तथा गिरिकाकी पूजा करनी चाहिये। मूसलमें 'बलप्रियायायुधाय नमः ।' इस मन्त्रसे बलभद्रजीके आयुधका पूजन करे। झाड़में भी उक्त दो देवियों (रौद्रिका और गिरिका)-कौ, शय्यामें कामदेवकी तथा मझले खम्भेमें स्कन्दकी पूजा करे। बेटा स्कन्द ! तत्पश्चात् व्रतका पालन 
करनेवाला साधक एवं पुरोहित वास्तु-देवताको बलि देकर सोनेके थालमें अथवा पुरइनके पत्ते आदिमें मौनभावसे भोजन करे। भोजनपात्रके रूपमें उपयोग करनेके लिये बरगद, पीपल, मदार, रेंड़, साखू और भिलावेके पत्तोंको त्याग देना चाहिये - इन्हें काममें नहीं लाना चाहिये। पहले आचमन करके, 'प्रणवयुक्त प्राण' आदि शब्दोंके अन्तमें 'स्वाहा' बोलकर अन्नकी पाँच आहुतियाँ देकर जठरानलको उद्दीप्त करनेके पश्चात् भोजन करना चाहिये। इसका क्रम यों है-नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय - ये पाँच उपवायु हैं। 'एतेभ्यो नागादिभ्य उपवायुभ्यः स्वाहा।' इस मन्त्रसे आचमन करके, भात आदि भोजन निवेदन करके, अन्तमें फिर आचमन करे और कहे - 'ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।' इसके बाद पाँच प्राणोंको एक-एक ग्रासकी आहुतियाँ अपने मुखमें दे- (१) ॐ प्राणाय स्वाहा। (२) ॐ अपानाय स्वाहा। (३) ॐ व्यानाय स्वाहा। (४) ॐ समानाय स्वाहा। (५) ॐ उदानाय स्वाहा। तत्पश्चात् पूर्ण भोजन करके पुनः चूल्लूभर पानीसे आचमन करे और कहे- 'ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।' यह आचमन शरीरके भीतर पहुँचे हुए अन्नको आच्छादित करने या पचानेके लिये है ॥ १७ - २४ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'कपिला-पूजन आदिको विधिका वर्णन' नामक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७७ ॥

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