लिंग पुराण : [ पूर्वभाग ] सोलहवाँ अध्याय
विश्वरूप नामक कल्प में शिव स्वरूप भगवान् ईशान का प्रादुर्भाव, ब्रह्मा जी द्वारा ईशान की स्तुति
सृत उवाच
अथान्यो ब्रह्मण: कलपो वर्तते मुनिपुड्रवा:।
विश्वरूप इति ख्यातो नामतः परमाद्धुतः॥ १
विनिवृत्ते तु संहारे पुनः सृष्टे चराचरे।
ब्रह्मण: पुत्रकामस्य ध्यायतः परमेष्ठिन:॥ २
प्रादर्भूत महानादा विश्वरूपा सरस्वती।
विश्वमाल्याम्बरधरा. विश्वयज्ञोपवीतिनी ॥ ३
सूत जी बोले-
हे मुनिश्रेष्ठो! असित कल्पके अनन्तर 'विश्वरूप' नामसे विख्यात ब्रह्माजीका दूसरा अत्यन्त अद्भुत कल्प आरम्भ हुआ समस्त जगत् के संहारके अनन्तर चराचर संसारकी पुन: सृष्टिके निमित्त पुत्र-कामनासे ध्यानरत परमेष्ठी ब्रह्माजीके समक्ष महान् नाद करती हुई विश्वरूपा सरस्वती गौ प्रकट हुई। वह विश्वरूप माला, वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा शिरोभूषण (पगड़ी) धारण की हुई थी। उन महोष्ठिका विश्वमाताके सभी अंग विश्वगन्धसे अनुलिप्त थे॥ १-३ ॥
विश्वोष्णीषा विश्वगन्धा विश्वमाता महोष्ठिका।
तथाबिधं॑ स॒ भगवानीशानं परमेश्वरम्॥ ४
शुद्धस्फटिकसड्राशं॑ सर्वाभरणभूषितम्।
अथ तं मनसा ध्यात्वा युक्तात्मा वै पितामह: ॥ ५
तदनन्तर वे युक्तात्मा भगवान् ब्रह्मा उसी प्रकारके विश्वरूपवाले, शुद्ध स्फटिकमणिके तुल्य आभायुक्त तथा सभी आभूषणों से शोभायमान, सर्वेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वसमर्थ परमात्मा ईशान देव का मनसे ध्यान करके उनकी वन्दना करने लगे॥ ४-५ ॥
नमोउस्तु सर्वविद्यानामीशान परमेश्वर।
नमोउस्तु सर्वभूतानामीशान वृषवाहन॥ ७
ब्रह्मणोडधिपते तुभ्य॑ ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे।
नमो ब्रह्माधिपतये शिवं मेउस्तु सदाशिव॥ ८
हे ओम्स्वरूप ईशान! आपको नमस्कार है। हे महादेव! आपको नमस्कार है। हे समस्त विद्याओंके ईशान (स्वामी) परमेश्वर! आपको नमस्कार है। हे सभी प्राणियोंक अधिपति वृषवाहन! आपको नमस्कार है। हे ब्रह्माधिपते! आप ब्रह्मरूप तथा साक्षातू ब्रह्मको नमस्कार हैं। आप ब्रह्माधिपतिको नमस्कार है। हे सदाशिव ! मेरा कल्याण हो ॥ ६ - ८ ॥
ओड्डारमूर्ते देवेश सद्योजात नमो नमः।
प्रपद्ये त्वां प्रपन्नोईस्मि सद्योजाताय वे नम:॥ ९
अभवे च भवे तुभ्यं तथा नातिभवे नमः।
भवोद्धव भवेशान मां भजस्व महाद्युते॥ १०
हे ओंकारमूर्ते! हे देवेश! हे सद्योजात! आपको बार-बार नमस्कार है। में कष्ट से पीड़ित होकर आपके शरणागत हूँ। सद्योजात को नमस्कार है। अजन्मा होनेपर भी आप लोकाभ्युदयार्थ ही जन्मादिको स्वीकार करनेवाले हैं, हे शिव! आपको नमस्कार है। हे विश्वोत्पादक ! हे विश्वके ईशान (विश्वेश)! हे महाद्युते! मेरी रक्षा करो ॥ ९-१० ॥
