अग्नि पुराण - एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 157 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 157 Chapter !

एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय मरणाशौच तथा पिण्डदान एवं दाह-संस्कारकालिक कर्तव्यका कथन !

अग्नि पुराण - एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 157 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय !

पुष्कर उवाच
प्रेतशुद्धिं प्रवक्ष्यामि सूतिकाशुध्हिमेव च ।
दशाहं शावमाशौचं सपिण्देषु विधीयते ॥१५७.००१

जनने च तथा शुद्धिर्ब्राह्मणानां भृगूत्तम ।
द्वादशाहेन राजन्यः पक्षाद्वैश्योऽथ मासतः ॥१५७.००२

शूद्रोऽनुलोमतो दासे स्वामितुल्यन्त्वशौचकं ।
षट्भिस्त्रिभिरथैकेन क्षत्रविट्शूद्रयोनिषु ॥१५७.००३

ब्राह्मणः शुद्धिमाप्नोति क्षत्रियस्तु तथैव च ।
विट्शूद्रयोनेः शुद्धिः स्यात्क्रमात्परशुरामक ॥१५७.००४

षड्रात्रेण त्रिरात्रेण षड्भिः शूद्रे तथा विशः ।
आदन्तजननात्सद्य आचूडान्नैशिकी श्रुतिः ॥१५७.००५

त्रिरात्रमाव्रतादेशाद्दशरात्रमतः परं ।
ऊनत्रैवार्षिके शूद्रे पञ्चाहाच्छुद्धिरिष्यते ॥१५७.००६

द्वादशाहेने शुद्धिः स्यादतीते वत्सरत्रये ।
गतैः संवत्सरैः षड्भिः शुद्धिर्मासेन कीर्तिता ॥१५७.००७

स्त्रीणामकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता ।
तथा च कृतचुडानां त्र्यहाच्छुद्ध्यन्ति बान्धवाः ॥१५७.००८

विवाहितासु नाशौचं पितृपक्षे विधीयते ।
पितुर्गृहे प्रसूतानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता ॥१५७.००९

सूतिका दशरात्रेण शुद्धिमाप्नोति नान्यथा ।
विवाहिता हि चेत्कन्या म्रियते पितृवेश्मनि ॥१५७.०१०

तस्यास्त्रिरात्राच्छुद्ध्यन्ति बान्धवा नात्र संशयः ।
समानं लब्धशौचन्तु प्रथमेन समापयेत् ॥१५७.०११

असमानं द्वितीयेन धर्मराजवचो यथा ।
देशान्तरस्थः श्रुत्वा तु कुल्याणां मरणोद्भवौ ॥१५७.०१२

यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवशुचिर्भवेत् ।
अतीते दशरात्रे तु त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ॥१५७.०१३

तथा संवत्सरेऽतीते स्नात एव विशुद्ध्यति ।
मातामहे तथातीते आचार्ये च तथा मृते ॥१५७.०१४

रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशोधनं ।
सपिण्डे ब्राह्मणे वर्णाः सर्व एवाविशेषतः ॥१५७.०१५

दशरात्रेण शुद्ध्यन्ति द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्याः पञ्चदशाहेन शूद्रा मासेन भार्गव ॥१५७.०१६

उच्छिष्टसन्निधावेकं तथा पिण्डं निवेदयेत् ।
कीर्तयेच्च तथा तस्य नमगोत्रे समाहितः ॥१५७.०१७

भुक्तवत्सु द्विजेन्द्रेषु पूजितेषु धनेन च ।
विसृष्टाक्षततोयेषु गोत्रनामानुकीर्तनैः ॥१५७.०१८

चतुरङ्गुलविस्तारं तत्खातन्तावदन्तरं ।
वितस्तिदीर्घं कर्तव्यं विकर्षूणां तथा त्रयं ॥१५७.०१९

विकर्षूणां समीपे च ज्वालयेज्ज्वलनत्रयं ।
सोमाय वह्नये राम यमाय च समासतः ॥१५७.०२०

जुहुयादाहुतीः सम्यक्सर्वत्रैव चतुस्त्रयः ।
पिण्डनिर्वपणं कुर्यात्प्राग्वदेव पृथक्पृथक् ॥१५७.०२१

