अग्नि पुराण - उन्यासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 79 Chapter !

अग्नि पुराण - उन्यासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 79 Chapter !

अग्नि पुराण ७९ अध्याय पवित्रारोपण की विधि का वर्णन ! वित्रारोहणविधिः !
अग्नि पुराण - उन्यासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 79 Chapter !

अग्नि पुराण - उन्यासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 79 Chapter !

ईश्वर उवाच
अथ प्रातः समुत्थाय कृतस्नानः समाहितः ।
कृतसन्ध्यार्चनो मन्त्री प्रविश्य मखमण्डपं ॥००१॥

समादाय पवित्राणि अविसर्जितदैवतः ।
ऐशान्यां भाजने शुद्धे स्थापयेत् कृतमण्डले ॥००२॥

ततो विसर्ज्य देवेशं निर्माल्यमपनीय च ।
पूर्ववद् भूतले शुद्धेकृत्वाह्निकमथ द्वयं ॥००३॥

आदित्यद्वारदिक्पालकुम्भेशानौ शिवे ऽनले ।
नैमित्तिकीं सविस्तरां कुर्यात् पूजां विशेषतः ॥००४॥

मन्त्राणां तर्पणं प्रायश्चित्तहोमं शरात्मना ।
अष्टोत्तरशतं कृत्वा दद्यात् पूर्णाहुतिं शनैः ॥००५॥

पवित्रं भानवे दत्वा समाचम्य ददीत च ।
द्वारमालादिदिक्पालकुम्भवर्धनिकादिषु ॥००६॥

सन्निधाने ततः शम्भोरुपविश्य निजासने ।
ॐ कालात्मना त्वया देव यद्दिष्टं मामके विधौ ।
कृतं क्लिष्टं समुत्सृष्टं कृतं गुप्तञ्च यत् कृतं ॥००८॥

तदस्तु क्लिष्टमक्लिष्टं कृतं क्लिष्टमसंस्कृतं ।
सर्वात्मनामुना शम्भो पवित्रेण त्वदिच्छया ॥००९॥

ॐ पूरयमखव्रतं नियमेश्वराय स्वाहा ।
आत्मतत्त्वे प्रकृत्यन्ते पालिते पद्मयोनिना ॥०१०॥

मूलं लयान्तमुच्चार्य पवित्रेणार्चयेच्छिवं ।
विद्यातत्त्वे च विद्यान्ते विष्णुकारणपालिते ॥०११॥

ईश्वरान्तं समुच्चार्य पवित्रमधिरोपयेत् ।
शिवान्ते शिवतत्त्वे च रुद्रकारणपालिते ॥०१२॥

शिवान्तं मन्त्रमुच्चार्य तस्मै देयं पवित्रकं ।
सर्वकारणपालेषु शिवमुच्चार्य सुव्रतः ॥०१३॥

मूलं लयान्तमुच्चार्य दद्याद्गङ्गावतारकं।
आत्मविद्याशिवैः प्रोक्तं मुमुक्षूणां पवित्रकं ॥०१४॥

विनिर्दिष्टं बुभुक्षूणां शिवतत्त्वात्मभिः क्रमात् ।
स्वाहान्तं वा नमो ऽन्तं वा मन्त्रमेषामुदीरयेत् ॥०१५॥

ॐ हां आत्मतत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा
ॐ हां विद्यातत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा
ॐ हौं शिवतत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा
ॐ हौं सर्वतत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा
नत्वा गङ्गावतारन्तु प्रार्थयेत्तं कृताञ्जलिः ।
त्वङ्गतिः सर्वभूतानां संस्थितिस्त्वञ्चराचरे ॥०१६॥

अन्तश्चारेण भूतानां द्रष्टा त्वं परमेश्वर ।
कर्मणा मनसा वाचा त्वत्तो नान्या गतिर्मम ॥०१७॥

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनञ्च यत् कृतं ।
जपहोमार्चनैर् हीनं कृतं नित्यं मया तव ॥०१८॥

अकृतं वाक्यहीनं च तत् पूरय महेश्वरं ।
सुपूतस्त्वं परेशान3 पवित्रं पापनाशनं ॥०१९॥

त्वया पवित्रितं सर्वं जगत् स्थावरजङ्गमं ।
खण्डितं यन्मया देव व्रतं वैकल्पयोगतः ॥०२०॥

