अग्नि पुराण दो सौ छप्पनवाँ अध्याय ! Agni Purana 256 Chapter !
अग्नि पुराण 256 अध्याय - दायविभागकथनम्
अग्निरुवाच
विभागञ्चेत्पिता कुर्यादिच्छया विभजेत्सुतान् ।
ज्येष्ठं वा श्रेष्ठभागेन सर्वे वा स्युः समांशिनः ॥१
यदि दद्यात्समानंशान् कार्याः पत्न्यः समांशिकाः ।
न दत्तं स्त्रीधनं यासां भर्त्रा वा श्वशुरेन वा ॥२
शक्तस्थानीहमानस्य किञ्चिद्दत्वा पृथक्क्रिया ।
न्यूनाधिकविभक्तानां धर्म्यश्च पितृना कृतः ॥३
विभजेयुः सुताः पित्रोरूर्ध्वमृक्थमृणं समम् ।
मातुर्दुहितरः शेषमृणात्ताभ्य ऋतेऽन्नयः ॥४
पितृद्रव्याविनाशेन यदन्यत्स्वयमर्जयेत् ।
मैत्रमौद्वाहिकञ्चैव दायादानान्न तद्भवेत् ॥५
सामान्यार्थसमुत्थाने विभागस्तु समः स्मृतः ।
अनेकपितृकाणान्तु पितृतो भागकल्पना ॥६
भूर्यापिता महोपात्ता निबन्धो द्रव्यमेव वा ।
तत्र स्यात्सदृशं स्वाम्यं पितुः पुत्रस्य चोभयोः ॥७
विभक्तेषु सुतो जातः सवर्णायां विभागभाक् ।
दृश्याद्वा तद्विभागः स्यादायव्ययविशोधितात् ॥८
क्रमादभ्यागतं द्रव्यं हृतमभ्युद्धरेच्च यः ।
दायादेभ्यो न तद्दद्याद्विद्यया लब्धमेव च ॥९
पितृभ्यां यस्य यद्दत्तं तत्तस्यैव धनं भवेत् ।
पितुरूर्ध्वं विभजतां माताप्यंशं समं हरेत् ॥१०
असंस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः ।
भागिन्यश्च निजादंशाद्दत्वांशन्तु तुरीयकं ॥११
चतुःस्त्रिद्व्येकभागाः स्युर्वर्णशो ब्राह्मणात्मजाः ।
क्षत्रजास्त्रिद्व्येकभागा विड्जास्तु द्व्येकभागिनः ॥१२
अन्योन्यापहृतं द्रव्यं विभक्ते यत्तु दृश्यते ।
तत्पुनस्ते समैरंशैर्विभजेरन्निति स्थितिः ॥१३
अपुत्रेण परक्षेत्रे नियोगोत्पादितः सुतः ।
उभयोरप्यसावृक्थी पिण्डदाता च धर्मतः ॥१४
औरसो धर्मपत्नीजस्तत्समः पुत्रिकासुतः ।
क्षेत्रजः क्षेत्रजातस्तु सगोत्रेणेतरेण वा ॥१५
गृहे प्रच्छन्न उत्पन्नो गूढजस्तु सुतः स्मृतः ।
कानीनः कन्यकाजातो मातामहसुतो मतः ॥१६
क्षतायामक्षतायां वा जातः पौनर्भवः सुतः ।
दद्यान्माता पिता वा यं स पुत्री दत्तको भवेत् ॥१७
क्रीतश्च ताभ्यां विक्रीतः कृत्रिमः स्यात्स्व्यं कृतः ।
दत्तात्मा तु स्वयं दत्तो गर्भे वित्तः सहोढजः ॥१८
उत्सृष्टो गृह्यते यस्तु सोपविद्धो भवेत्सुतः ।
पिण्डदोऽंशहरश्चैषां पूर्वाभावे परः परः ॥१९
सजातीयेष्वयं प्रोक्तस्तनयेषु मया विधिः ।
जातोऽपि दास्यां शूद्रस्य कामतोऽंशहरो भवेत् ॥२०
मृते पितरि कुर्युस्तं भ्रातरस्त्वर्धभागिकं ।
अभ्रातृको हरेत्सर्वं दुहितॄणां सुतादृते ॥२१
पत्नी दुहितरश्चैव पितरो भ्रातरस्तथा ।
तत्सुतो गोत्रजो बन्धुः शिष्यः सब्रह्मचारिणः ॥२२
एषामभावे पूवस्य धनभागुत्तरोत्तरः ।
स्वर्यात्स्य ह्यपुत्रस्य सर्ववर्णेष्वयं विधिः ॥२३
वानप्रस्थयतिब्रह्मचारिणामृक्थभागिनः ।
क्रमेणाचार्यसच्छिष्यधर्मभ्रात्रेकतीर्थिनः ॥२४
संसृष्टिनस्तु संसृष्टी सोदरस्य तु सोदरः ।