अन्नेन दध्ना मधुना तथा मांसेन पूरयेत् ।
मध्ये चेदधिमासः स्यात्कुर्यादभ्यधिकन्तु तत् ॥१५७.०२२

अथवा द्वादशाहेन सर्वमेतत्समापयेत् ।
संवत्सरस्य मध्ये च यदि स्यादधिमासकः ॥१५७.०२३

तदा द्वादशके श्राद्धे कार्यं तदधिकं भवेत् ।
संवत्सरे समाप्ते तु श्राद्धं श्राद्धवदाचरेत् ॥१५७.०२४

प्रेताय तत ऊर्धवं च तस्यैव पुरुषत्रये ।
पिण्डान् विनिर्वपेत्तद्वच्चतुरस्तु समाहितः ॥१५७.०२५

सम्पूज्य दत्वा पृथिवी समाना इति चाप्यथ ।
योजयेत्प्रेतपिण्डं तु पिण्डेष्वन्येषु भार्गव ॥१५७.०२६

प्रेतपात्रं च पात्रेषु तथैव विनियोजयेत् ।
पृथक्पृथक्प्रकर्तव्यं कर्मैतत्कर्मपात्रके ॥१५७.०२७

मन्त्रवर्जमिदं कर्म शूद्रस्य तु विधीयते ।
सपिण्डीकरणं स्त्रीणां कार्यमेवं तदा भवेत् ॥१५७.०२८

श्राद्धं कुर्याच्च प्रत्यब्दं प्रेते कुम्भान्नमब्दकं ।
गङ्गायाः सिकता धारा यथा वर्षति वासवे ॥१५७.०२९

शक्या गणयितुं लोके नत्वतीताः पितामहाः ।
काले सततगे स्थैर्यं नास्ति तस्मात्क्रियां चरेत् ॥१५७.०३०

देवत्वे यातनास्थाने प्रेतः श्राद्धं कृतं लभेत् ।
नोपकुर्यान्नरः शोचन् प्रेतस्यात्मन एव वा ॥१५७.०३१

भृग्वग्निपाशकाम्भोभिर्मृतानामात्मघातिनां ।
पतितानां च नाशौचं विद्युच्छस्त्रहताश्च ये ॥१५७.०३२

यतिब्रतिब्रह्मचारिनृपकारुकदीक्षिताः ।
राजाज्ञाकारिणो ये च स्नायाद्वै प्रेतगाम्यपि ॥१५७.०३३

मैथुने कटधूमे च सद्यः स्नानं विधीयते ।
द्विजं न निर्हरेत् प्रेतं शूद्रेण तु कथञ्चन ॥१५७.०३४

न च शूद्रं द्विजेनापि तयोर्दोषो हि जायते ।
अनाथविप्रप्रेतस्य वहनात्स्वरगलोकभाक् ॥१५७.०३५

सङ्ग्रामे जयमाप्नोति प्रेतेऽनाथे च काष्ठदः ।
सङ्कल्प्य बान्धवं प्रेतमपसव्येन तां चितिं ॥१५७.०३६

परिक्रम्य ततः स्नानं कुर्युः सर्वे सवाससः ।
प्रेताय च तथा दद्युस्त्रींस्त्रींश्चैवोदकाञ्जलीन् ॥१५७.०३७

द्वार्यश्मनि पदं दत्वा प्रविशेयुस्तथा गृहं ।
अक्षतान्निक्षिपेद्वह्नौ निम्बपत्रं विदश्य च ॥१५७.०३८

पृथक्शयीरन् भूमौ च क्रीतलब्धाशनो भवेत् ।
एकः पिण्दो दशाहे तु श्मश्रुकर्मकरः शुचिः ॥१५७.०३९

सिद्धार्थकैस्तिलैर्विद्वान्मज्जेद्वासोपरं दधत् ।
अजातदन्ते तनये शिशौ गर्भस्रुते तथा ॥१५७.०४०

कार्यो नैवाग्निसंस्कारो नैव चास्योदकक्रिया ।
चतुर्थे च दिनेकार्यस्तथास्थ्नां चैव सञ्चयः ॥१५७.०४१

अस्थिसञ्चयनादूर्ध्वमङ्गस्पर्शो विधीयते ॥४२॥
इत्याग्नेये महापुराणे शावाशौचं नाम सप्तपञ्चाशदाधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 157 Chapter!-In Hindi

