Linga Purana : देवर्षि नारदजी का नैमिषारण्य आगमन, श्रीसूत-शौनक संवादमें लिङ्गमहापुराणका उपक्रम |

श्रीलिङ्गमहापुराण [ पूर्वभाग ] पहला अध्याय

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॐ नमः शिवाय ।।

॥ श्रीगणेशजीको नमस्कार है॥ ॥ भगवान् शिवको नमस्कार है॥

देवर्षि नारद जी का नैमिषारण्य आगमन, श्री सूत-शौनक संवाद में लिङ्गमहा पुराण का उपक्रम

नमो रुद्राय हरये ब्रह्मणे परमात्मने। 
प्रधानपुरुषेशाय सर्गस्थित्यन्तकारिणे ॥ १

जगत्‌की उत्पत्ति, स्थिति एवं अन्तके कारणीभूत [कारक] ब्रह्मा-विष्णु-शिवरूपात्मक प्रधान-पुरुषाधीश परमात्मा सदाशिवको नमस्कार है॥ १॥

नारदोऽभ्यर्च्य शैलेशे शङ्करं सङ्गमेश्वरे। 
हिरण्यगर्भे स्वर्लीने ह्यविमुक्ते महालये ॥ २

रौद्रे गोप्रेक्षके चैव श्रेष्ठे पाशुपते तथा । 
विघ्नेश्वरे च केदारे तथा गोमायुकेश्वरे ॥ ३

हिरण्यगर्भ चन्द्रेशे ईशान्ये च त्रिविष्टपे। 
शुक्रेश्वरे यथान्यायं नैमिषं प्रययौ मुनिः ।॥ ४

मुनि नारद शैलेश, संगमेश्वर, हिरण्यगर्भ, स्वर्लीन, अविमुक्त, महालय, रौद्र, गोप्रेक्षक, श्रेष्ठ पाशुपत, विघ्नेश्वर, केदार, गोमायुकेश्वर, हिरण्यगर्भ, चन्द्रेश, ईशान्य, त्रिविष्टप तथा शुक्रेश्वर आदि तीर्थस्थानोंमें भगवान् शंकरकी यथोचित आराधना करके नैमिषारण्य पहुँचे ॥ २-४॥

नैमिषेयास्तदा दृष्ट्वा नारदं हृष्टमानसाः। 
समभ्यर्चासनं तस्मै तद्योग्यं समकल्पयन् ॥ ५

नारदजीको देखकर नैमिषारण्यमें निवास करने वाले ऋषियोंके मनमें अतीव प्रसन्नता हुई। उन्होंने नारदजी की सम्यक् प्रकारसे पूजा करके उनके लिये उचित आसन प्रदान किया ॥ ५॥ 

सोऽपि हृष्टो मुनिवरैर्दत्तं भेजे तदासनम् । 
सम्पूज्यमानो मुनिभिः सुखासीनो वरासने ॥ ६

उन नारदजीने भी मुनियोंके द्वारा प्रदत्त उस आसनको सहर्ष स्वीकार किया और उन मुनियोंसे भलीभाँति पूजित होकर तथा उस उत्तम आसनपर सुखपूर्वक विराजमान होकर वे लिङ्गमाहात्म्यसे सम्बद्ध विचित्र रहस्योंवाली कथा सुनाने लगे ॥ ६॥

चक्रे कथां विचित्रार्थां लिङ्गमाहात्म्यमाश्रिताम्।
एतस्मिन्नेव काले तु सूतः पौराणिकः स्वयम् ॥ ७

जगाम नैमिषं धीमान् प्रणामार्थ तपस्विनाम्। 
तस्मै साम च पूजाञ्च यथावच्चक्रिरे तदा ॥ ८

इसी समय पुराणोंके ज्ञाता परम बुद्धिमान् सूतजी तपस्वी मुनियोंको प्रणाम करनेकी कामनासे नैमिषारण्य तीर्थमें पधारे। नैमिषारण्यवासी ऋषियोंने व्यासजीके शिष्य उन सूतजोंकी सम्यक् प्रकारसे स्तुति तथा पूजा की ॥ ७-८ ॥

