अग्नि पुराण दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 238 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 238 Chapter !

अग्नि पुराण 238 अध्याय - रामोक्तनीति

अग्निरुवाच

नीतिस्ते पुष्करोक्ता तु रामोक्ता लक्ष्मणाय या ।
जयाय तां प्रवक्ष्यामि श्रृणु धर्म्मादिवर्द्धनीं ।। १ ।।

राम उवाच

न्यायेनार्ज्जनमर्थस्य वर्द्धनं रक्षणं चरेत् ।
सत्पात्रप्रतिपत्तिश्च राजवृत्तं चतुर्विधं ।। २ ।।

नयस्य विनयो मूलं विनयः शास्त्रनिश्चयात् ।
विनयो हीन्द्रियजयस्तैर्युक्तः पालयेन्महीं ।। ३ ।।

शास्त्रं प्रज्ञा धृतिर्द्दाक्ष्यं प्रागल्भ्यं धारयिष्णुता ।
उत्साहो वाग्‌मितौदार्य्यमापत्‌कालसहिष्णुता ।। ४ ।।

ग्रभावः शुचिता मैत्री त्यागः सत्यं कृतज्ञता ।
कुलं शीलं दमश्चेति गुणाः सम्पत्तिहेतवः ।। ५ ।।

प्रकीर्णविषयारण्ये धावन्तं विप्रमाथिनं ।
ज्ञानाङ्कुशेन कुर्व्वीत वश्यमिन्द्रियदन्तिनं ।। ६ ।।

कामः क्रोधस्तथा लोभो हर्षो मानो मदस्तथा ।
षड्‌वर्गमुतसृजेदेनमस्मिंस्त्यक्ते सुखी नृपः ।। ७ ।।

आन्वीक्षिकीं त्रयीं वार्त्तां दण्डनीतिं च पार्थिवः ।
तद्विद्यैस्तत्‌क्रियोपैतैश्चिन्तयेद्विनयान्वितः ।। ८ ।।

आन्वीक्षिक्यार्थविज्ञानं धर्म्माधर्मौ त्रयीस्थितौ ।
अर्थानर्थौ तु वार्त्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ ।। ९ ।।

अहिंसा सूनृता वाणी सत्यं शौचं दया क्षमा ।
वणिनां लिङ्गिनां चैव सामान्यो धर्म्म उच्यते ।। १० ।।

प्रजाः समनुगृह्णीयात् कुर्य्यादाचारसंस्थितिं ।
वाक्‌ सूनृता दया दानं हिनोपगतरक्षणं ।। ११ ।।

इति वृत्तं सतां साधुहितं सत्पुरुषव्रतं ।
आधिव्याधिपरीताय अद्य श्वो वा विनाशिने ।। १२ ।।

को हि राजा शरीराय धर्म्मापेतं समाचरेत् ।
न हि स्वसुखमन्विच्छन् पीडयेत् कृपणं जनं ।। १३ ।।

कृपणः पीड्यमानो हि मन्युना इन्ति पार्थिवं ।
क्रियतेऽभ्यर्हणीयाय स्वजनाय यथाञ्जलिः ।। १४ ।।

ततः साधुतरः कार्यो दुर्जनाय शिवाथिंना ।
प्रियमेवाभिघातव्यं सत्सु नित्यं द्विषत्सु च ।। १५ ।।

देवास्ते प्रियवक्तारः पशवः क्रूरवादिनः ।
शुचिरास्तिक्यपूतात्मा पूजयेद्देवताः सदा ।। १६ ।।

देवतावद् गुरुजनमात्मवच्च सुहृज्जनं ।
प्रणिपातेन हि गुरुं सतोऽमृषानुचेष्टितैः ।। १७ ।।

कुर्व्वीताभिमुखान् भृत्यैर्द्दवान् सुकृतकर्म्मणा ।
मद्‌भावेन हरेन्मित्रं सम्भ्रमेण च बान्धवान् ।। १८ ।।

स्त्रीभृत्यान् प्रेम्दानाभ्यां दाक्षिण्येनेतरं जनं ।
अनिन्दा परकृत्येषु स्वधर्म्मपरिपालनं ।। १९ ।।

कृपणेषु दयालुत्वं सर्वत्र मधुरा गिरः ।
प्राणैरप्यपकारित्वं मित्रायाव्यभिचारिणे ।। २० ।।

गृहागते परिष्वङ्गः सक्त्या दानं सहिष्णुता ।
स्वसमृद्धिष्वनुत्सेकः पररवृद्धिष्वमत्सरः ।। २१ ।।

अपरोपतापि वचनं मौनव्रतचरिष्णुता ।
बन्धुभिर्बद्धसंयोगः स्वजने चतुरश्रता ।। २२ ।।

उचितानुविधायित्वमिति वृत्तं महात्मनां ।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रामोक्तनीतिर्नाम अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 238 Chapter!-In Hindi