एकीभवतु तत् सर्वं तवाज्ञासूत्रगुम्फितं ।
जपं निवेद्य देवस्य भक्त्या स्तोत्रं विधाय च ॥०२१॥

नत्वा तु गुरुणादिष्टं गृह्णीयान्नियमन्नरः ।
चतुर्मासं त्रिमासं वा त्र्यहमेकाहमेव च ॥०२२॥

प्रणम्य क्षमयित्वेशं गत्वा कुण्डान्तिकं व्रती ।
पावकस्थे शिवे ऽप्येवं पवित्राणां चतुष्टयं ॥०२३॥

समारोप्य समभ्यर्च्य पुष्पधूपाक्षतादिभिः ।
अन्तर्बलिं पवित्रञ्च रुद्रादिभ्यो निवेदयेत् ॥०२४॥

प्रविश्यान्तः शिवं स्तुत्वा सप्रणामं क्षमापयेत् ।
प्रायश्चित्तकृतं होमं कृत्वा हुत्वा च पायसं ॥०२५॥

शनैः पूर्णाहुतिं दत्वा वह्निस्थं विसृजेच्छिवं ।
होमं व्याहृतिभिः कृत्वा रुन्ध्यान्निष्ठुरयानलं ॥०२६॥

अग्न्यादिभ्यस्ततो दद्यादाहुतीनां चतुष्टयं ।
दिक्पतिभ्यस्ततो दद्यात्1 सपवित्रं वहिर्बलिं ॥०२७॥

सिद्धान्तपुस्तके दद्यात् सप्रमाणं पवित्रकं ।
ॐ हां भूः स्वाहा । ॐ हां भुवः स्वाहा । ॐ हां
स्वः स्वाहा । ॐ हां भूर्भुवः स्वः स्वाहा
होमं व्याहृतिभिः कृत्वा दत्वा।अहुतिचतुष्टयं ॥०२८॥

ॐ हां अग्नये स्वाहा । ॐ हां सोमाय स्वाहा । ॐ हां
अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा । ॐ हां अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा
गुरुं शिवमिवाभ्यर्च्य वस्त्रभूषादिविस्तरैः ।
समग्रं सफलं तस्य क्रियाकाण्डादि वार्षिकं ॥०२९॥

यस्य तुष्टो गुरुः सम्यगित्याह परमेश्वरः ।
इत्थं गुरोः समारोप्य हृदालम्बिपवित्रकं ॥०३०॥

द्विजातीन् भोजयित्वा तु भक्त्या वस्त्रादिकं ददेत् ।
दानेनानेन देवेश प्रीयतां मे सदा शिवः ॥०३१॥

भक्त्या स्नानादिकं प्रातः कृत्वा शम्भोः समाहरेत् ।
पवित्राण्यष्टपुष्पैस्तं पूजयित्वा विसर्जयेत् ॥०३२॥

नित्यं नैमित्तिकं कृत्वा विस्तरेण यथा पुरा ।
पवित्राणि समारोप्य प्रणम्याग्नौ शिवं यजेत् ॥०३३॥

प्रायश्चित्तं ततो ऽस्त्रेण हुत्वा पूर्णाहुतिं यजेत् ।
भुक्तिकामः शिवायाथ कुर्यात् कर्मसमर्पणं ॥०३४॥

त्वत्प्रसादेन कर्मेदं मास्तु फलसाधकं ।
मुक्तिकामस्तु कर्मेदं मास्तु मे नाथ बन्धकं ॥०३५॥

वह्निस्थं नाडीयोगेन शिवं संयोजयेछिवे ।
हृदि न्यस्याग्निसङ्घातं पावकं च विसर्जयेत् ॥०३६॥

समाचम्य प्रविश्यान्तः कुम्भानुगतसंवरान् ।
शिवे संयोज्य साक्षेपं क्षमस्वेति विसर्जयेत् ॥०३७॥

विसृज्य लोकपालादीनादायेशात् पवित्रकं ।
सति चण्डेश्वरे पूजां कृत्वा दत्वा पवित्रकं ॥०३८॥

तन्निर्माल्यादिकं तस्मै सपवित्रं समर्पयेत् ।
अथवा स्थण्डिले चण्डं विधिना पूर्ववद्यजेत् ॥०३९॥