नैमिषेयास्तु शिष्याय कृष्णद्वैपायनस्य तु। 
अथ तेषां पुराणस्य शुश्रूषा समपद्यत ॥ ९

तत्पश्चात् अपनी कथाओंसे रोमांचित कर देनेवाले सूतजीको अतिविश्वस्त विद्वान् जानकर उन मुनियोंकी उनसे पुराण सुननेकी इच्छा हो गयी ॥ ९ ॥

 दृष्ट्वा तमतिविश्वस्तं विद्वांसं रोमहर्षणम्। 
अपृच्छंश्च ततः सूतमृषिं सर्वे तपोधनाः ॥ १०

तब सभी तपस्वी ऋषियोंने मुनिवर सूतजीसे लिङ्गमाहात्म्यसे युक्त पुण्यदायिनी पुराणसंहिताके विश्यमें पूछा ॥ १० ॥

पुराणसंहितां पुण्यां लिङ्गमाहात्म्यसंयुताम् ।
नैमिषेया ऊचुः त्वया सूत महाबुद्धे कृष्णद्वैपायनो मुनिः ॥ ११ 

नैमिषारण्यवासी ऋषि बोले- महान् बुद्धिवाले हे सूतजी। पुराणोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीकी उपासना की तथा उनसे पुराणसंहिता प्राप्त भी की है॥ ११ ॥

उपासितः पुराणार्थं लब्धा तस्माच्च संहिता।
तस्माद्भवन्तं पृच्छामः सूत पौराणिकोत्तम ॥ १२ 

अतएव पौराणिकोंमें उत्तम है सूतजी। लिङ्ग- माहात्यसे युक्त दिव्य पुराणसंहिता (लिङ्गपुराण) के विषयमें हम आपसे पूछ रहे हैं॥ १२॥

पुराणसंहितां दिव्यां लिङ्गमाहात्म्यसंयुताम् । 
नारदोऽप्यस्य देवस्य रुद्रस्य परमात्मनः ॥ १३ 

क्षेत्राण्यासाद्य चाभ्यर्च्य लिङ्गानि मुनिपुङ्गवः ।
इह सन्निहितः श्रीमान् नारदो ब्रह्मणः सुतः ॥ १४ 

ब्रह्माके पुत्र श्रीमान् मुनिश्रेष्ठ नारदजी भी परमेश्वर रुद्रदेवके पावन क्षेत्रोंमें जाकर वहाँ उनके लिङ्गॉकी पूजा-अर्चना सम्पन्न करके अब यहाँ विराजमान हैं॥१३-१४॥

भवभक्तो भवांश्चैव वयं वै नारदस्तथा।
अस्याग्रतो मुनेः पुण्यं पुराणं वक्तुमर्हसि ॥ १५ 

शिवभक्त, आप, हम मुनिगण तथा नारदजी यहाँ उपस्थित हैं। इन मुनिके आगे आप पवित्र लिङ्गपुराणकी कथा कहनेमें समर्थ हैं। आपने सब कुछ सफलतापूर्वक सिद्ध कर लिया है। आपको तो सब कुछ विदित होगा ॥ १५ ॥

सफलं साधितं सर्वं भवता विदितं भवेत्। 
एवमुक्तः स हृष्टात्मा सूतः पौराणिकोत्तमः ॥ १६ 

अभिवाद्याग्रतो धीमान्नारदं ब्रह्मणः सुतम्। 
नैमिषेयांश्च पुण्यात्मा पुराणं व्याजहार सः ॥ १७

मुनियोंके इस प्रकार कहनेपर पौराणिकोंमें श्रेष्ठ सूतजीका मन प्रसन्नतासे प्रफुल्लित हो गया। सर्वप्रथम ब्रह्माजीके पुत्र देवर्षि नारद तथा नैमिषारण्यवासी मुनियोंका अभिवादन करके बुद्धिमान् तथा पुण्यात्मा सूतजीने लिङ्गपुराण कहना आरम्भ किया ॥ १६-१७॥