बामदेव नमस्तुभ्यं ज्येष्ठाय वरदाय च।
नमो रुद्राय कालाय कलनाय नमो नमः:॥ १९
नमो विकरणायेव कालवर्णाय वर्णिने।
बलाय बलिनां नित्यं सदा विकरणाय ते॥ १२
बलप्रमथनायेव बलिने ब्रह्मरूपिणे।
सर्वभूतेश्वेशाय भूतानां दमनाय च॥१३
मनोन्मनाय देवाय नमस्तुभ्यं महाद्युते।
वामदेवाय वामाय नमस्तुभ्यं॑ महात्मने॥ १४
ज्येष्ठाय चेव श्रेष्ठाय रुद्राय वरदाय च।
कालहन्त्रे नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं महात्मने॥ १५
इति स्तवेन देवेशं ननाम वृषभध्वजम।
यः पठेत्सकृदेवेह ब्रह्मलोक॑ गमिष्यति॥ १६
हे वामदेव! आपको नमस्कार है। ज्येष्ठको नमस्कार है। वरदको नमस्कार है। रुद्रको, कालको तथा कलन (संख्यारूप)-को बार-बार नमस्कार है। वर्णी, कालवर्ण, विकरणको नित्य नमस्कार है। बलियोंके बली, विकरण (मनोरूप) आपको सर्वदा नमस्कार है बलशाली तथा ब्रह्मरूप बलप्रमथन को नमस्कार है। सभी प्राणियोंका दमन करनेवाले सर्वभूतेश्वरेशको नमस्कार है। मनोन्मनको नमस्कार है। देवको नमस्कार है। हे महाद्युत! आपको नमस्कार है। वामदेवको नमस्कार है, वामको नमस्कार है, आप महात्माकों नमस्कार है। ज्येष्ठको नमस्कार है, श्रेष्ठको नमस्कार है, रुद्रको नमस्कार है, वरदको नमस्कार है, महात्मा कालहन्ताको नमस्कार है। आपको नमस्कार है। आपको नमस्कार है इस स्तवन से ब्रह्माजी नी वृषभध्वज ईशानको नमस्कार किया। जो पुरुष एक बार श्रद्धा पूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह ब्रह्म लोक को प्राप्त करता है अथवा जो श्राद्धमें ब्राह्मगणों कों सुनाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है॥ १९ - १६ ॥
श्रावयेद्वा द्विजान् श्राद्धे स याति परमां गतिम्।
एवं ध्यानगतं तत्र प्रणमन्तं पितामहम्॥ १७
उवाच भगवानीश्: प्रीतोह॑ ते किमिच्छसि।
ततसस्तु प्रणतो भूत्वा वाग्विशुद्ध॑ महेश्वरम्॥ १८
उवाच भगवान् रुद्धं प्रीतं प्रीतेन चेतसा।
यदिदं विश्वरूपं ते विश्वगो: श्रेयसीश्वरी॥ १९
एतद्वेदितुमिच्छामि यथेयं परमेश्वर।
कैषा भगवती देवी चतुष्पादा चतुर्मुखी॥ २०
चतुःश्र॒द्धी चतुर्वक्त्रा चतुर्दष्ट्रा चतुःस्तनी।
चतुर्हस्ता चतुर्नेत्रा विश्वरूपा कथ्थ स्मृता॥ २१
कि नामगोत्रा कस्येयं किं वीर्या चापि कर्मत: ।
तस्य तद्गचनं श्रुत्वा देवदेवों वृषध्वज:॥ २२
प्राह देववृषं ब्रह्मा ब्रह्माणं चात्मसम्भवम्।
रहस्यं सर्वमन्त्राणां पावन पुष्टिवर्धनम्॥ २३
श्रृणुष्वैतत्परं गुहामादिसगें यथा तथा।
एवं यो वर्तते कल्पो विश्वरूपस्त्वसी मत: ॥ २४
ब्रह्मस्थानमिदं चापि यत्र प्राप्तं त्वया प्रभो।
त्वत्त: परतरं देव विष्णुना तत्पदं शुभम्॥ २५
बैकुण्ठेन विशुद्धेन मम वामाडुजेन बे।
तदा प्रभृति कल्पश्च त्रयस्त्रिंशत्तमो हायम्॥ २६