दद्याच्चापहेरेच्चांशं जातस्य च मृतस्य च ॥२५
अन्योदर्यस्तु संसृष्टी नान्योदर्यधनं हरेत् ।
असंसृष्त्यपि चादद्यात्सोदर्यो नान्यमानृजः ॥२६
पतितस्तत्सुतः क्लीवः पङ्गुरुन्मत्तको जडः ।
अन्धोऽचिकित्स्यरोगाद्या भर्तव्यास्तु निरंशकाः ॥२७
औरसाः क्षेत्रजास्त्वेषां निर्दोषा भागहारिणः ।
सुताश्चैषां प्रभर्तव्या यावद्वै भर्तृसात्कृताः ॥२८
अपुत्रा योषितश्चैषां भर्तव्याः साधुवृत्तयः ।
निर्वास्या व्यभिचारिण्यः प्रतिकूलास्तथैव च ॥२९
पितृमातृपतिभ्रातृदत्तमध्यग्न्युपागतं ।
आधिवेदनिकुञ्चैव स्त्रीधनं परिकीर्तितं ॥३०
बन्धुदत्तं तथा शुल्कमन्वाधेयकमेव च ।
अप्रजायामतीतायां बान्धवास्तदवाप्नुयुः ॥३१
अप्रजास्त्रीधनं भ्रत्तुर्ब्राह्म्यादिषु चतुर्ष्वपि ।
दुहितृणां प्रसूता चेच्छ्रेषे तु पितृगामि तत् ॥३२
दत्वा कन्यां हरन् दण्ड्यो व्ययं दद्याच्च सोदयम् ।
मृतायां दत्तमादद्यात्परिशोध्योभयव्ययम् ॥३३
दुर्भिक्षे धर्मकार्ये च व्याधौ संप्रतिरोधके ।
गृहीतं स्त्रीधनं भर्ता न स्त्रिये दातुमर्हति ॥३४
अधिवित्तस्त्रियै दद्यादधिवेदनिकं समम् ।
न दत्तं स्रीधनं यस्यै दत्ते त्वर्धं प्रकीर्तितम् ॥३५
विभागनिह्नवे ज्ञातिबन्धुसाक्ष्यभिलेखितैः ।
विभागभावना ज्ञेया गृहक्षेत्रैश्च यौतिकैः ॥३६
इत्याग्नेये महापुराणे दायविभागो नाम पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण दो सौ छप्पनवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 256 Chapter In Hindi
दो सौ छप्पनवाँ अध्याय - दायविभागकथनम्
पैतृक धनके अधिकारी; पत्नियोंका धनाधिकार; पितामहके धनके अधिकारी; विभाज्य और अविभाज्य धन; वर्ण क्रम से पुत्रोंके धनाधिकार; बारह प्रकार के पुत्र और उनके अधिकार पत्नी पुत्री आदि के, संसृष्टी के धनका विभाग; क्लीब आदिका अनधिकार; स्त्रीधन तथा उसका विभाग दाय-विभाग-प्रकरण ('दाय' शब्दसे वह धन समझना चाहिये, जिसपर स्वामीके साथ सम्बन्ध के कारण दूसरों का स्वत्व हो जाता है। 'दाय' के दो भेद हैं- 'अप्रतिबन्ध' और 'सप्रतिबन्ध"। पुत्रों और पौत्रोंका पुत्रत्व और पौत्रत्वके कारण पिता और पिता मह के धनपर अनायास ही स्वत्व होता है, इसलिये वह 'अप्रतिबन्ध दाय' है। चाचा और भाई आदि को पुत्र और स्वामीके अभाव में धनपर अधिकार प्राप्त होता है, इसलिये वह 'सप्रतिबन्ध दाय' है। इसी प्रकार उनके पुत्र आदि के लिये भी समझ लेना चाहिये। जिसके अनेक स्वामी हैं, ऐसे धनको बाँटकर एक-एक के अंश को पृथक् पृथक् व्यवस्थित कर देना 'विभाग' कहलाता है। इस अध्याय में दाय विभाग और स्वत्वपर विचार किया गया है, जो धर्म शास्त्रकारों एवं महर्षियों को अभिमत है।)