सूत उवाच

नमस्कृत्य महादेवं ब्रह्माणञ्च जनार्दनम्। 
मुनीश्वरं तथा व्यासं वक्तुं लिङ्ग स्मराम्यहम् ॥ १८ 

सूतजी बोले-शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा मुनीश्वर व्यासजीको नमस्कार करके लिङ्गपुराणकी कथा कहनेके लिये मैं इस पुराणमें प्रतिपादित विषयका स्मरण करता हूँ ॥ १८ ॥

शब्दब्रह्मतनुं साक्षाच्छब्दब्रह्मप्रकाशकम् । 
वर्णावयवमव्यक्तलक्षणं बहुधा स्थितम् ॥ १९

अकारोकारमकारं स्थूलं सूक्ष्मं परात्परम्। 
ओङ्काररूपमृग्वक्त्रं सामजिह्वासमन्वितम् ॥ २० 

यजुर्वेदमहाग्रीवमथर्वहृदयं विभुम् । 
प्रधानपुरुषातीतं प्रलयोत्पत्तिवर्जितम् ॥ २१ 

शब्दब्रह्म ही इसका शरीर है-यह साक्षात् शब्दब्रह्म (स्वस्वरूप) का प्रकाशक है। अकारादि- क्षकारान्त वर्ण ही इसके अवयव हैं, अनेक रूपोंमें स्थित होनेपर भी यह अव्यक्त है, परात्पर, सूक्ष्मातिसूक्ष्म होनेपर यह अकार, उकार तथा मकारात्मक स्थूल शरीरवाला है, ऐसे स्वयं प्रकाश्य शब्दब्रह्म ॐकारका ऋग्वेद मुख है, सामवेद इसकी जिह्वा है, यजुर्वेद इसकी महाग्रीवा है तथा अथर्ववेद इसका हृदय है, यह व्यापक है, यह प्रकृति तथा पुरुषसे अतीत एवं प्रलय तथा उत्पत्तिसे रहित है ॥ १९-२१॥

तमसा कालरुद्राख्यं रजसा कनकाण्डजम्। 
सत्त्वेन सर्वंगं विष्णुं निर्गुणत्वे महेश्वरम् ॥ २२

जो तमोगुणसे युक्त होनेपर कालरुद्र, रजोगुणसे युक्त होनेपर हिरण्यगर्भस्वरूप, सत्त्वगुणसे आविष्ट होनेपर सर्वव्यापी विष्णुरूप तथा गुणोंसे रहित होनेपर महेश्वरस्वरूपमें प्रकट होता है॥ २२॥

प्रधानावयवं व्याप्य सप्तधाधिष्ठितं क्रमात्। 
पुनः षोडशधा चैव ष‌ड्विंशकमजोद्भवम् ॥ २३ 

सर्गप्रतिष्ठासंहारलीलार्थं लिङ्गरूपिणम् । 
प्रणम्य च यथान्यायं वक्ष्ये लिङ्गोद्भवं शुभम् ॥ २४

प्रकृत्याश्रित होकर जो महत्, अहंकार तथा पंच- तन्मात्रात्मक (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) सात रूपोंमें, तदनन्तर दस इन्द्रियों, पाँच महाभूतों तथा मन इत्यादि षोडश रूपोंमें, पुनः इन षोडश रूपों और अव्यक्त, ध्याता (जीव) एवं ध्येय (शिव) इत्यादिको लेकर छब्बीस रूपोंमें व्यक्त होते हैं, जो पितामह ब्रह्माके भी पिता हैं, उन सृष्टि-पालन तथा संहाररूप लीलाके लिये लिङ्गस्वरूप धारण करनेवाले महेश्वर शिवको प्रणाम करके शुभकारक लिङ्गोद्भवकी कथासे युक्त लिङ्गपुराणका मैं यथोचितरूपसे वर्णन करूँगा ॥ २३-२४॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे लिङ्गोद्भवप्रतिज्ञावर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'लिङ्गोद्भवप्रतिज्ञावर्णन' नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १॥