यत् किञ्चिद्वार्षिकं कर्म कृतं न्यूनाधिकं मया ।
तदस्तु परिपूर्णं मे चण्ड नाथ तवाज्ञया ॥०४०॥

इति विज्ञाप्य देवेशं नत्वा स्तुत्वा विसर्जयेत् ।
त्यक्तनिर्माल्यकः शुद्धः स्नापयित्वा शिवं यजेत् ।०४१।

पञ्चयोजनसंस्थो ऽपि पवित्रं गुरुसन्निधौ ॥०४१॥
इत्य् आदिमहापुराणे आग्नेये पवित्रारोहणं नाम एकोनाशीतितमो ऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - उन्यासीवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 79 Chapter!-In Hindi

महादेवजी कहते हैं- स्कन्द ! तदनन्तर प्रातःकाल उठकर स्नान करके एकाग्रचित्त हो संध्या-पूजनका नियम पूर्ण करके मन्त्र-साधक यज्ञमण्डपमें प्रवेश करे और जिनका विसर्जन नहीं किया गया है, ऐसे इष्टदेव भगवान् शिवसे पूर्वोक्त पवित्रकोंको लेकर ईशानकोणमें बने हुए मण्डलके भीतर किसी शुद्धपात्रमें रखें। तत्पश्चात् देवेश्वर शिवका विसर्जन करके, उनपर चढ़ी हुई निर्माल्य-सामग्रीको हटाकर, पूर्ववत् शुद्ध भूमिपर दो बार आह्निक कर्म करे। फिर सूर्य, द्वारपाल, दिक्पाल, कलश तथा भगवान् ईशान (शिव) का शिवाग्निमें विशेष विस्तारपूर्वक नैमित्तिकी पूजा करे। फिर मन्त्र-तर्पण और अस्त्र-मन्त्रद्वारा एक सौ आठ बार प्रायश्चित्त होम करके धीरेसे मन्त्र बोलकर पूर्णाहुति कर दे ॥ १-५॥
इसके बाद सूर्यदेवको पवित्रक देकर आचमन करे। फिर द्वारपाल आदिको, दिक्पालोंको, कलशको और वर्धनी आदिपर भी पवित्रक अर्पण करे। तदनन्तर भगवान् शिवके समीप अपने आसनपर बैठकर आत्मा, गण, गुरु तथा अग्निको पवित्रक अर्पित करे। उस समय भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करे- 'देव! आप कालस्वरूप हैं। आपने मेरे कार्यके विषयमें जैसी आज्ञा दी थी, उसका ठीक-ठीक पालन न करके मैंने जो विहित कर्मको क्लेशयुक्त (त्रुटियोंसे पूर्ण) कर दिया है अथवा आवश्यक विधिको छोड़ दिया है या प्रकटको गुप्त कर दिया है, वह मेरा किया हुआ क्लिष्ट और संस्कारशून्य कर्म इस पवित्रारोपणकी विधिसे सर्वथा अक्लिष्ट (परिपूर्ण) हो जाय। शम्भो ! आप अपनी ही इच्छासे मेरे इस पवित्रकद्वारा सम्पूर्ण रूपसे प्रसन्न होकर मेरे नियमको पूर्ण   कीजिये। 'ॐ पूरय पूरय मखव्रतं नियमेश्वराय स्वाहा' - इस मन्त्रका उच्चारण करे ॥६-९॥ '
ॐ पद्मयोनिपालितात्मतत्त्वेश्वराय प्रकृतिलयाय ॐ नमः शिवाय।' - इस मन्त्रका उच्चारण करके पवित्रकद्वारा भगवान् शिवकी पूजा करे। 'विष्णुकारणपालितविद्यातत्त्वेश्वराय ॐ नमः शिवाय।' - इस मन्त्रका उच्चारण करके पवित्रक चढ़ावे। 'रुद्रकारणपालितशिवतत्त्वेश्वराय शिवाय ॐ नमः शिवाय।' इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान् शिवको पवित्रक निवेदन करे। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले स्कन्द ! 'सर्वकारण- पालाय शिवाय लयाय ॐ नमः शिवाय।' - इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान् शिवको 'गङ्गावतारक' नामक सूत्र समर्पित करे ॥ १0-१३॥