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! यदि पिता अपने जीवनमें सब पुत्रोंमें धनका विभाजन करे तो वह इच्छानुसार ज्येष्ठ पुत्र को श्रेष्ठ भाग दे या सब पुत्रों को समांश भागी बनाये। यदि पिता सब पुत्रों को समान भाग दे, तो अपनी उन स्त्रियोंको भी समान भाग दे, जिनको पति अथवा श्वशुरकी ओरसे स्त्रीधन न मिला हो। जो पुत्र धनोपार्जनमें समर्थ होनेके कारण पैतृक धनकी इच्छा न रखता हो, उसे भी थोड़ा-बहुत धन देकर विभाजनका कार्य पूर्ण करना चाहिये। पिताके द्वारा दिया हुआ न्यूनाधिक भाग, यदि धर्मसम्मत है, तो वह पितृकृत होनेसे निवृत्त नहीं हो सकता, ऐसा स्मृतिकारोंका मत है। माता-पिता को मृत्यु के पश्चात् पुत्र पिता के धन और ऋण को बराबर बराबर बाँट लें। माता द्वारा लिये गये ऋणको चुकानेके बाद बचा हुआ मातृधन पुत्रियाँ आपसमें बाँट लें। उनके अभावमें पुत्र आदि उस धनका विभाग कर लें। पैतृक धनको हानि न पहुँचाकर जो धन स्वयं उपार्जित किया गया हो, मित्र से मिला हो और विवाहमें प्राप्त हुआ हो, भाई आदि दायाद उसके अधिकारी नहीं होते। यदि सब भाइयों ने सम्मिलित रहकर धनकी वृद्धि की हो तो उस धनमें सबका समान भाग माना जाता है॥ १-५ ॥
(यहाँतक पैतृक सम्पत्तिमें पुत्रोंका विभाग किस प्रकार हो, यह बतलाया गया। अब पितामहके धनमें पौत्रोंका विभाग कैसे हो, इस विषयमें विशेष बात बताते हैं- यद्यपि पितामहके धनमें पौत्रोंका पुत्रोंके समान जन्मसे ही स्वत्व है, तथापि यदि वे पौत्र अनेक पितावाले हैं तो उनके पिताओंको द्वार बनाकर ही पितामहके द्रव्यका विभाजन होगा। सारांश यह कि यदि संयुक्त परिवारमें रहते हुए ही अनेक भाई अनेक पुत्रोंको उत्पन्न करके परलोकवासी हो गये और उनमेंसे एकके दो, दूसरेके तीन और तीसरेके चार पुत्र हों, तो उन पौत्रोंकी संख्याके अनुसार पितामहकी सम्पत्तिका बँटवारा नहीं होगा, अपितु उन पौत्रोंके पिताओंकी संख्याके अनुसार होगा। जिसके दो पुत्र हैं, उसे अपने पिताका एक अंश प्राप्त है, जिसके तीन पुत्र हैं, उसे भी अपने पिताका एक अंश प्राप्त होगा और जिसे चार हैं, उसे भी अपने पिताका एक ही अंश मिलेगा। पितामहद्वारा अर्जित भूमि, निबन्ध और द्रव्यमें पिता और पुत्र दोनोंका समान स्वामित्व है। धनका विभाग होनेके बाद भी सवर्णा स्त्रीमें उत्पन्न हुआ पुत्र विभागका अधिकारी होता है। अथवा आय और व्ययका संतुलन करनेके बाद दृश्य धनमें उसका विभाग होता है। पिता-पितामह आदिके क्रमसे आया हुआ जो द्रव्य दूसरोंने हर लिया हो और असमर्थतावश पिता आदिने उसका उद्धार नहीं किया हो, उसे पुत्रोंमेंसे एक कोई भी पुत्र अन्य बन्धुओंकी अनुमति लेकर यदि अपने प्रयाससे प्राप्त कर ले तो वह उस धनको स्वयं ले ले, अन्य दायादोंको न बाँटे। परंतु खेतका उद्धार करने पर उद्धारकर्ता उसका चौथाई अंश स्वयं ले, शेष भाग सब भाइयोंको बराबर-बराबर बाँट दे। इसी तरह विद्यासे (शास्त्रोंको पढ़ने-पढ़ाने या उसकी व्याख्या करनेसे) जो धन प्राप्त