कबीर दास जी के 301 से 350 तक दोहे और कबीर दास जी के बारे में ,Kabir Das ji's couplets from 301 to 350 and about Kabir Das ji

कबीर दास जी के 301 से 350 तक दोहे और कबीर दास जी के बारे में 

कबीर दास जी के बारे में

कबीरदास या कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमार्गी उपशाखा के महानतम कवि थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनकी रचनाएँ सिक्खों के आदि ग्रंथ में सम्मिलित की गयी हैं।

कबीर दास का महत्व

संत कबीर सिर्फ एक कवि ही नहीं बल्कि शिल्पकार भी थे। शिल्पकार से अधिक उनका मन अभिभावक शिक्षक और आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होता दिखाई पड़ता है।

कबीर दास जी के 301 से 350 तक दोहे

दोहे 
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । 
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ 
दोहे 
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । 
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ 
दोहे 
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । 
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ 
दोहे 
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । 
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ 
दोहे 
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । 
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ 
दोहे 
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । 
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ 
दोहे 
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । 
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ 
दोहे 
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । 
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ 
दोहे 
कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास । 
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥ 
दोहे 
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक । 
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ 
दोहे 
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह । 
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥ 
दोहे 
माया तजी तौ क्‍या भया, मानि तजि नही जाइ । 
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥ 
दोहे 
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड । 
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥ 
दोहे 
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देड बहाइ । 
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥ 
दोहे 
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग । 
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ 
दोहे 
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद । 
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥ 
दोहे 
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल । 
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥ 
दोहे 
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ । 
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥ 
दोहे 
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच । 
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ 
दोहे 
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । 
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदे हरि आप ॥ 320 ॥ 
दोहे 
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डययाँ टुक कून । 
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ 
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साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ । 
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥ 
दोहे 
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । 
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥ 
दोहे 
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास । 
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥ 
दोहे 
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम । 
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥ 
दोहे 
कबीर दुनिया देहरै, सीत नवांवरग जाइ । 
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्‍यो लाइ ॥ 326 ॥ 
दोहे 
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि । 
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥ 
दोहे 
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम । 
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥ 
दोहे 
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । 
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ 
दोहे 
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । 
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ 
दोहे 
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान । 
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ 
दोहे 
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग । 
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ 
दोहे 
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु । 
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ 
दोहे 
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । 
नहिंतर बेगि उठाड़, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ 
दोहे 
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम । 
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ 
दोहे 
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । 
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ 
दोहे 
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । 
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होड़ ॥ 337 ॥ 
दोहे 
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । 
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठे बोई माइ ॥ 338 ॥ 
दोहे 
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । 
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ 
दोहे 
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । 
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ 
दोहे 
काजल केरी कोठड़ी, तैसी 5 988 । 
बलिहारी ता दास की, पैसिर हार ॥ 341 ॥ 
दोहे 
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । 
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ 
दोहे 
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । 
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥ 
दोहे 
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । 
विव की कक्‍्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 344 ॥ 
दोहे 
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । 
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 345 ॥ 
दोहे 
मैं मन्‍्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि । 
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 346 ॥ 
दोहे 
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ । 
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 347 ॥ 
दोहे 
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ । 
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होड़ ॥ 348 ॥ 
दोहे 
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ । 
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखे आइ ॥ 349 ॥ 
दोहे 
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि । 
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 350 ॥

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