पुष्कर कहते हैं- अब मैं 'प्रेतशुद्धि' तथा 'सूतिकाशुद्धि' का वर्णन करूँगा। सपिण्डोंमें अर्थात् मूल पुरुषकी सातवीं पीढ़ीतककी संतानों में मरणाशौच दस दिनतक रहता है। जननाशौच भी इतने ही दिनतक रहता है। परशुरामजी! यह ब्राह्मणोंके लिये अशौचकी बात बतलायी गयी। क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पंद्रह दिनोंमें तथा शूद्र एक मासमें शुद्ध होता है। यहाँ उस शूद्रके लिये कहा गया है, जो अनुलोमज हो अर्थात् जिसका जन्म उच्च जातीय अथवा सजातीय पितासे हुआ हो। स्वामीको अपने घरमें जितने दिनका अशौच लगता है, सेवकको भी उतने ही दिनोंका लगता है। क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रोंका भी जननाशौच दस दिनका ही होता है॥ १-३॥
परशुरामजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इसी क्रमसे शुद्ध होते हैं। (किसी-किसीके मतमें) वैश्य तथा शूद्रके जननाशौचकी निवृत्ति पंद्रह दिनोंमें होती है। यदि बालक दाँत निकलनेके पहले ही मर जाय तो उसके जननाशौचकी सद्यः शुद्धि मानी गयी है। दाँत निकलनेके बाद चूडाकरणसे पहलेतककी मृत्युमें एक रातका अशौच होता है, यज्ञोपवीतके पहलेतक तीन रातका तथा उसके बाद दस रातका अशौच बताया गया है। तीन वर्षसे कमका शूद्र बालक यदि मृत्युको प्राप्त हो तो पाँच दिनोंके बाद उसके अशौचकी निवृत्ति होती है। तीन वर्षके बाद मृत्यु होनेपर बारह दिन बाद शुद्धि होती है तथा छः वर्ष व्यतीत होनेके पश्चात् उसके मरणका अशौच एक मासके बाद निवृत्त होता है। कन्याओंमें जिनका मुण्डन नहीं हुआ है, उनके मरणाशौचकी शुद्धि एक रातमें होनेवाली मानी गयी है और जिनका मुण्डन हो चुका है, उनकी मृत्यु होनेपर उनके बन्धु-बान्धव तीन दिन बाद शुद्ध होते हैं ॥ ४-८ ॥
जिन कन्याओंका विवाह हो चुका है, उनकी मृत्युका अशौच पितृकुलको नहीं प्राप्त होता। जो स्त्रियाँ पिताके घरमें संतानको जन्म देती हैं, उनके उस जननाशौचकी शुद्धि एक रातमें होती है। किंतु स्वयं सूतिका दस रातमें ही शुद्ध होती है, इसके पहले नहीं। यदि विवाहित कन्या पिताके घरमें मृत्युको प्राप्त हो जाय तो उसके बन्धु- बान्धव निश्चय ही तीन रातमें शुद्ध हो जाते हैं। समान अशौचको पहले निवृत्त करना चाहिये और असमान अशौचको बादमें। ऐसा ही धर्मराजका वचन है। परदेशमें रहनेवाला पुरुष यदि अपने कुलमें किसीके जन्म या मरण होनेका समाचार सुने तो दस रातमें जितना समय शेष हो, उतने ही समयतक उसे अशौच लगता है। यदि दस दिन व्यतीत होनेपर उसे उक्त समाचारका ज्ञान हो, तो वह तीन राततक अशौचयुक्त रहता है तथा यदि एक वर्ष व्यतीत होनेके बाद उपर्युक्त बातोंकी जानकारी हो तो केवल स्नानमात्रसे शुद्धि हो जाती है। नाना और आचार्यके मरनेपर भी तीन राततक अशौच रहता है॥ ९-१४॥