हो, उसको भी दायादोंमें न बाँटे। माता-पिता अपनी जो वस्तु जिसे दे दें, वह उसीका धन होगा। यदि पिताके मरनेपर पुत्रगण पैतृक धनका विभाजन करें तो माता भी पुत्रोंके समान भागकी अधिकारिणी होती है। विभाजनके समय जिन भाइयोंके विवाह आदि संस्कार न हुए हों, उनके संस्कार वे भाई, जिनके संस्कार पहले हो चुके हैं, संयुक्त धनसे करें। अविवाहिता बहिनोंके भी विवाह-संस्कार सब भाई अपने भागका चतुर्थांश देकर करें। ब्राह्मणसे ब्राह्मणी आदि विभिन्न वर्षोंकी स्त्रियोंमें उत्पन्न हुए पुत्र वर्णक्रमसे चार, तीन, दो और एक भाग प्राप्त करें। इसी प्रकार क्षत्रियसे क्षत्रिया आदिमें उत्पन्न तीन, दो एवं एक भाग और वैश्यसे वैश्यजातीय एवं शूद्रजातीय स्त्रीमें उत्पन्न पुत्र क्रमशः दो और एक अंशके अधिकारी होते हैं। धनविभागके पश्चात् जो धन भाइयोंद्वारा एक दूसरेसे अपहृत किया गया दृष्टिगोचर हो, उसे सब भाई पुनः समान अंशोंमें विभाजित कर लें, यह शास्त्रीय मर्यादा है। पुत्रहीन पुरुषके द्वारा दूसरेके क्षेत्रमें नियोगकी विधिसे उत्पन्न पुत्र धर्मके अनुसार दोनों पिताओंके धन और पिण्डदानका अधिकारी है॥ ६-१४॥
अपने समान वर्णकी स्त्री जब धर्मविवाहके अनुसार व्याहकर लायी जाती है तो उसे 'धर्मपन्नी' कहते हैं। अपनी धर्मपत्नीसे स्वकीय वीर्यद्वारा उत्पादित पुत्र 'औरस' कहलाता है। यह सब पुत्रोंमें मुख्य है। दूसरा 'पुत्रिकापुत्र' है। यह भी औरसके ही समान है। अपनी स्त्रीके गर्भसे किसी सगोत्र या सपिण्ड पुरुषके द्वारा अथवा देवरके द्वारा उत्पन्न पुत्र 'क्षेत्रज' कहलाता है। पतिके घरमें छिपे तौरपर जो सजातीय पुरुषसे उत्पन्न होता है, वह 'गूढ़ज' माना गया है। अविवाहिता कन्यासे उत्पन्न पुत्र 'कानीन' कहलाता है। वह नानाका पुत्र माना गया है। जो अक्षतयोनि अथवा क्षतयोनिकी विधवासे सजातीय पुरुषद्वारा उत्पन्न पुत्र है, उसको 'पौनर्भव' कहते हैं। जिसे माता अथवा पिता किसीको गोद दे दें, वह 'दत्तक' पुत्र कहा गया है। जिसे किसी माता- पिताने खरीदा और दूसरे माता-पिताने बेचा हो, वह 'क्रीतपुत्र माना गया है। किसीको स्वयं धन आदिका लोभ देकर पुत्र बनाया गया हो तो वह 'कृत्रिम' कहा गया है। जो माता-पितासे रहित बालक 'मुझे अपना पुत्र बना लें'- ऐसा कहकर स्वयं आत्मसमर्पण करता है, वह 'दत्तात्मा' पुत्र है। जो विवाहसे पूर्व ही गर्भमें आ गया और गर्भवतीके विवाह होनेपर उसके साथ परिणीत हो गया, वह 'सहोढज' पुत्र माना गया है। जिसे माता-पिताने त्याग दिया हो, वह समान वर्णका पुत्र यदि किसीने ले लिया तो वह उसका 'अपविद्ध पुत्र' माना गया है। ये जो पूर्वकथित बारह पुत्र हैं, इनमेंसे पूर्व पूर्वके अभावमें उत्तर-उत्तर पिण्डदाता और धनांशभागी होता है। मैंने सजातीय पुत्रोंमें धन-विभागकी यह विधि बतलायी है॥ १५-१९॥
