बालकाण्ड श्लोक (२६ से ३३ ) तक भावार्थ सहित

बालकाण्ड  श्लोक  (२६  से  ३३ ) तक भावार्थ सहित Balkand verses (26 to 33) with meaning

श्लोक
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ।। २६ - षड्‌विंशतिः ।।
भावार्थ
यह दोहा साधु-संतों के सम्पर्क का आनंद बताता है। 
सुनि - सुनकर  
समुझहिं - समझकर  
जन - लोग  
मुदित - आनंदित  
मन - मन  
मज्जहिं - लीन  
अति - अत्यंत  
अनुराग - प्रेम
लहहिं - प्राप्त करते  
चारि - चार  
फल - फल  
अछत - पाते हैं  
तनु - शरीर  
साधु समाज - साधु-संतों का समुदाय  
प्रयाग - प्रयाग (तीर्थ) 
इस दोहे में कहा गया है कि साधु-संतों के सम्पर्क में रहकर लोग अत्यंत आनंदित होते हैं, उनके संग में रहने से चारों फलों की प्राप्ति होती है और शरीर भी उनके समुदाय के समान पवित्र होता है।
श्लोक
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला ।। 
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।। २७ - सप्तविंशतिः , 
भावार्थ
यह दोहा सत्संग की महिमा को बताता है। 
मज्जन - लीन होना  
फल - फल  
पेखिअ - देखकर  
ततकाला - तुरंत  
काक - कौआ  
होहिं - होता है  
पिक - मैना  
बकउ - बकरी  
मराला - मर जाती है
सुनि - सुनकर  
आचरज - हैरान  
करै - करता है  
जनि - व्यक्ति  
कोई - कोई  
सतसंगति - सत्संग (साधु-संतों का संग)  
महिमा - महिमा  
नहिं - नहीं  
गोई - गिनाई जा सकती है
इस दोहे में कहा गया है कि कौआ, मैना और बकरी को देखकर कोई व्यक्ति तुरंत हैरान हो जाता है, लेकिन सत्संग की महिमा को गिनाना किसी के लिए संभव नहीं होता। यह श्रेष्ठता साधु-संतों के सत्संग की होती है, जो सीख और प्रेरणा का स्रोत होते हैं।