मुमुक्षु पुरुषोंके लिये आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्वके क्रमसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक पवित्रक अर्पित करनेका विधान है तथा भोगाभिलाषी पुरुष क्रमशः शिवतत्त्व, विद्यातंत्त्व और आत्मतत्त्वके अधिपति शिवको मन्त्रोच्चारणपूर्वक पवित्रक अर्पित करे, उसके लिये ऐसा ही विधान है। मुमुक्षु पुरुष स्वाहान्त मन्त्रका उच्चारण करे और भोगाभिलाषी पुरुष नमोऽन्त मन्त्रका। 'स्वाहान्त' मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है-'ॐ हां आत्मतत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।' 'ॐ हां विद्यातत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।' 'ॐ हां शिवतत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।' 'ॐ हां सर्वतत्त्वाधिपतये शिवाय स्वाहा।' ('स्वाहा' की जगह 'नमः' पद रख देनेसे ये ही मन्त्र भोगाभिलाषियोंके उपयोगमें आनेवाले हो जाते हैं; परंतु इनका क्रम ऊपर बताये अनुसार ही होना चाहिये। गङ्गावतारक अर्पण करनेके पश्चात् हाथ जोड़कर भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करे- 'परमेश्वर ! आप ही समस्त प्राणियोंकी गति हैं। आप ही चराचर जगत्की स्थितिके हेतुभूत (अथवा लयके आश्रय) हैं। आप सम्पूर्ण भूतोंके भीतर विचरते हुए उनके साक्षीरूपसे अवस्थित हैं। मन, वाणी और क्रियाद्वारा आपके सिवा दूसरी कोई मेरी गति नहीं है। महेश्वर! मैंने प्रतिदिन आपके पूजनमें जो मन्त्रहीन, क्रियाहीन, द्रव्यहीन तथा जप, होम और अर्चनसे हीन कर्म किया है, जो आवश्यक कर्म नहीं किया है तथा जो शुद्ध वाक्यसे रहित कर्म किया है, वह सब आप पूर्ण करें। परमेश्वर! आप परम पवित्र हैं। आपको अर्पित किया हुआ यह पवित्रक समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। आपने सर्वत्र व्याप्त होकर इस समस्त चराचर जगत्को पवित्र कर रखा है। देव! मैंने व्याकुलताके कारण अथवा अङ्गवैकल्य-दोषके कारण जिस व्रतको खण्डित कर दिया है, वह सब आपकी आज्ञारूप सूत्रमें गुँथकर एक - अखण्ड हो जाय ॥ १५-२0॥ 
तत्पश्चात् जप निवेदन करके, उपासक भक्तिपूर्वक भगवान्की स्तुति करे और उन्हें नमस्कार करके, गुरुकी आज्ञाके अनुसार चार मास, तीन मास, तीन दिन अथवा एक दिनके लिये ही नियम ग्रहण करे। भगवान् शिवको प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा माँगकर व्रती पुरुष कुण्डके समीप जाय और अग्निमें विराजमान भगवान् शिवके लिये भी चार पवित्रक अर्पित करके पुष्प, धूप और अक्षत आदिसे उनकी पूजा करे।  इसके बाद रुद्र आदिको अन्तर्बलि एवं पवित्रक निवेदन करे ॥ २१-२४ ॥
तत्पश्चात् पूजा-मण्डपमें प्रवेश करके भगवान् शिवका स्तवन करते हुए प्रणामपूर्वक क्षमा प्रार्थना करे। प्रायश्चित्त-होम करके खीरकी आहुति दे। मन्दस्वरमें मन्त्र बोलकर पूर्णाहुति करके अग्निमें विराजमान शिवका विसर्जन करे। फिर व्याहृति-होम करके, निष्ठुराद्वारा अग्निको निरुद्ध करे और अग्नि आदिको निम्नोक्त मन्त्रोंसे चार आहुति दे। तत्पश्चात् दिक्पालोंको पवित्र एवं बाह्य बलि अर्पित करे। इसके बाद सिद्धान्त- ग्रन्थपर उसके बराबरका पवित्रक अर्पित करे। पूर्वोक्त व्याहृति-होमके मन्त्र इस प्रकार हैं- 'ॐ हां भूः स्वाहा।' 'ॐ हां भुवः स्वाहा।' 'ॐ हां स्वः स्वाहा।' 'ॐ हां भूर्भुवः स्वः स्वाहा।' ॥ २५ - २७॥ 