शूद्रके धनविभागकी विशेष विधि-शूद्रद्वारा दासीमें उत्पन्न पुत्र भी पिताकी इच्छासे धनमें भाग प्राप्त करेगा। पिताकी मृत्युके पश्चात् शूद्रकी विवाहिता पत्नीसे उत्पन्न पुत्र अपने पिताके दासीपुत्रको भी भाईकी हैसियतसे आधा भाग दे। यदि शूद्रकी परिणीतासे कोई पुत्र न हो तो वह भ्रातृहीन दासीपुत्र पूरे धनपर अधिकार कर लेः (परंतु यह तभी सम्भव है, जब उसकी परिणीताकी पुत्रियोंके पुत्र न हों। उनके होनेपर तो वह आधा भाग ही पा सकता है।) जिसके पूर्वोक्त बारह प्रकारके पुत्रोंमेंसे कोई नहीं है, ऐसा पुत्रहीन पुरुष यदि स्वर्गवासी हो जाय तो उसके धनके भागी क्रमशः पत्नी, पुत्रियाँ, माता-पिता, सहोदर भाई, असहोदर भाई, भ्रातृपुत्र, गोत्रज (सपिण्ड या समानोदक) पुरुष, बन्धु-बान्धव' (आचार्य), शिष्य तथा सजातीय सहपाठी होते हैं- इनमें पूर्व-पूर्वके अभावमें उत्तरोत्तर धनके भागी होते हैं। सब वर्णोंके लिये धनके विभाजनकी यही विधि शास्त्रविहित है॥ २०-२३ ॥
वानप्रस्थ, संन्यासी और नैष्ठिक ब्रह्मचारियोंके धनके अधिकारी क्रमशः एक आश्रममें रहनेवाला धर्मभ्राता, श्रेष्ठ शिष्य और आचार्य होते हैं। बँटे हुए धनको फिर मिला दिया जाय तो वह 'संसृष्ट' कहलाता है। ऐसा संसृष्ट धन जिन लोगोंके पास है, वे सभी 'संसृष्टी' कहे गये हैं। 'संसृष्टत्व सम्बन्ध' जिस किसीके साथ नहीं हो सकता, किंतु पिता, भाई अथवा पितृव्य (चाचा) के साथ ही हो सकता है। यदि कोई संसृष्टी मर जाय तो उसके हिस्सेका धन दूसरा संसृष्टी पुरुष मूत-संसृष्टीकी मृत्युके बाद उसकी भार्यासे उत्पन्न हुए पुत्रको दे दे। पुत्र न हो तो वह संसृष्टी स्वयं ही ले ले। पत्नी आदिको वह धन नहीं मिल सकता। यदि सहोदर संसृष्टी मर जाय तो दूसरा सहोदर संसृष्टी उसकी मृत्युके पश्चात् पैदा हुए पुत्रको उसका अंश दे दे। यदि पुत्र न हो तो वह स्वयं ही उस संसृष्टीके अंशको ले ले; असहोदर भाई संसृष्टी होनेपर भी उसे नहीं ले सकता। अन्य माताके पेटसे पैदा हुआ सौतेला भाई भी यदि संसृष्टी हो तो वह संसृष्टी भ्राताके धनको ले सकता है। यदि वह असंसृष्टी है तो उस धनको नहीं ले सकता। अथवा असंसृष्टी भी उस संसृष्टीके धनको ले सकता है, जबकि वह संसृष्टी उस असंसृष्टीका सहोदर भाई रहा हो ॥ २४-२६ ॥
नपुंसक, पतित, उसका पुत्र, पङ्गु, उन्मत्त, जड, अन्ध, असाध्य रोगसे ग्रस्त और आश्रमान्तरमें गये हुए पुरुष केवल भरण-पोषण पानेके योग्य हैं। इन्हें हिस्सा बँटानेका अधिकार नहीं है। इन लोगोंक औरस एवं क्षेत्रज पुत्र क्लीबत्व आदि दोषोंसे रहित होनेपर भाग लेनेके अधिकारी होंगे। इनकी पुत्रियोंका भी तबतक भरण-पोषण करना चाहिये, जबतक कि वे पत्तिके अधीन न कर दी जायें। इन क्लीब, पतितः आदिकी पुत्रहीन सदाचारिणी स्त्रियोंका भी भरण-पोषण करना चाहिये। यदि वे व्यभिचारिणी या प्रतिकूल आचरण करनेवाली हों तो उनको घरसे निर्वासित कर देना चाहिये ॥ २७-२९॥