श्री लिंगमहापुराण [पूर्वभाग] पहला अध्याय - FQAS (Frequent Questions and Answers Set)

यहाँ "श्रीलिंगमहापुराण" के पहले अध्याय से जुड़े अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs) दिए गए हैं, जो इसके महत्व, पात्रों और घटनाओं को समझने में मदद करेंगे।


1. श्रीलिंगमहापुराण के पहले अध्याय का मुख्य विषय क्या है?

यह अध्याय देवर्षि नारदजी के नैमिषारण्य आगमन, मुनियों और सूतजी के संवाद, तथा लिंग महापुराण की कथाओं की प्रस्तावना का वर्णन करता है। इसमें सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारक भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया गया है।


2. नारदजी नैमिषारण्य क्यों आए?

नारदजी ने विभिन्न तीर्थों पर भगवान शिव की आराधना की और अंततः नैमिषारण्य पहुँचे। यहाँ उन्होंने ऋषियों को दर्शन दिए और भगवान शिव के "लिंग" स्वरूप से जुड़े रहस्य साझा किए।


3. सूतजी कौन हैं, और उनका क्या महत्व है?

सूतजी, व्यासजी के शिष्य और पुराणों के ज्ञाता हैं। नैमिषारण्य में उपस्थित ऋषियों ने उनसे "लिंग महापुराण" के रहस्यों को सुनने की इच्छा प्रकट की।


4. "लिंग" का क्या तात्पर्य है?

"लिंग" शब्द का अर्थ है प्रतीक। यह भगवान शिव के निर्गुण और सगुण दोनों स्वरूपों का प्रतिनिधित्व करता है। लिंग महापुराण में शिवलिंग को सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार का प्रतीक बताया गया है।


5. लिंग महापुराण में सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया का उल्लेख कैसे किया गया है?

सूतजी ने बताया कि सृष्टि तीन गुणों - तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण - से युक्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के रूपों में प्रकट होती है। शिव इन तीनों से परे, निर्गुण और परात्पर हैं।


6. नैमिषारण्य का क्या महत्व है?

नैमिषारण्य को प्राचीन काल में तपस्वियों और ऋषियों का निवास स्थान माना गया है। यह स्थान सत्संग, पुराण श्रवण और अध्यात्मिक ज्ञान के आदान-प्रदान का केंद्र है।


7. सूतजी ने लिंग महापुराण सुनाने से पहले किन देवताओं का स्मरण किया?

सूतजी ने शिव, ब्रह्मा, विष्णु और व्यासजी का स्मरण करते हुए लिंग महापुराण की कथा का आरंभ किया।


8. इस अध्याय में कौन-कौन से तीर्थों का उल्लेख हुआ है?

इसमें शैलेश, संगमेश्वर, हिरण्यगर्भ, स्वर्लीन, अविमुक्त, महालय, रौद्र, गोप्रेक्षक, केदार, गोमायुकेश्वर, चन्द्रेश, और शुक्रेश्वर जैसे तीर्थों का उल्लेख किया गया है, जहाँ नारदजी ने शिव की पूजा की।


9. "शब्दब्रह्म" का क्या महत्व है?

"शब्दब्रह्म" भगवान शिव का एक रूप है। यह वेदों की मूल ध्वनि (ॐ) से संबद्ध है और सृष्टि के आधारभूत तत्वों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) को प्रदर्शित करता है।


10. यह अध्याय क्यों महत्वपूर्ण है?

यह अध्याय "लिंग महापुराण" के मूलभूत सिद्धांतों और भगवान शिव के सर्वोच्च स्थान की स्थापना करता है। साथ ही, यह शिव के प्रतीकात्मक लिंग स्वरूप को सृष्टि की शुरुआत और अंत का स्रोत बताता है।

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