परशुरामजी ! यदि स्त्रीका गर्भ गिर जाय तो जितने मासका गर्भ गिरा हो, उतनी रातें बीतनेपर उस स्त्रीकी शुद्धि होती है। सपिण्ड ब्राह्मण कुलमें मरणाशौच होनेपर उस कुलके सभी लोग सामान्यरूपसे दस दिनमें शुद्ध हो जाते हैं। क्षत्रिय बारह दिनमें, वैश्य पंद्रह दिनमें और शूद्र एक मासमें शुद्ध होते हैं। (प्रेत या पितरोंके श्राद्धमें उन्हें आसन देनेसे लेकर अर्घ्यदानतकके कर्म करके उनके पूजनके पश्चात् जब परिवेषण होता है, तब सपात्रक कर्ममें वहाँ ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। ये ब्राह्मण पितरोंके प्रतिनिधि होते हैं। अपात्रक कर्ममें ब्राह्मणोंका प्रत्यक्ष भोजन नहीं होता तो भी पितर सूक्ष्मरूपसे उस अन्नको ग्रहण करते हैं। उनके भोजनके बाद वह स्थान उच्छिष्ट समझा जाता है;) उस उच्छिष्टके निकट ही वेदी बनाकर, उसका संस्कार करके, उसके ऊपर कुश बिछाकर उन कुशोंपर ही पिण्ड निवेदन करे। उस समय एकाग्रचित्त हो, प्रेत अथवा पितरके नाम-गोत्रका उच्चारण करके ही उनके लिये पिण्ड अर्पित करे ॥ १५-१७ ॥
जब ब्राह्मण लोग भोजन कर लें और धनसे उनका सत्कार या पूजन कर दिया जाय, तब नाम-गोत्रके उच्चारणपूर्वक उनके लिये अक्षत जल छोड़े जायें। तदनन्तर चार अङ्गुल चौड़ा, उतना ही गहरा तथा एक बित्तेका लंबा एक गड्डा खोदा जाय। परशुराम ! वहाँ तीन 'विकर्ष' (सूखे कंडोंके रखनेके स्थान) बनाये जायें और उनके समीप तीन जगह अग्नि प्रज्वलित की जाय। उनमें क्रमशः 'सोमाय स्वाहा', 'वह्नये स्वाहा' तथा 'यमाय स्वाहा' मन्त्र बोलकर सोम, अग्नि तथा यमके लिये संक्षेपसे चार-चार या तीन-तीन आहुतियाँ दे। सभी वेदियोंपर सम्यग् विधिसे आहुति देनी चाहिये। फिर वहाँ पहलेकी ही भाँति पृथक् पृथक् पिण्ड-दान करे ॥ १८-२१ ॥
अन्न, दही, मधु तथा उड़दसे पिण्डकी पूर्ति करनी चाहिये। यदि वर्षके भीतर अधिक मास हो जाय तो उसके लिये एक पिण्ड अधिक देना चाहिये। अथवा बारहों मासके सारे मासिक श्राद्ध द्वादशाहके दिन ही पूरे कर दिये जाय। यदि वर्षके भीतर अधिक मासकी सम्भावना हो तो द्वादशाह श्राद्धके दिन ही उस अधिमासके निमित्त एक पिण्ड अधिक दे दिया जाय। संवत्सर पूर्ण हो जानेपर श्राद्धको सामान्य श्राद्धकी ही भाँति सम्पादित करे ॥ २२-२४ ॥
सपिण्डीकरण श्राद्धमें प्रेतको अलग पिण्ड देकर बादमें उसीकी तीन पीढ़ियोंके पितरोंको तीन पिण्ड प्रदान करने चाहिये। इस तरह इन चारों पिण्डोंको बड़ी एकाग्रताके साथ अर्पित करना चाहिये। भृगुनन्दन ! पिण्डोंका पूजन और दान करके 'पृथिवी ते पात्रम्०', 'ये समानाः ०' इत्यादि मन्त्रोंके पाठपूर्वक यथोचित कार्य सम्पादन करते हुए प्रेत-पिण्डके तीन टुकड़ोंको क्रमशः पिता, पितामह और प्रपितामहके पिण्डोंमें जोड़ दे। इससे पहले इसी तरह प्रेतके अर्घ्यपात्रका पिता आदिके अर्घ्यपात्रोंमें मेलन करना चाहिये। पिण्डमेलन और पात्रमेलनका यह कर्म पृथक्- पृथक् करना उचित है। शूद्रका यह श्राद्धकर्म मन्त्ररहित करनेका विधान है। स्त्रियोंका सपिण्डीकरण श्राद्ध भी उस समय इसी प्रकार (पूर्वोक्त रीतिसे) करना चाहिये ॥ २५-२८॥
