अग्नि पुराण - एक सौ चाँतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 134 Chapter !
अग्नि पुराण एक सौ चाँतीसवाँ त्रैलोक्यविजया-विद्या ! त्रैलोक्यविजयविद्या !अग्नि पुराण - एक सौ चाँतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 134 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ चाँतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 134 Chapter !
ईश्वर उवाच
त्रैलोक्यविजयां वक्ष्ये सर्वयन्त्रविमर्दनीं ।१३४.००१
ओं हूं क्षूं ह्रूं ओं नमो भगवति दंष्ट्रिणि भीमवक्त्रे महोग्ररूपे हिलि हिलि रक्तनेत्रे किलि किलि महानिस्वने कुलु ओं विद्युज्जिह्वे कुलु ओं निर्मांसे कट कट गोनसाभरणे चिलि चिलि शवमालाधारिणि द्रावय ओं महारौद्रि सार्द्रचर्मकृताच्छदे विजृम्भ ओं नृत्य असिलताधारिणि भृकुटीकृतापाङ्गे विषमनेत्रकृतानने वसामेदोविलिप्तगात्रे कह २ ओं हस २ क्रुद्ध २ ओं नीलजीमूतवर्णे ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे हूं ह्रीं क्लीं ओं ह्रीं हूं ओं आकर्ष ओं धून २ ओं हे हः खः वज्रिणि हूं क्षूं क्षां क्रोधरूपिणि प्रज्वल २ ओं भीमभीषणे भिन्द ओं महाकाये च्छिन्द ओं करालिनि किटि २ महाभूतमातः सर्वदुष्टनिवारिणि जये ओं विजये ओं त्रैलोक्यविजये हूं फट्स्वाहा
टिप्पणी
सर्वमन्त्रविमर्दनीमिति ख..
सार्द्रचर्मकृताम्बरे इति झ..
नीलवर्णां प्रेतसंस्थां विंशहस्तां यजेज्जये ॥१३४.००१
न्यासं कृत्वा तु पञ्चाङ्गं रक्तपुष्पाणि होमयेत् ।१३४.००२
सङ्ग्रामे सैन्यभङ्गः स्यात्त्रैलोक्यविजयापठात् ॥१३४.००२
ओं बहुरूपाय स्तम्भय स्तम्भय ओं मोहय ओं सर्वशत्रून् द्रावय ओं ब्रह्माणमाकर्षय विष्णुमाकर्षय ओं माहेश्वरमाकर्षय ओं इन्द्रं टालय ओं पर्वतान् चालय ओं सप्तसागरान् शोषय ओं छिन्द छिन्द बहुरूपाय नमः
भुजङ्गं नाम मृन्मूर्तिसंस्थं विद्यादरिं ततः ॥३॥१३४.००३
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे त्रैलोक्यविजयविद्या नाम चतुर्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ चाँतीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 134 Chapter!-In Hindi
भगवान् महेश्वर कहते हैं- देवि ! अब मैं समस्त यन्त्र-मन्त्रोंको नष्ट करनेवाली 'त्रैलोक्यविजया विद्या' का वर्णन करता हूँ ॥ १॥ ॐ हूं हूं हूं, ॐ नमो भगवति दंष्ट्रिणि भीमवक्त्रे महोग्ररूपे हिलि हिलि, रक्तनेत्रे किलि किलि, महानिस्वने कुलु, ॐ विद्युज्जिह्वे कुलु ॐ निर्मासे कट कट, गोनसाभरणे चिलि चिलि, शवमालाधारिणि द्रावय, ॐ महारौद्रि सार्द्रचर्मकृताच्छदे विजृम्भ, ॐ नृत्यासिलता धारिणि भुकुटीकृतापाङ्गे विषमनेत्रकृतानने वसामेदोविलिप्तगात्रे कह कह, ॐ हस हस, कुध्य कुध्य, ॐ नीलजीमूतवर्णेऽभ्रमालाकृताभरणे विस्फुर, ॐ घण्टारवाकीर्णदेहे, ॐ सिंसिस्थेऽरुणवर्णे, ॐ ह्रां ह्रीं हूं रौद्ररूपे हूं ह्रीं क्लीं, ॐ ह्रीं हू मोमाकर्ष, ॐ धून धून, ॐ हे हः स्वः खः, वज्रिणि हूं शृं क्षां क्रोधरूपिणि प्रज्वल प्रज्वल, ॐ भीमभीषणे भिन्द, ॐ महाकाये छिन्द, ॐ करालिनि किटि किटि, महाभूतमातः सर्वदुष्टनिवारिणि जये, ॐ विजये ॐ त्रैलोक्यविजये हूं फट् स्वाहा ॥ ॐ हूं क्षं हूं, ॐ बड़ी-बड़ी दाढ़ोंसे जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है, उन महोग्ररूपिणी भगवतीको नमस्कार है। वे रणाङ्गणमें स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करें, क्रीड़ा करें। लाल नेत्रोंवाली! किलकारी कीजिये, किलकारी कीजिये। भीमनादिनि कुलु। ॐ विद्युजिह्वे ! कुलु। ॐ मांसहीने ! शत्रुओंको आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। भुजङ्गमालिनि ! वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होइये, अलंकृत होइये। शवमालाविभूषिते ! शत्रुओंको खदेड़िये। ॐ शत्रुओंके रक्तसे सने हुए चमड़ेके वस्त्र धारण करनेवाली महाभयंकरि! अपना मुख खोलिये। ॐ! नृत्य-मुद्रामें तलवार धारण करनेवाली !! टेढ़ी भौंहोंसे युक्त तिरछे नेत्रोंसे देखनेवाली ! विषम नेत्रोंसे विकृत मुखवाली !! आपने अपने अङ्गोंमें मज्जा और मेदा लपेट रखा है। ॐ अट्टहास कीजिये, अट्टहास कीजिये। हँसिये, हँसिये। क्रुद्ध होइये, क्रुद्ध होइये। ॐ नील मेघके समान वर्णवाली! मेघमालाको आभरण रूपमें धारण करनेवाली !! विशेषरूपसे प्रकाशित होइये। ॐघण्टाकी ध्वनिसे शत्रुओंके शरीरोंकी धज्जियाँ उड़ा देनेवाली ! ॐ सिंसिस्थिते ! रक्तवर्णे! ॐ ह्रां ह्रीं हूं रौद्ररूपे ! हूं ह्रीं क्लीं ॐ ह्रीं हूं ॐ शत्रुओंका आकर्षण कीजिये, उनको हिला डालिये, कैंपा डालिये। ॐ हे हः खः वज्रहस्ते ! हूं श्रृं क्षां क्रोधरूपिणि! प्रज्वलित होइये, प्रज्वलित होइये। ॐ महाभयंकरको डरानेवाली! उनको चीर डालिये। ॐ विशाल शरीरवाली देवि ! उनको काट डालिये। ॐ करालरूपे ! शत्रुओंको डराइये, डराइये। महाभयंकर भूतोंकी जननि ! समस्त दुष्टोंका निवारण करनेवाली जये !! ॐ विजये !!! त्रैलोक्यविजये हूं फट् स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ विजयके उद्देश्यसे नीलवर्णा, प्रेताधिरूढ़ा त्रैलोक्यविजया-विद्याकी बीस हाथ ऊँची प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करे। पञ्चाङ्गन्यास करके रक्तपुष्पोंका हवन करे। इस त्रैलोक्यविजया- विद्याके पठनसे समरभूमिमें शत्रुकी सेनाएँ पलायन कर जाती हैं ॥ ३ ॥
ॐ नमो बहुरूपाय स्तम्भय स्तम्भय ॐ मोहय, ॐ सर्वशत्रून् द्रावय, ॐ ब्रह्माणमाकर्षय, ॐ विष्णुमाकर्षय, ॐ महेश्वरमाकर्षय, ॐ इन्द्रं टालय, ॐ पर्वतांश्चालय, ॐ सप्तसागराञ्शोषय, ॐ च्छिन्द च्छिन्द बहुरूपाय नमः ॥ ॐ अनेकरूपको नमस्कार है। शत्रुका स्तम्भन | कीजिये, स्तम्भन कीजिये। ॐ सम्मोहन कीजिये। ॐ सब शत्रुओंको खदेड़ दीजिये। ॐ ब्रह्माका आकर्षण कीजिये। ॐ विष्णुका आकर्षण कीजिये। ॐ महेश्वरका आकर्षण कीजिये। ॐ इन्द्रको भयभीत कीजिये। ॐ पर्वतोंको विचलित कीजिये। ॐ सातों समुद्रोंको सुखा डालिये। ॐ काट डालिये, काट डालिये। अनेकरूपको नमस्कार है ॥ ४॥
मिट्टीकी मूर्ति बनाकर उसमें शत्रुको स्थित हुआ जाने, अर्थात् उसमें शत्रुके स्थित होनेकी भावना करे। उस मूर्तिमें स्थित शत्रुका ही नाम भुजंग है; 'ॐ बहुरूपाय' इत्यादि मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके उस शत्रुके नाशके लिये उक्त मन्त्रका जप करे। इससे शत्रुका अन्त हो जाता है ॥ ५॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें युद्धजयार्णवके अन्तर्गत 'त्रैलोक्यविजया विद्याकारीह वर्णन' नामक एक सौ चाँतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३४॥
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