शत शतसहस्तराणामतीता ये स्वयम्भुव:।
पुरस्तात्तव देवेश तच्छुणुष्वः महामते॥ २७
आनन्दस्तु स विज्ञेय आनन्द॒त्वे व्यवस्थितः।
माण्डव्यगोत्रस्ततसा मम पुत्रत्वमागत:॥ २८
इस प्रकार ध्यानमग्न होकर वन्दना करते हुए पितामह ब्रह्मासे भगवान् ईशान बोले-मे तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम क्या चाहते हो ?तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने अत्यन्त निवेदन पूर्वक विशुद्ध वाणी वाले तथा प्रसनन्नता को प्राप्त महेश्वर से प्रसन्न मनसे कहा - हे परमेश्वर! यह आपका जो विश्वरूप है तथा परम कल्याणी यह जो विश्वरूपा गौ है-इसके विषय में मैं जानना चाहता हूँ चार पैरोंवाली, चार मुखवाली, चार सींगोंवाली, चार वक्त्रवाली, चार दाढ़ोंवाली, चार स्तनोंवाली, चार हाथों तथा चार नेत्रोंवाली ये भगवती कोन हैं तथा इन देवीको विश्वरूपा क्यों कहा गया है ? इनका नाम तथा गोत्र क्या है ? ये किसकी भार्या हैं तथा इनके कर्मका प्रभाव एवं सामर्थ्य क्या है ? उन ब्रह्मा का वह वचन सुनकर ब्रह्मरूप देव देव वृषध्वज शिवने देवताओंमें श्रेष्ठ अपने पुत्र ब्रह्मासे कहा अब आदिसर्गमें जैसा था, वही पुष्टिकी वृद्धि करनेवाला, पवित्र तथा सभी मन्त्रोंका परम गुह्य रहस्य सुनो। हे प्रभो! यह जो वर्तमान कल्प है, वह विश्वरूप कल्प नामवाला कहा गया है। जिसमें आपने यह ब्रह्मपद प्राप्त किया है और मेरे वाम अंगसे उत्पन्न विष्णुके द्वारा विशुद्ध वैकुण्ठलोक प्राप्त किया गया। हे देव! विष्णुद्वारा प्राप्त वह शुभ पद तुम्हारे ब्रह्मपदसे भी श्रेष्ठ है हे देवेश! हे महामते! उस समयसे अब यह तैंतीसवाँ कल्प है और इससे पूर्व लाखों कल्प बीत चुके हैं तथा आपसे पहले लाखों ब्रह्मा भी हो चुके हैं, उनके विषयमें सुनो आपका माण्डव्य गोत्र है और तपस्यासे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हुए हैं, अतएव आपको आनन्दरूप तत्त्व में व्यवस्थित वह ब्रह्मरूप आनन्द जानना चाहिये॥ १७ - २८॥
त्वयि योगं च सांख्यं च तपो विद्याविधिक्रिया: ।
ऋतं सत्यं दया ब्रह्म अहिंसा सन्मतिः क्षमा॥ २९
ध्यानं ध्येयं दम: शान्तिर्विद्याविद्या मतिर्धृतिः ।
कान्तिर्नीति: प्रथा मेधा लज्जा दृष्टि: सरस्वती ॥ ३०
तुष्टि: पुष्टि: क्रिया चैव प्रसादश्च प्रतिष्ठिता: ।
द्वात्रिंशत्सुगुणा होषा द्वात्रिंशाक्षरसंज्ञया॥ ३१
प्रकृतिर्विहिता ब्रह्ंस्त्वत्प्रसूति्महेश्वरी ।
विष्णोर्भगवतश्चापि तथान्येषामपि प्रभो॥ ३२
सैषा भगवती देवी मत्प्रसूतिः प्रतिष्ठिता।
चतुर्मुखी जगद्योनि: प्रकृतिगों: प्रतिष्ठिता॥ ३३
गौरी माया च विद्या च कृष्णा हैमवतीति च।
प्रधानं प्रकृतिश्चेव यामाहुस्तत्त्वचिन्तका: ॥ ३४