इस प्रकार व्याहृतियोंद्वारा होम करके अग्नि आदिके लिये चार आहुतियाँ देकर दूसरा कार्य करे। उन चार आहुतियोंके मन्त्र इस प्रकार हैं- 'ॐ हां अग्नये स्वाहा। 'ॐ हां सोमाय स्वाहा।' 'ॐ हां अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा। 'ॐ हां अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा।' फिर गुरुकी शिवके समान वस्त्राभूषण आदि विस्तृत सामग्रीसे पूजा करे। जिसके ऊपर गुरुदेव पूर्णरूपसे संतुष्ट होते हैं, उस साधकका सारा वार्षिक कर्मकाण्ड आदि सफल हो जाता है-ऐसा परमेश्वरका कथन है। इस प्रकार गुरुका पूजन करके उन्हें हृदयतक लटकता हुआ पवित्रक धारण करावे और ब्राह्मण आदिको भोजन कराकर भक्तिपूर्वक उन्हें वस्त्र आदि दे। उस समय यह प्रार्थना करे कि 'देवेश्वर भगवान् सदाशिव इस दानसे मुझपर 'प्रसन्न हों।' फिर प्रातःकाल भक्तिपूर्वक स्नान आदि करके भगवान् शंकरके श्रीविग्रहसे पवित्रकोंको समेट ले और आठ फूलोंसे उनकी पूजा करके उनका विसर्जन कर दे। फिर पहलेकी तरह विस्तारपूर्वक नित्य-नैमित्तिक पूजन करके पवित्रक चढ़ाकर प्रणाम करनेके पश्चात् अग्निमें शिवका पूजन करे ॥ २८-३३ ॥
तदनन्तर अस्त्र-मन्त्रसे प्रायश्चित्त होम करके पूर्णाहुति दे। भोग-सामग्रीकी इच्छावाले पुरुषको चाहिये कि वह भगवान् शिवको अपना सारा कर्म समर्पित करे और कहे- 'प्रभो! आपकी कृपासे मेरा यह कर्म मनोवाञ्छित फलका साधक हो।' मोक्षकी कामना रखनेवाला पुरुष भगवान् शिवसे इस प्रकार प्रार्थना करे- 'नाथ! यह कर्म मेरे लिये बन्धनकारक न हो।' इस तरह प्रार्थना करके अग्निमें स्थित शिवको नाडीयोगके द्वारा अन्तरात्मामें स्थित शिवमें संयोजित करे। फिर अणुसमूहका हृदयमें न्यास करके अग्निदेवका विसर्जन कर दे और आचमन करके पूजा- मण्डपके भीतर प्रविष्ट हो, कलशके जलको सब ओर छिड़कते हुए भगवान् शिवसे संयुक्त करके कहे- 'प्रभो ! मेरी त्रुटियोंको क्षमा करो।' इसके बाद विसर्जन कर दे ॥ ३४-३७॥
तदनन्तर लोकपाल आदिका विसर्जन करके भगवान् शिवकी प्रतिमासे पवित्रक लेकर चण्डेश्वरकी प्रतिमामें उनकी भी पूजा करके उन्हें वह पवित्रक अर्पित करे और शिवनिर्माल्य आदि सारी सामग्री पवित्रकके साथ ही उन्हें समर्पित कर दे। अथवा वेदीपर पूर्ववत् विधिपूर्वक चण्डेश्वरकी पूजा करे और उनसे प्रार्थनापूर्वक कहे- 'चण्डनाथ! मैंने जो कुछ वार्षिक कर्म किया है, वह यदि न्यूनता या अधिकताके दोषसे युक्त है, तो आपकी आज्ञासे वह दोष दूर होकर मेरा कर्म साङ्गोपाङ्ग परिपूर्ण हो जाय।' इस प्रकार प्रार्थना करके देवेश्वर चण्डको नमस्कार करे और स्तुतिके पश्चात् उनका विसर्जन कर दे। निर्माल्यका त्याग करके, शुद्ध हो भगवान् शिवको नहलाकर उनका पूजन करे। घरसे पाँच योजन दूर रहनेपर भी गुरुके समीप पवित्रारोहण- कर्मका सम्पादन करना चाहिये ॥ ३८-४९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'पवित्रारोपणकी विधिका वर्णन' नामक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७९ ॥

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