पितरोंका श्राद्ध प्रतिवर्ष करना चाहिये; किंतु प्रेतके लिये सान्नोदक कुम्भदान एक वर्षतक करे। वर्षाकालमें गङ्गाजीकी सिकताधाराकी सम्भव है गणना हो जाय, किंतु अतीत पितरोंकी गणना कदापि सम्भव नहीं है। काल निरन्तर गतिशील है, उसमें कभी स्थिरता नहीं आती; इसलिये कर्म अवश्य करे। प्रेत पुरुष देवत्वको प्राप्त हुआ हो या यातनास्थान (नरक) में पड़ा हो, वह किये गये श्राद्धको वहाँ अवश्य पाता है। इसलिये मनुष्य प्रेतके लिये अथवा अपने लिये शोक न करते हुए ही उपकार (श्राद्धादि कर्म) करे ॥ २९-३१॥
जो लोग पर्वतसे कूदकर, आगमें जलकर, गलेमें फाँसी लगाकर या पानीमें डूबकर मरते हैं, ऐसे आत्मघाती और पतित मनुष्योंके मरनेका अशौच नहीं लगता है। जो बिजली गिरनेसे या युद्धमें अस्त्रोंके आघातसे मरते हैं, उनके लिये भी यही बात है। यति (संन्यासी), व्रती, ब्रह्मचारी, राजा, कारीगर और यज्ञदीक्षित पुरुष तथा जो राजाकी आज्ञाका पालन करनेवाले हैं; ऐसे लोगोंको भी अशौच नहीं प्राप्त होता है। ये यदि प्रेतकी शवयात्रामें गये हों तो भी स्नानमात्र कर लें। इतनेसे ही उनकी शुद्धि हो जाती है। मैथुन करनेपर और जलते हुए शवका धुआँ लग जानेपर तत्काल स्नानका विधान है। मरे हुए ब्राह्मणके शवको शूद्रद्वारा किसी तरह भी न उठवाया जाय। इसी तरह शूद्रके शवको भी ब्राह्मणद्वारा कदापि न उठवाये; क्योंकि वैसा करनेपर दोनोंको ही दोष लगता है। अनाथ ब्राह्मणके शवको ढोकर अन्त्येष्टिकर्मके लिये ले जानेपर मनुष्य स्वर्गलोकका भागी होता है॥ ३२-३५ ॥
अनाथ प्रेतका दाह करनेके लिये काष्ठ या लकड़ी देनेवाला मानव संग्राममें विजय पाता है। अपने प्रेत-बन्धुको चितापर स्थापित एवं दग्ध कर उस चिताकी अपसव्य परिक्रमा करके समस्त भाई- बन्धु सवस्त्र स्नान करें और प्रेतके निमित्त तीन-तीन बार जलाञ्जलि दें। घरके दरवाजेपर जाकर पत्थरपर पैर रखकर (हाथ-पैर धो लें), अग्निमें अक्षत छोड़ें तथा नीमकी पत्ती चबाकर घरके भीतर प्रवेश करें। वहाँ उस दिन सबसे अलग पृथ्वीपर चटाई आदि बिछाकर सोवें। जिस घरका शव जलाया गया हो, उस घरके लोग उस दिन खरीदकर मँगाया हुआ या स्वतः प्राप्त हुआ आहार ग्रहण करें। दस दिनोंतक प्रतिदिन एक-एकके हिसाबसे पिण्डदान करे। दसवें दिन एक पिण्ड देकर बाल बनवाकर मनुष्य शुद्ध होता है। दसवें दिन विद्वान् पुरुष सरसों और तिलका अनुलेप लगाकर जलाशयमें गोता लगाये और स्नानके पश्चात् दूसरा नूतन वस्त्र- धारण करे। जिस बालकके दाँत न निकले हों, उसके मरनेपर या गर्भस्त्राव होनेपर उसके लिये न तो दाह-संस्कार करे और न जलाञ्जलि दे। शवदाहके पश्चात् चौथे दिन अस्थिसंचय करे। अस्थिसंचयके पश्चात् अङ्गस्पर्शका विधान है॥ ३६-४२ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें मरणाशौचका वर्णन' नामक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५७ ॥

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