दो सौ अड़तीसवाँ - अध्याय श्री राम के द्वारा उपदिष्ट राजनीति

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! मैंने तुमसे पुष्करकी कही हुई नीतिका वर्णन किया है। अब तुम लक्ष्मणके प्रति श्री राम चन्द्रद्वारा कही गयी विजयदायिनी नीतिका निरूपण सुनो। यह धर्म आदिको बढ़ानेवाली है॥१॥ 

श्रीराम कहते हैं- लक्ष्मण। न्याय (धान्यका छठा भाग लेने आदि) के द्वारा धनका अर्जन करना, अर्जित किये हुए धनको व्यापार आदि द्वारा बढ़ाना, उसकी स्वजनों और परजनोंसे रक्षा करना तथा उसका सत्पात्रमें नियोजन करना (यज्ञादिमें तथा प्रजापालनमें लगाना एवं गुणवान् पुत्रको सौंपना) ये राजाके चार प्रकारके व्यवहार बताये गये हैं। (राजा नय और पराक्रमसे सम्पन्न एवं भलीभाँति उद्योगशील होकर स्वमण्डल एवं परमण्डलकी लक्ष्मीका चिन्तन करे।) नयका मूल है विनय और विनयकी प्राप्ति होती है, शास्त्रके निश्वयसे। इन्द्रिय-जयका ही नाम विनय है जो उस विनयसे युक्त होता है, वही शास्त्रोंको प्राप्त करता है। (जो शास्त्रमें निष्ठा रखता है, उसीके हृदयमें शास्त्रके अर्थ (तत्त्व) स्पष्टतया प्रकाशित होते हैं। ऐसा होनेसे स्वमण्डल और परमण्डलकी 'श्री' प्रसन्न (निष्कण्टकरूपसे प्राप्त) होती है- उसके लिये लक्ष्मी अपना द्वार खोल देती हैं) ॥ २-३॥

शास्त्रज्ञान, आठ' गुणोंसे युक्त बुद्धि, धृति (उद्वेगका अभाव), दक्षता (आलस्यका अभाव), प्रगल्भता (सभामें बोलने या कार्य करनेमें भय अथवा संकोचका न होना), धारणशीलता (जानी- सुनी बातको भूलने न देना), उत्साह (शौर्यादि गुण), प्रवचन शक्ति, दृढ़ता (आपत्तिकालमें क्लेश सहन करनेकी क्षमता), प्रभाव (प्रभु-शक्ति), शुचिता (विविध उपायोंद्वारा परीक्षा लेनेसे सिद्ध हुई आचार-विचारकी शुद्धि), मैत्री (दूसरोंको अपने प्रति आकृष्ट कर लेनेका गुण), त्याग (सत्पात्रको दान देना), सत्य (प्रतिज्ञापालन), कृतज्ञता (उपकारको न भूलना), कुल (कुलीनता), शील (अच्छा स्वभाव) और दम (इन्द्रियनिग्रह तथा क्लेशसहनकी क्षमता) - ये सम्पत्तिके हेतुभूत गुण हैं ॥ ४-५॥

विस्तृत विषयरूपी वनमें दौड़ते हुए तथा निरङ्कुश होनेके कारण विप्रमाथी (विनाशकारी) इन्द्रियरूपी हाथीको ज्ञानमय अङ्कुशसे वशमें करे। काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद- ये 'षड्वर्ग' कहे गये हैं। राजा इनका सर्वथा त्याग कर दे। इन सबका त्याग हो जानेपर वह सुखी होता है ॥ ६-७॥

राजाको चाहिये कि वह विनय-गुणसे सम्पन्न हो आन्वीक्षिकी (आत्मविद्या एवं तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (कृषि, वाणिज्य और पशुपालन) तथा दण्डनीति- इन चार विद्याओंका उनके विद्वानों तथा उन विद्याओंके अनुसार अनुष्ठान करनेवाले कर्मठ पुरुषोंके साथ बैठकर चिन्तन करे (जिससे लोकमें इनका सम्यक् प्रचार और प्रसार हो)। 'आन्वीक्षिकी' से आत्मज्ञान एवं वस्तुके यथार्थ स्वभावका बोध होता है। धर्म और अधर्मका ज्ञान 'वेदत्रयी' पर अवलम्बित है, अर्थ और अनर्थ 'वार्ता'के सम्यक् उपयोगपर निर्भर हैं तथा न्याय और अन्याय 'दण्डनीति 'के समुचित प्रयोग और अप्रयोगपर आधारित हैं॥ ८-९॥

किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्यभाषण करना, बाहर और भीतरसे पवित्र रहना एवं शौचाचारका पालन करना, दीनोंके प्रति दयाभाव रखना तथा क्षमा (निन्दा आदिको सह लेना) ये चारों वर्षों तथा आश्रमोंके सामान्य धर्म कहे गये हैं। राजाको चाहिये कि वह प्रजापर अनुग्रह करे और सदाचारके पालनमें संलग्न रहे। मधुर वाणी, दीनोंपर दया, देश-कालकी अपेक्षासे सत्पात्रको दान, दीनों और शरणागतोंकी रक्षा तथा सत्पुरुषोंका सङ्ग- ये सत्पुरुषोंके आचार हैं। यह आचार प्रजासंग्रहका उपाय है, जो लोकमें प्रशंसित होनेके कारण श्रेष्ठ है तथा भविष्यमें भी अभ्युदयरूप फल देनेवाला होनेके कारण हितकारक है। यह शरीर मानसिक चिन्ताओं तथा रोगोंसे घिरा हुआ है। आज या कल इसका विनाश निश्चित है। ऐसी दशामें इसके लिये कौन राजा धर्मके विपरीत आचरण करेगा ? ॥ १०-१२॥

राजाको चाहिये कि वह अपने लिये सुखकी इच्छा रखकर दीन-दुखी लोगोंको पीड़ा न देः क्योंकि सताया जानेवाला दीन-दुखी मनुष्य दुःखजनित क्रोधके द्वारा अत्याचारी राजाका विनाश कर डालता है। अपने पूजनीय पुरुषको जिस तरह सादर हाथ जोड़ा जाता है, कल्याणकामी राजा दुष्टजनको उससे भी अधिक आदर देते हुए हाथ जोड़े। (तात्पर्य यह है कि दुष्टको सामनीतिसे ही वशमें किया जा सकता है।) साधु सुहदों तथा दुष्ट शत्रुओंके प्रति भी सदा प्रिय वचन ही बोलना चाहिये। प्रियवादी 'देवता' कहे गये हैं और कटुवादी 'पशु' ॥ १३-१५॥

बाहर और भीतरसे शुद्ध रहकर राजा आस्तिकता (ईश्वर तथा परलोकपर विश्वास) द्वारा अन्तःकरणको पवित्र बनाये और सदा देवताओंका पूजन करे। गुरुजनोंका देवताओंके समान ही सम्मान करे तथा सुहृदोंको अपने तुल्य मानकर उनका भलीभाँति सत्कार करे। वह अपने ऐश्वर्यकी रक्षा एवं वृद्धिके लिये गुरुजनोंको प्रतिदिन प्रणामद्वारा अनुकूल बनाये। अनूचान (साङ्गवेदके अध्येता) की-सी चेष्टाओंद्वारा विद्यावृद्ध सत्पुरुषोंका साम्मुख्य प्राप्त करे। सुकृतकर्म (यज्ञादि पुण्यकर्म तथा गन्ध-पुष्पादि-समर्पण) द्वारा देवताओंको अपने अनुकूल करे। सद्भाव (विश्वास) द्वारा मित्रका हृदय जीते, सम्भ्रम (विशेष आदर) से बान्धवों (पिता और माताके कुलोंके बड़े-बूढ़ों) को अनुकूल बनाये। स्त्रीको प्रेमसे तथा भृत्यवर्गको दानसे वशमें करे। इनके अतिरिक्त जो बाहरी लोग हैं, उनके प्रति अनुकूलता दिखाकर उनका हृदय जीते ॥ १६-१८॥

दूसरे लोगोंके कृत्योंकी निन्दा या आलोचना न करना, अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुरूप धर्मका निरन्तर पालन, दीनोंके प्रति दया, सभी लोक व्यवहारोंमें सबके प्रति मीठे वचन बोलना, अपने अनन्य मित्रका प्राण देकर भी उपकार करनेके लिये उद्यत रहना, घरपर आये हुए मित्र या अन्य सज्जनोंको भी हृदयसे लगाना- उनके प्रति अत्यन्त स्नेह एवं आदर प्रकट करना, आवश्यकता हो तो उनके लिये यथाशक्ति धन देना, लोगोंके कटु व्यवहार एवं कठोर वचन को भी सहन करना, अपनी समृद्धिके अवसरोंपर निर्विकार रहना (हर्ष या दर्पके वशीभूत न होना), दूसरोंके अभ्युदयपर मनमें ईर्ष्या या जलन न होना, दूसरोंको ताप देनेवाली बात न बोलना, मौनव्रतका आचरण (अधिक वाचाल न होना), बन्धुजनोंके साथ अटूट सम्बन्ध बनाये रखना, सज्जनोंके प्रति चतुरश्रता (अवक्र- सरलभावसे उनका समाराधन), उनकी हार्दिक सम्मतिके अनुसार कार्य करना ये महात्माओंके आचार हैं ॥ १९-२२॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'रामोक्तनीतिका वर्णन' नामक दो सौ अड़तीसर्वां अध्याय पूरा हुआ ॥ २३८ ॥

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