स्त्रीधन जो पिता-माता, पति और भाईने दिया हो, जो विवाहकालमें अग्निके समीप मामा आदिकी ओरसे मिला हो तथा जो आधिवेदनिक आदि धन हो, वह 'स्त्रीधन' कहा गया है। जिसे कन्याकी माताके बन्धु-बान्धवोंने दिया हो, जिसे पिताके बन्धु-बान्धवोंने दिया हो तथा जो वर पक्षकी ओरसे कन्याके लिये शुल्करूपमें मिला हो एवं विवाहके पश्चात् पतिकुलसे जो वधूको भेंट मिला हो, वह सब 'स्त्रीधन' कहा गया है। यदि स्त्री संतानहीना हो- जिसके बेटी, दौहित्री, दौहित्र, पुत्र और पौत्र कोई भी न हों, ऐसी स्त्री यदि दिवंगत हो जाय तो उसके पति आदि बान्धवजन उसका धन ले सकते हैं। ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य-इन चार प्रकारके विवाहोंकी विधिसे विवाहित स्त्रियोंके निस्संतान मर जानेपर उनका धन पतिको प्राप्त होता है। यदि वे संतानवती रही हों तो उनका धन उनकी पुत्रियोंको प्राप्त होता है और शेष चार गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच विवाहकी विधिसे विवाहित होकर मरी हुई संतानहीना स्त्रियोंका धन उनके पिताको प्राप्त होता है ॥ ३०-३२॥
जो कन्याका वाग्दान करके कन्यादान नहीं करता, वह राजाके द्वारा दण्डनीय होता है तथा वाग्दानके निमित्त वरने अपने सम्बन्धियों और कन्या-सम्बन्धियोंके स्वागत सत्कारमें जो धन खर्च किया हो, वह सब सूदसहित कन्यादाता वरको लौटावे। यदि वाग्दत्ता कन्याकी मृत्यु हो जाय, तो वर अपने और कन्यापक्ष दोनोंके व्ययका परिशोधन करके जो अवशिष्ट व्यय हो, वही कन्यादातासे ले। दुर्भिक्षमें, धर्मकार्यमें, रोग या बन्धनसे मुक्ति पानेके लिये यदि पति दूसरा कोई धन प्राप्त न होनेपर स्त्रीधनको ग्रहण करे, तो पुनः उसे लौटानेको बाध्य नहीं है। जिस स्त्रीको श्वशुर अथवा पतिसे स्त्रीधन न प्राप्त हुआ हो, उस स्त्रीके रहते हुए दूसरा विवाह करनेपर पति 'आधिवेदनिक' के समान धन दे। अर्थात् 'अधिवेदन' (द्वितीय विवाह) में जितना धन खर्च होता हो, उतना ही धन उसे भी दिया जाय। यदि उसे पति और श्वशुरकी ओरसे स्त्रीधन प्राप्त हुआ हो, तब आधिवेदनिक धनका आधा भाग ही दिया जाय। विभागका अपलाप होनेपर यदि संदेह उपस्थित हो तो कुटुम्बीजनों, पिताके बन्धु- बान्धवों, माताके बन्धु-बान्धवों, पूर्वोक्त लक्षणवाले साक्षियों तथा अभिलेख विभागपत्रके सहयोगसे विभागका निर्णय जानना चाहिये। इसी प्रकार यौतक (दहेजमें मिले हुए धन) तथा पृथक् किये गये गृह और क्षेत्र आदिके आधारपर भी विभागका निर्णय जाना जा सकता है ॥ ३३-३६ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महा पुराण में 'दाय विभागका कथन' नामक दो सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५६॥
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