श्लोक
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी ।। 
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।। २८ - अष्टाविंशतिः , 
भावार्थ
यह दोहा जीवों की चेतना और जड़ प्राणियों के विषय में है। 
बालमीक - वाल्मीकि  
नारद - नारद  
घटजोनी - संसार  
निज - अपने  
मुखनि - मुख से  
कही - कहा  
निज - अपने  
होनी - होती है
जलचर - जलचर प्राणी  
थलचर - थलचर प्राणी  
नभचर - नभचर प्राणी  
नाना - विविध  
जे - जो  
जड़ - जड़  
चेतन - चेतना  
जीव - जीवात्मा  
जहाना - होते हैं 
इस दोहे में कहा गया है कि वाल्मीकि और नारद जैसे महर्षि अपने मुख से कहते हैं कि संसार एक ऐसी जगह है जहाँ जलचर, थलचर और नभचर प्राणी नाना प्रकार के होते हैं, जो जड़ और चेतन होते हैं।
श्लोक
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।। 
सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।। २९ - नवविंशतिः
भावार्थ
यह दोहा सत्संग की महिमा को बताता है। 
मति - बुद्धि  
कीरति - स्तुति  
गति - प्रकार  
भूति - भाग्य  
भलाई - शुभता  
जब - जब  
जेहिं - जहाँ  
जतन - प्रयत्न  
जहाँ - जहाँ  
पाई - पाया
सो - वह  
जानब - जानता है  
सतसंग - सत्संग (साधु-संतों का संग)  
प्रभाऊ - प्रभु  
लोकहुँ - लोग  
बेद - ज्ञान  
न - नहीं  
आन - आता  
उपाऊ - छोड़ते हैं
इस दोहे में कहा गया है कि शुभ बुद्धि, स्तुति, प्रकार, भाग्य को जब जहाँ प्रयत्न में लाया जाता है, वहां सतसंग (साधु-संतों का संग) में ही प्रभु की महिमा को जानने की क्षमता होती है, जबकि लोग ज्ञान को नहीं समझते हैं और उसे छोड़ देते हैं।
श्लोक
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ।।३० - त्रिंशत् ,
भावार्थ
यह दोहे सत्संग की महिमा और उसके महत्त्व को व्यक्त करते हैं।
बिनु - बिना  
सतसंग - सत्संग (साधु-संतों का संग)  
बिबेक - विवेक  
न - नहीं  
होई - होता है  
राम - भगवान राम  
कृपा - कृपा  
बिनु - बिना  
सुलभ - सुलभ  
न - नहीं  
सोई - होता है
सतसंगत - सत्संग (साधु-संतों का संग)  
मुद - आनंद  
मंगल - शुभ  
मूला - मूल  
सोइ - वही  
फल - फल  
सिधि - सिद्धि  
सब - सभी  
साधन - साधना  
फूला - फलता है
इस दोहे में कहा गया है कि सत्संग के बिना विवेक नहीं होता है और भगवान राम की कृपा के बिना सच्चा आनंद नहीं मिलता। सत्संग का संग शुभ और मूल आनंद का मूल है और वही साधना के सभी फलों को प्राप्त करने का कारण होता है।
श्लोक
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।।
 बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।।३९
भावार्थ
यह दोहे सत्संग के महत्व को बताते हैं।
सठ - ठीक  
सुधरहिं - सुधरते हुए  
सतसंगति - सत्संग (साधु-संतों का संग)  
पाई - पाई जाती है  
पारस - परस (चिंतन)  
परस - परस (सोने की परीक्षा करने वाला)  
कुधात - सुन्दरता  
सुहाई - दिखाता है
बिधि - विधि  
बस - रहना  
सुजन - सजीव व्यक्ति  
कुसंगत - दुर्जनों का संग  
परहीं - परे जाते हैं  
फनि - मन  
मनि - मन  
सम - समझ  
निज - अपने  
गुन - गुण  
अनुसरहीं - अनुसरते हैं
इस दोहे में कहा गया है कि जब हम सत्संग (साधु-संतों का संग) में रहकर सुधरते हैं, तो हमें ज्ञान और समझ मिलती है जो हमें सही दिशा में ले जाती है। विधिवत अच्छे लोगों के संग रहकर और दुर्जनों के संग से दूर जाकर हम अपने गुणों का अनुसरण करते हैं।

श्लोक
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।। 
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें ।। ३२
भावार्थ
यह दोहे साधु संतों की महिमा को बताते हैं।
बिधि - विधि  
हरि - भगवान  
हर - हरि का  
कबि - कवि  
कोबिद - ज्ञानी  
बानी - बातें  
कहत - कहते हैं  
साधु - साधु  
महिमा - महिमा  
सकुचानी - स्तुति
सो - वह  
मो - मैं  
सन - सुन  
कहि - कहते हैं  
जात - समझता है  
न - नहीं  
कैसें - कैसे  
साक - सही  
बनिक - वाणी  
मनि - मन  
गुन - गुण  
गन - गाता  
जैसें - जैसे
इस दोहे में कहा गया है कि साधु-संत भगवान की महिमा को कवियों के ज्ञानी लोग वाणी में स्तुति के रूप में बताते हैं। वह स्तुति मैं सुनकर समझता नहीं हूँ, जैसे कि सही गाने के गुण मन में आते हैं।
श्लोक
दो बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ । 
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ।। ३३ 
भावार्थ
यह दोहा संतों की महत्ता को बताता है।
दो - दोनों  
बंदउँ - बंधु  
संत - संत  
समान - समान  
चित - चिंता  
हित - हित  
अनहित - अनहित (हानि)  
नहिं - नहीं  
कोइ - कोई
अंजलि - प्रणाम  
गत - जाते  
सुभ - शुभ  
सुमन - सुगंध  
जिमि - जैसे  
सम - सम  
सुगंध - सुगंध  
कर - करें  
दोइ - दोनों
इस दोहे में कहा गया है कि संत समान होते हैं और उनमें किसी को भी चिंता या हानि नहीं पहुंचती। हमें उनके प्रति आदर और प्रेम रखना चाहिए, जैसे कि सम सुगंध कर दोनों शुभ सुगंध देते हैं।

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