अजामेकां लोहितां शुक्लकृष्णां विश्वप्रजां सृजमानां सरूपाम्।
अजो5हं मां विद्धि तां विश्वरूपं गायत्रीं गां विश्वरूपां हि बुद्धया॥ ३५
एवमुक्त्वा महादेव: ससर्ज परमेश्वर: ।
ततश्च पाएव॑गा देव्या: सर्वरूपकुमारका: ॥ ३६
जटी मुण्डी शिखण्डी च अर्धमुण्डए्च जज्ञिरे।
ततस्तेन यथोक्तेन योगेन सुमहौजसः॥ ३७
दिव्यवर्षसहस्त्रान्ते उपासित्वा महेश्वरम्।
धर्मोपदेशमखिलं कृत्वा योगमयं दृढम्॥ ३८
शिष्टाश्च नियतात्मान: प्रविष्टा रुद्रमीएवरम्॥ ३९
आपमें योग, सांख्य (तत्त्वज्ञान), तप, विद्या, विधि, क्रिया, ऋत (प्रियभाषण), सत्य, दया, वेद, अहिंसा, सन्मति, क्षमा, ध्यान, ध्येय (ईश्वर-सन्निधान), इन्द्रियनिग्रह, शान्ति, ज्ञान, अविद्या (माया), बुद्धि, धृति, कान्ति, नीति, प्रथा (ख्याति), मेधा (धारणवती बुद्धि), लज्जा, दृष्टि (दिव्य ज्ञान), सरस्वती (सर्वलक्षणयुक्त वाणी), तुष्टि, पुष्टि, क्रिया (वेदविहित कर्म) तथा प्रसाद ये बत्तीस गुण प्रतिष्ठित हैं। ककार आदि बत्तीस अक्षरस्वरूपा तथा बत्तीस गुणोंसे युक्त यह विश्वरूपा गाय तुम्हें उत्पन्न करनेवाली है; इसीलिये तुम उन बत्तीस गुणोंसे सम्पन्न हो। हे ब्रह्मन्! प्रकृतिकी रचना मैंने की है और हे प्रभो। आप, भगवान् विष्णु तथा इन्द्र आदि देवता इस महेश्वरीसे प्रसूत हैं। जगत्को उत्पन्न करनेवाली साक्षात् देवी भगवतीस्वरूपा यह चतुर्मुखी प्रकृति गौ मुझसे उत्पन्न होकर प्रतिष्ठाको प्राप्त हुई है, जिसे तत्त्वचिन्तक गौरी, माया, विद्या, कृष्णा, हैमवर्ती, प्रधान तथा प्रकृति-ऐसा कहते हैं विश्वकी प्रजाओंकी सृष्टि करनेवाली, रक्तश्वेत-कृष्ण-वर्णवाली, रूपसम्पन्न, अजन्मा तथा अद्वितीय इस विश्वरूपा गायको अपने बुद्धि-विचारसे साक्षात् गायत्री जानो और में भी अजन्मा हूँ, मुझे भी विश्वरूप जानो तदनन्तर ब्रह्माजी से ऐसा कहकर परमेश्वर महादेवने कई कुमार सृजित किये और इस प्रकार देवीके समीपसे अनेक रूपोंवाले कुमार प्रकट हुए, जिनमें कोई जटाधारी था, कोई मुण्डितसिर था, कोई सिरपर शिखा धारण किये था तथा कोई अर्धमुण्डित सिरवाला था। तदनन्तर सदाचारी, नियत आत्मावाले तथा महान् ओजसे सम्पन्न वे कुमार यथोक्त योगाभ्यास करते हुए देवताओंके एक हजार वर्षतक महेश्वरकी आराधना करके दृढ़ योगयुक्त सम्पूर्ण धर्मोका उपदेश अपने शिष्यों-प्रशिष्योंको देकर अन्तमें परमेश्वर रुद्रमें प्रवेश कर गये॥ २९ -३९ ॥
॥ इ्ति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे ईशानमाहात्य्यकथन॑ नाम षोडशोउध्याय: ॥ ९६॥
॥ इस ग्रकार श्रीलिंगमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभायमें 'ईशानमाहात्म्यकथन' नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ९६॥
click to read 👇👇
टिप्पणियाँ